हमारी पीढ़ी ने शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी को कैसे देखा?
1980 के बाद जब हमारी पीढ़ी ने उर्दू साहित्य में अपने लेखन से दस्तकें देना शुरू कीं, उस वक्त बड़े आलोचकों की पीढ़ी समाप्ति पर थी। सैयद एहतिशाम हुसैन विदा हो चुके थे। कलीमुद्दीन अहमद भी अभी-अभी गुज़रे थे। आले अहमद सुरूर यद्यपि जीवित थे मगर एक आलोचक के तौर पर उनकी सक्रियता सीमित हो चुकी थी। ये भी सच्चाई है कि अब वह उर्दू आलोचना के लिए मानक के तौर पर नहीं रह गये थे। आधुनिकतावादियों का ज़ोर जो 1960 के बाद बहुत शक्तिशाली बन गया था, वह भी काफी कम हो चुका था। ‘शबखूँ’ पत्रिका भी अब रुक-रुक कर प्रकाशित हो रही थी और यह समझना मुश्किल नहीं था कि उर्दू साहित्य में आधुनिकतावादी साहित्यकारों का आन्दोलन कमज़ोर पड़ रहा था। तब यह भी स्पष्ट होने लगा था कि उर्दू साहित्य में नया दौर शुरू होने वाला है।
उसी ज़माने में शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी की एक आलोचनात्मक लेख शृंखला ‘शेरे-शोर अंगेज़’ शीर्षक से प्रकाशित होनी शुरू हुई। वास्तव में अठारहवीं शताब्दी के महाकवि मीर तक़ी मीर का यह चयन था और उनके प्रमुख शेरों की इसे टीका कहा जा सकता है। इससे पूर्व वह अपनी पत्रिका ‘शबखूँ’ में ‘तफहीमे-ग़ालिब’ शीर्षक से ग़ालिब के चुने हुए शेरों पर अपनी विस्तृत टीका लिख रहे थे। मगर जैसे ही मीर के बारे में उनके लेख एक के बाद एक पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे तो उर्दू के पाठकों में एक जिज्ञासा पैदा हुई कि अपने काल का आधुनिकतावादी साहित्य का सबसे बड़ा योद्धा साहित्य की प्राचीन परम्पराओं की तरफ आखिर क्यों आकृष्ट हो रहा है? यद्यपि वह उस काल में भी अपनी आधुनिकतावादी पीढ़ी के खुले समर्थन से पीछे हटते नजर नहीं आते थे मगर यह क्या कि वह अचानक प्राचीन काव्य-परम्परा के अनवेषण और विश्लेषण में सक्रिय हो गये थे।
बाद में फ़ारूक़ी ने मीर के इस चयन और उसकी टीका को चार विस्तृत खण्डों में लगभग 2800 पृष्ठों तक विस्तार देकर पूरा किया। ‘शेरे-शोर अंगेज़’ दो दशकों की तन्मयता का परिणाम है। अपने जीवन काल में संशोधन एवं परिवर्द्धन का सिलसिला भी क़ायम रखा और उसके तीन संस्करण प्रकाशित हुए। इसके बाद वह उर्दू के प्राचीन साहित्य की विवेचना का कार्य बड़ी एकाग्रता से करने लगे। एक साहित्यकार के तौर पर शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी का 1980 के बाद के काल में, निजी तौर पर गैर धोषित यह निर्णय वह सत्य है जिसके अनुरूप आने वाले चार दशकों में स्पष्ट परिणाम सामने आये। भले उर्दू में वह आधुनिकतावादियों के नेतृत्वकर्ता के रूप में पुरानी छवि को किसी तरह संभाले रहे मगर अब लेखक के रूप में वह अपनी स्वतंत्र और अलग पहचान के दावेदार नज़र आने लगे। मीर और गालिब के बाद उन्होंने उर्दू की प्राचीन कथात्मक शृंखलाओं के अध्ययन की योजना बनाई ‘दास्तान-ए-अमीर हमज़ा’ के लेखन और वाचन से संबंधित उन्होंने कई खण्ड प्रकाशित किये और उर्दू साहित्य की वाचिक परम्परा के अवव्यवों को समझने का गंभीर दायित्व वहन किया।
इस तरह शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी आधुनिक साहित्य के विवेचक रूप से हट कर उर्दू के प्राचीन गद्य और पद्य के महत्वपूर्ण अन्वेषक बन गये। 1980 के बाद उर्दू में उनकी पीढ़ी के दूसरे आलोचकों पर ध्यान केंद्रित करें तो शमीम हनफी, वारिस अलवी और वहाब अशरफी आदि किसी न किसी रूप में उनके आभा-मंडल का ही हिस्सा थे। उनमें से कोई भी आलोचक के तौर पर उनका प्रखर प्रतिद्वन्द्वी नहीं हो सकता था। सब के सब फ़ारूक़ी की साहित्यिक छत्र-छाया में ही पले बढ़े थे। गोपीचंद नारंग भी उस काल तक आधुनिकतावादी साहित्य का ही हिस्सा थे और उनके सभी काम मिलकर किसी भी तरह से फ़ारूक़ी के सामने स्वयं को खड़ा नहीं कर सकते थे। 1980 के बाद के दौर में गोपी चंद नारंग लेखन से अधिक साहित्यिक संगठन कर्त्ता और सरकारी संस्थाओं और संसाधनों के आधार पर स्वयं को मजबूत बनाने की प्रक्रिया में लीन होते गये और इस प्रकार अपने साहित्यिक लेखन की तरफ से विमुख रहे।
जबकि इस दौर में शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने एक के बाद एक किताब प्रकाशित करने का सिलसिला जारी रखा अब वह आधुनिक साहित्य के साथ प्राचीन साहित्य के भी समान रूप से ज्ञाता बन चुके थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपने ज्ञान-क्षेत्र का विस्तार किया। अंग्रेजी, उर्दू, फारसी साहित्य का एक-दूसरे तीसरे में अनुवाद का योजनाबद्ध आरंभ हुआ। उर्दू साहित्य का संक्षिप्त इतिहास ‘उर्दू का आरंभिक युग’ के नाम से प्राकशित किया। इसे पहले अंग्रेजी में लिखा, फिर इसका स्वयं उर्दू में अनुवाद किया। बाद में हिन्दी में भी इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ। आधुनिकता का ज़ोर कम होते-होते शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने एक आधुनिकतावादी नेतृत्वकर्ता से आगे बढ़कर ख़ुद को एक संपूर्ण आलोचक के तौर पर स्थापित करने में कामयाबी पायी।
अपनी पत्रिका ‘शबखँू’ में उन्होंने बेनीमाधव रुसवा और उमर शेख़ मिज़ार् के नाम से कुछ गद्य रचनाएँ प्रकाशित कीं। उर्दू पाठकों के लिए ये नये नाम थे। ये कहानियाँ अपने कथ्य और भाषिक विधान में बिलकुल नयी थीं। ये दोनों लेखक अनजाने थे और उनके नाम से कभी कोई रचना अन्यत्र प्रकाशित नहीं हुई थी। ‘शबखूँ’ के अगले अंकों में पाठकों की जो प्रतिक्रियाएँ प्रकाशित हुई उनमें यह संभावना व्यक्त की जाने लगी कि यह रचनाएँ स्वयं शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी के द्वारा लिखी गयी हैं। सर्वप्रथम फ़ारूक़ी ने सामान्य आना-कानी की फिर यह स्वीकार कर लिया कि अलग-अलग नामों से जो रचनाएँ सामने आई हैं, उनके वास्तविक लेखक वह खुद हैं।
पहले ‘सवार और दूसरी कहानियाँ’ शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। फिर ‘कब्ज़े-ज़मा’ नामक उपन्यास आया मगर जैसे ही फ़ारूक़ी का विहंगम उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ प्रकाशित हुआ तो पलक झपकते अपने काल का सिद्ध आलोचक माना हुआ उपन्यासकार बन चुका था। यह उपन्यास पहले पाकिस्तान से छपा फिर भारत में प्रकाशित हुआ। फ़ारूक़ी ने स्वयं इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किया और जिसे पेंग्विन प्रकाशन ने सम्मानपूर्वक छापा। बाद में इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद भी हुआ और पिछले डेढ़ दशकों की महत्वपूर्ण पुस्तकों में इसकी गिनती होती रही है। फ़ारूक़ी ने इस उपन्यास में साहित्य-इतिहास को धरातल पर रखा और इसके अंतर में विभिन्न सांस्कृतिक और नस्लीय समागम को समाहित करके एक महान औपन्यासिक कृति तैयार कर दी।
फ़ारूक़ी की लेखकीय सक्रियता कभी किसी एक विषय या किसी सीमित साहित्यिक अवधारणा के इर्द गिर्द बंधी हुई नही रही। पिछले चालीस वर्षों की उनकी रचनाशीलता को देखते हुए यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि वे उर्दू साहित्य के कमोबेश हर क्षेत्र और दायरे को गंभीरता से समझने और समझाने वाले व्यक्तित्व के तौर पर सिद्ध हुए। कविता, पुस्तक-समीक्षा और सैद्धांतिक विषय-वस्तु पर आरंभिक काल में उन्होंने अधिक ध्यान दिया था। मगर धीरे-धीरे वे अलंकारशास्त्र, भाषा-विज्ञान, कथा साहित्य विवेचना के साथ शब्दकोष विज्ञान, मुहावरा-विधान और भाषा शुद्धीकरण तक की भूली बिसरी कहानियों तक आए। उर्दू के साथ फारसी और अंग्रेजी में उनका लगभग समान अधिकार था, इसका उन्होंने लाभ उठाया, और इससे अपने लेखन को विस्तार दिया।
फ़ारूक़ी अच्छे वक्ता नहीं थे। गोपीचंद नारंग के वकृत्व से तुलना करें तो वह कमजोर सिद्ध होंगे। इसके बावजूद उनके साहित्यिक महत्व के कारण देश भर के महत्वपूर्ण आयोजनों में उन्हें बुलाया जाता था। वे अपने उखड़े-उखड़े अंदाज से ही अपने व्याख्यान देते। मगर लेखक के तौर पर चूँकि वह अतिव्यवस्थित व्यक्ति थे, इसलिए वह किसी छोटे आयोजन में भी पूरी तैयारी के साथ जाते थे। कई सामान्य आयोजनों में दस पन्द्रह पृष्ठों के हस्तलिखित नोट्स के साथ मैंने स्वयं उन्हें देखा है। उनके व्याख्यान में एक धारा यदि ज्ञानमूलक थी तो दूसरी स्पष्टवादिता से निर्देशित थी। विश्वविद्यालय की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों की अज्ञानता पर उनकी सच्ची और बदनाम टिप्पणियाँ इन्हीं आयोजनों में सामने आयी थीं। इस स्पष्टवादिता ने उन्हें एक दार्शनिक छवि भी दे रखी थी। उनके व्याख्यानों में अनेक बार एक झुँझलाए हुए और झगड़ालू व्यक्ति से हमारा पाला पड़ता रहा। सच में यह फ़ारूक़ी की स्पष्टवादिता थी और अपने ज़माने को नंगी आँखों से देखते रहने में जो कुछ उन्हें नजर आता था, उस पर उनकी सच्ची टिप्पणियाँ थीं।
फ़ारूक़ी अंग्रेजी भाषा के अध्ययन और अल्पकाल के लिए अध्यापन में शामिल हुए। फारसी और उर्दू साहित्य को समझने के लिए जितनी अरबी की जरूरत थी, वह उससे परिचित थे। अंग्रेजी के माध्यम से वह विश्व साहित्य की परम्परा और उसके महत्वपूर्ण कार्यों से भी परीचित थे। संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं या पूरब की या एशिया की दूसरी भाषाओं की साहित्यिक परम्पराओं से शायद वह कम परिचित थे। गोपीचंद नारंग की तरह प्राच्य विद्या के दिखावटी अध्येता बनने की भी फ़ारूक़ी ने कभी कोशिश नहीं की। हिन्दी में उनकी बहुत सारी किताबें प्रकाशित हुईं मगर पठन पाठन के क्रम में हिन्दी से उनकी दूरी कायम रही। निजी बातचीत में कभी-कभी अपनी सीमाओं पर वह खुद ही कुछ न कुछ कह देते थे।
1980 के बाद के काल में शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने उर्दू आलोचना और साहित्य के क्षेत्र में अपनी सर्वांगीणता से जगह बनाई। अपने लगातार काम और विस्तृत फलक की वजह से वे पहचाने गये। पचास-पचपन वर्षों के लेखकीय जीवन में उन्होंने कभी संक्षिप्त विराम भी नहीं लिया। हमेशा छोटी-बड़ी निजी साहित्यिक योजनाएँ बनाते रहे और उन पर चलते रहे। बीच-बीच में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, तरक्की उर्दू बोर्ड, राष्ट्रीय उर्दू कौंसिल जैसे सरकारी संस्थानों के प्रमुख भी बने मगर हमेशा अपने निजी साहित्यिक कामों के लिए समय निकालते रहे। भारत या भारत से बाहर कुछ विश्वविद्यालयों ने उन्हें अतिथि शिक्षक भी बनाया। मगर उनकी लेखकीय सक्रियता सर्वोपरि रही जिसके कारण वह रोज़ रोज़ पहले से बड़े रचनाकार के तौर पर स्थापना पाते रहे।
शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने एक भरी-पूरी लेखकीय जिंदगी व्यतीत की। उनकी आँखों की हालत इस बात की गवाही देने के लिए काफी थी कि अपनी रातों की नींद हराम कर के कागज़-कलम और कंप्यूटर की दुनिया में लम्बे समय से वे सिमट गये थे। इधर उनका स्वास्थ्य भी बहुत अच्छा नहीं था। मगर धीरे-धीरे कुछ न कुछ उनके नये काम भी सामने आते रहे। जब कोरोना ने अपनी लिप्सा में उन्हें फँसाया, उस वक्त भी वह अनेक नये-नये कामों में सक्रिय बताए गये। काई कोश भी वह अपनी रुचि से तैयार कर रहे थे। हमें विश्वास है कि वे अनेक कामों को अधूरा छोड़ कर विदा हुए। ऐसे कामों की संख्या सैकड़ो और हज़ारों पृष्ठों में होगी।
1980 की पीढ़ी के लेखकों से सामान्यतः फ़ारूक़ी का सम्बन्ध मीठा नहीं था। फ़ारूक़ी की यह ज़द थी कि आधुनिकतावादी साहित्य व आन्दोलन अभी भी कायम है। इसलिए हमारी पीढ़ी से अनेक मंचों पर विवाद की स्थिति उत्पन्न होती थी। पिछले तीन दशकों में कम से कम पच्चीस अवसर जरूर आए होंगे जब समसामयिक साहित्य के प्रश्नों पर मैंने खुद भी उनसे प्रतिवाद किया होगा। अनेक ऐसे लेख भी लिखे जिसमें फ़ारूक़ी और नारंग दोनों से अपने साहित्यिक मतभेद स्पष्ट किये। इसके कारण मनमुटाव की भी स्थिति रही। हर बड़ा आलोचक अपने बाद की पीढ़ी में अपने समर्थकों की फौज खड़ी करना चाहता है। हमारा सौभाग्य था कि इस काल के दोनो बड़े उर्दू आलोचकों के प्रतिबद्ध समर्थकों में शामिल होने की हमें इच्छा न पैदा हुई। मगर शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी से एक लेखक के तौर पर सम्बन्ध कायम रहा। वह अनेक मामलों में हमसे सहमत नहीं हो सकते थे। मगर विरोध और विमर्श का अवसर फ़ारूक़ी के यहाँ थोड़ा-बहुत मिलता था। यह ज्ञान के प्रति उनका लगाव था कि अपने से इतर समझ रखने वाले छोटों को भी वह समम्मान अपने नज़दीक देखना चाहते थे। इसे उनकी उदारता और महानता ही कहना चाहिए।
हमारी पीढ़ी के रचनाकारों ने फ़ारूक़ी को आधुनिक साहित्य के एक अदना आन्दोलनकारी से उन्हें एक आदमकद रचनाकार बनते देखा। यह हैसियत उन्होंने अपने निजी और विविधतापूर्ण लेखन की बुनियाद पर हासिल की। एक रचनाकार के तौर पर यह आदर्श स्थिति कही जा सकती है। ज्ञान की जितनी शक्ति फ़ारूक़ी में थी, उसे सहेज कर उन्होंने अपने लेखन में समायोजित कर लिया। यह विरले लेखकों को नसीब होता है। मुझे शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी इसी कारण सबसे प्रिय थे। उनकी साहित्यिक स्थापनाओं से मैं बार-बार विरोध करूँगा। मगर अपने ज्ञान और रचनाशीलता की एक-एक बूंद जिस तरह उन्होंने उर्दू साहित्य को सौंपी, उसे लेखकीय आदर्श के तौर पर हर कोई आज़माना चाहेगा।
उर्दू के बड़े लेखकों में पिछले कुछ वर्षों में जमील जालिबी और मुशताक़ अहमद युसुफी बड़े महत्वपूर्ण थे जो पिछले वर्षों गुजरें। जमील जालिबी ने उर्दू साहित्य का विस्तृत इतिहास लिखा जो लगभग पाँच हजार पृष्ठों से अधिक फैल गया। मुशताक़ अहमद युसुफी ने सिर्फ पाँच किताबें लिखीं मगर एक-एक पंक्ति चर्चित हुई। शसुर्रहमान फ़ारूक़ी के खण्डों को मिला दें तो उनकी पुस्तकों गिनती पचास तक पहुँचती है। हमारी पीढ़ी का इन्हीं जीवित रचनाकारों की लेखकीय सक्रियता के दौरान साहित्यिक प्रशिक्षण हुआ। ये कौन सी किताब लिख रहें हैं या किन विषयों के बीच इनके दिन रात गुजर रहे हैं, इनकी सूचनाएं एकत्रित करते करते हमारे बाल काले से सफेद हुए। धीरे-धीरे उर्दू साहित्य में इनकी हैसियत ईंट दर ईंट इमारत की तरह बढ़ती चली गयी।
जमील जालिबी और मुशताक़ अहमद युसुफी पाकिस्तान में थे। हमारे लिए भारत में अकेले शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ही थे। यह भी संयोग था कि डाक-तार विभाग की अफ्रसरी के कारण वह पटना और दिल्ली में भी रहे जिसकी वजह से मिलने मिलाने का सिलसिला भी था। वह कौन से नये काम फैला रहे हैं और किन कामों को समेट रहें हैं इसे प्रकाशन से पहले अनेक बार जानने का अवसर मिलता था। अखतरुल इमान, अली सरदार जाफरी और कुर्रतुलऐन हैदर की मृत्यु के बाद संभवतः वह हमारी भाषा के सर्वश्रेष्ठ लेखक थे जिनसे मिलना, जिन्हें देखना, जिनसे प्रतिवाद करना और जिनके जैसा बनना हर एक लेखक की इच्छा थी। इसलिए उर्दू आलोचना और साहित्य के क्षेत्र में इस काल को शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी का काल भी कहा जा सकता है। दुर्भाग्य है कि कोरोना ने उर्दू के आज के सबसे बड़े लेखक को हमसे छीन लिया।
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