वैसे तो भारतीय सिनेमा का कोई भी दर्शक या छात्र अध्येता सत्यजित राय के नाम से अपरिचित नहीं रहता। पर उन्हें अच्छी तरह से जानने वाले लोग बहुत कम ही हैं, और पूरी तरह से जानने-समझनेवाले तो नहीं के बराबर हैं। मैं भी अभी उन्हें थोड़ा-थोड़ा जानने की कोशिश कर रहा हूँ। जैसा कि जापानी फिल्मकार अकीरा कुरुसोवा ने सत्यजित राय को एशियन सिनेमा का विशाल वटवृक्ष कहा है। मैं उस वटवृक्ष की एक डाल के सहारे पूरे वृक्ष को समझने की कोशिश कर रहा हूँ।
वैसे तो मैं भी माणिकदा को उसी तरह से जानता था जैसे बाकी हिन्दी भाषी। यानि गाने बगाहे फिल्म समारोहों में एक रस्म की तरह दिखायी जाती रही उनकी फिल्म पाथेर पांचाली या चारूलता के माध्यम से। हालांकि इनमें से कोई एक फिल्म ही आपको चमत्कृत करने के लिए काफी है। पर मेरा माणिक दा से असल तौर पर सामना सन 2013 में हुआ और यहीं से मैं अभिनेता से फिल्मकार के रुप में बदल गया।
बात सन 2013 की है जब हमारा भारतीय सिनेमा उद्योग अपनी जन्मशताब्दी मना रहा था। उसी दौरान मुझे नागपुर विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर मित्र ने मुझे सौ वर्ष के हिन्दी साहित्य और सिनेमा के अन्तर्सम्बन्धों पर व्याख्यान के लिए बुलाया। हालांकि मुझे बोलना सिर्फ हिन्दी सिनेमा और साहित्य पर था, पर बाकी भाषाओं से भी तो आप अछूते नहीं रह जाते। इन सौ
वर्षों के सिनेमा में हिन्दी में भी प्रेमचंद की रचनाओं पर फिल्म बनाने वाले जो शख्स हैं वह हैं- माणिकदा। ‘सदगति’ और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ इन दोनो रचनाओं पर फिल्म सत्यजित राय ने ही निर्देशित की। उन फिल्मों के बहाने मुझे रे पर भी चर्चा करनी पड़ी। सबसे ज्यादा आत्मग्लानी मुझे तब हुई जब मैं तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच से उतरा तो वहाँ मौजूद विद्वतमंडल ने मुझे सत्यजित राय की फिल्मों का विशेषज्ञ मान लिया। जबकि सच यह था कि उस वक़्त तक मैंने माणिकदा की चार पाँच फिल्में ही देखी थी। बाकी सब मैने उनके बारे में पढ़कर बोला था। अब यही वह टर्निंग प्वायंट है।
हुआ यह कि माणिकदा के जादू में क़ैद जब मैं घर लौटा तो, मैंने उनकी सारी फिल्में देखने का निश्चय किया। मैंने हिन्दू विश्वविद्यालय के अग्रज बंगाली मित्र से उनकी फिल्में देखने की इच्छा व्यक्ति की। उन्होंने पूछा कि सबसे पहले कौन सी फिल्म देखना चाहोगे तो मैने उनसे ‘अरण्येर दिनरात्रि’ से शुरुआत करने की इच्छा व्यक्त की। इससे वह थोड़ा चौंके भी कि एक गैर-बंगाली उनकी इस अल्पज्ञात फिल्म से शुरुआत क्यों कर रहा है?
उनका आश्चर्य स्वाभाविक था। दरअसल अरण्येर दिनरात्री सत्यजित राय की चौदहवीं फिल्म थी। रे ने अपने जीवन में कुला 28 फीचर फिल्में बनायी और कुछ वृतचित्रों सहित कुल संख्या पैंतीस तक पहुंचती है। यानि अपने पूरा सिनेमाई कैरियर में अरण्येर उनके कैरियर के ठीक मध्यकाल की फिल्म है। सुनील गंगोपाध्याय के इसी नाम से लिखे गए उपन्यास पर आधारित है यह फिल्म। रे ने इस फिल्म को दुनिया के सबसे खूबसूरत और घने जंगलों के लिए विख्यात पलामू ज़िले में फिल्माया था, और पलामू मेरी जन्मभूमि है।
मैंने फिल्म देखी जो ब्लैक एंड वाइट में थी। इसमें 1969 का पलामू दिख रहा था। मैंने इसी फिल्म को फोकस में रखकर एक डाक्युमेंट्री बनायी जिसका शीर्षक है- रिवाइविंग इमेज़री:पलामू, सत्यजित राय और अरण्येर दिन रात्री लगभग पैंतालीस मिनट की।
खैर फिल्म की चर्चा के साथ रे पर भी चर्चा जारी रहे। प्रख्यात बांग्ला साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय के 1968 में प्रकाशित उपन्यास अरण्येर दिन रात्री को आधार बनाकर रे ने इसी नाम से फिल्म बनायी। चार दोस्तों के कोलकत्ता शहर से पलामू के जंगलों में पहुंच कर पिकनिक मनाना और जंगल में रातदिन बिताते हुए वनवासियों के साथ उनका व्यवहार और चकाचौंध से भरे महानगरीय सभ्यता और वनवासियों के बीच के सभ्यता के संघर्ष को बड़े ही खूबसूरत ढंग से चित्रित किया गया है। सौमित्र चट्रजी, रोबी (रवि) घोष, सुमित भंज, शर्मिला टैगोर, सिम्मी गरेवाल और पहाड़ी सान्याल के अभिनय से सजी इस फिल्म को सन 1969 की गर्मियों में रे ने दो शेड्युलों में शूट किया था। फिल्म के निर्माता थे असीम दत्ता। इसे यूरोपीय देशों में डे एंड नाइट इन फारेस्ट के रुप में जाना जाता है। इटली और फ्रांस जैसे देशों में तो यह रे की सबसे ज्यादा देखी जानेवाली फिल्म है। इसे रोड मूवी के रुप में पारिभाषित किया जाता है। अरण्येर पर फोक्स्ड डाक्यूमेंट्री के लिए शोध के दौरान मुझे रे के साथ और रे के उपर फिल्म बनानेवाले लोगों से मिलने का मौका मिला।
उन पर फिल्म बनानेवाले फिल्मकार श्याम बेनेगल कहते हैं-“हम भारतीय सिनेमा को दो कालखंडों में बांट सकते हैं रे के पहले का सिनेमा और रे के बाद का सिनेमा। “बेनेगल आगे कहते हैं कि”अपने छात्र जीवन से ही मैं फिल्मकार बनना चाहता था पर इस बात को लेकर परेशान रहता था कि सिनेमा को हम अपना पर्सनल एक्सप्रेशन का माध्यम नहीं बना सकते, पर इसी बीच मैंने पाथेर पांचाली देख लिया। यहीं से मेरे जीवन का टर्निंग प्वायंट आया अब मेरे सामने तस्वीर साफ थी। पाथेर ने सिद्ध कर दिया कि सिनेमा को भी पर्सनल एक्सप्रेशन का माध्यम बनाया जा सकता है। “
उनके साथ पाँच फिल्मों में सहायक निर्देशन कर चुके टीनु आनंद कहते हैं “मेरे पिताजी (श्री इंदर राज आनंद) फिल्म उद्योग के बड़े लेखक थे। जब मैंने उनको बताया कि मैं निर्देशक बनना चाहता हूँ तो उन्होंने तीन नाम मुझे सुझाए। पहला-राज कपूर, दूसरा इटैलियन डायरेक्टर फेलिनी और तीसरा सत्यजित राय। मैंने इनमें आख़िरी नाम चुना। क्योंकि रे आद्वितीय हैं। रे एक संपूर्ण सिनेमा थेलेखक, निर्देशक, संगीतकार, कैमरामैन, यहाँ तक कि वे अपनी फिल्म का कास्ट्युम भी खुद ही डिजाईन करते थे। “
उन पर एक बेहतरीन डाक्युमेंट्री बना चुके प्रख्यात फिल्मकार गौतम घोष का कहना है-“रे के परिवार नें मुझे बुलाया और मुझे रे के उपर एक डाक्युमेंट्री बनाने के लिए आमंत्रित किया। इसके लिए उन्होंने मेरे लिए रे का आवास, उनका स्टडी रूम, उनकी पर्सनल लाइब्रेरी, सब कुछ रिसर्च के लिए खोल दिया। यहाँ तक कि उनकी पर्सनल डायरी भी। “घोष आगे बताते हैं-“सत्यजित राय एक संपूर्ण सिनेमा थे जब मैंने उनकी डायरियां देखी जिसमें उन्होंने आपनी फिल्मों की पटकथाएं लिखी थीं, तो मैं दंग रह गया। इतनी डिटेलिंग? दरअसल रे अपनी फिल्मों के स्क्रीप्ट शब्द लिपि में न लिखकर चित्रलिपि में लिखते थे यानि अपनी हर फिल्म को दृश्य दर दृश्य स्केच तैयार करते थे फिर बाद में उसके संवाद लिखते थे। यहाँ तक कि किस दृश्य में कौन-सा पात्र कैसा ड्रेस पहनेगा या यदि कोई नृत्य दृश्य है तो उसकी भंगिमाएं क्या होंगी इसके भी डिटेल्स होते थे। आप गोपी गायन बाघा बायन के भूतों के नृत्यदृश्य को देखकरअनुमान लगा सकते हैं। “
टीनु आनंद कहते हैं-“माणिकदा की एक आदत थी। हम जब कभी उनके साथ बाहर होते थे तो किसी भी गांव, शहर या हाट बाज़ार में कोई अजीबोग़रीब इंसान, स्थान, या वास्तु देखते तो झट से अपनी पाकेट डायरी निकालते और जल्दी-जल्दी उसका स्केच बना लेते तथा उसका नाम, समय, और स्थान नोट कर लेते थे। फिर अगर दस वर्ष बाद भी किसी फिल्म में उसका इस्तेमाल करना होता तो अपनी डायरी निकालते और हमसे कहते-इस आदमी को इस जगह से लेकर आओ। “
उनकी चौदह फिल्मों में हीरो रह चुके सौमित्र चटर्जी से जब पूछा गया कि क्या अरण्येर दिनरात्री के निर्माण के दौरान उपन्यासकार सुनील गंगोपाध्याय से माणिक दा के कुछ मतभेद हुए थे क्या? आखिर उपन्यास में मौजूद ढालभूमगढ़ के बैकड्राप को मूवी में पलामू कर दिया था, और चार बोहेमियन दोस्त के रेलयात्रा को रोड जर्नी में बदल दिया था।
इस पर सौमित्र चटर्जी कहते हैं-“नहीं यह बिल्कुल सही नहीं है। हाँ किसी भी रचना को फिल्म में परिवर्तित करने में बदलाव तो होगा ही। दरअसल कोई भी रचना जब कोई फिल्मकार उठाता है तो कहानी को वह स्विमिंग पूल के डाइविंग प्वायंट की तरह लेता है और वहाँ से जब वह डाइव लेता है तो वह स्विमिंग पूल निर्देशक का अपना होता है। वह अपने पानी में तैरता है। और माणिकदा तो कभी भी अपने ही पानी मे तैरना पसंद करते थे। दूसरे शब्दों में फिल्मकार किसी कहानी को रिफरेंस प्वायंट ही रखता है। फिल्म की पटकथा और ट्रीटमेंट उसका अपना होता है।
सन 1956 से 1992 तक रे का फिल्मी जीवन लगभग पैंतीस वर्षों तक फैला है और पैंतीस के लगभग फिल्में भी उन्होंने दी। यानिकि, प्रतिवर्ष एक फिल्म। वो भी विश्वस्तरीय फिल्में। स्पेशल आस्कर और भारत रत्न सहित कई देशों के सर्वोच्च सम्मानों से सम्मानित माणिकदा अपने जीवन के आख़िरी वर्षों तक काम करते रहे। हृदयाघात के बाद अपनी आख़िरी फिल्म तो उन्होंने व्हीलचेअर पर बैठकर निर्देशित की हैं। अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली सहितअपूत्रयी, चारूलता, जलसाघर, महानगर, नायक, का पुरुष, तीन कन्या, देवी, घरे बाइरे, गोपी गायन बाघा बायन, अरण्येर दिनरात्री से आगंतुक तक रे ने अपने फिल्मोग्राफी से भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा का एक समृद्ध लाइब्रेरी दे गए।
हम सभी जानते हैं कि रे सिर्फ फिल्मकार नहीं थे। वह एक साहित्यकार, चित्रकार और कैलीग्राफर थे। हम सिर्फ फिल्मकार के रुप में उनका मूल्यांकन करके उनका कद ही छोटा करते हैं। उन्होंने फेलूदा सिरीज में श्रेष्ठ जासूसी कहानियों की रचना की है। अगर साहित्य आधारित फिल्मों के निर्देशक की सूची तैयार हो तो रे का नाम लगभग सबसे उपर लिखा जाएगा। बहुत कम लोगों को पता है कि लंदन फिल्म फेस्टिवल जैसे विश्वप्रसिद्ध महोत्सव में एक पुरस्कार ही है सत्यजित राय पुरस्कार। काश! हम भी अपने मनीषीयों को ऐसे, ही सच्चा सम्मान देना जानते।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अरण्येर दिनरात्री के उपर बनी डाक्युमेन्ट्री के प्रदर्शन हेतु जब मैंने कोलकाता के सत्यजित राय इस्च्युट को संपर्क किया तो वहाँ बैठे लोग न तो इस सूचना से कोई प्रसन्नता व्यक्त की और नही कोई उत्साह बल्कि कुछ लोगों का तो बंगाली अहंकार भी जाग उठा कि माणिकदा पर फिल्म वो भी एक गैरबंगाली! ऐसे में मुझे याद आते हैं रविन्द्रनाथ जिन्होंने बंकिमचंद चटोपाध्याय के अग्रज संजीबचंद चटोपाध्याय द्वारा लिखित पलामू नामक यात्रा वृतांत के प्रस्तावना में लिखा है कि बंगाली जाति वर्षौं से अपने ज्ञान के भार से दबा पड़ा है। ख़ैर, यह हाल सिर्फ सत्यजित राय इस्च्युट का ही नहीं है बल्कि भारत के सभी विश्वविद्यालयों और आकादमियों में यही माहौल है चाहे वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हो या वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय। और अंत में आइए और इस वर्ष के दो मई को जब माणिक दा को इस संसार में आए पूरे सौ वर्ष हो जाएंगे, उस दिन उनका नमन करें और उनके पदचिन्हों पर चलते हुए कुछ और बेहतरीन जोड़ें। एक फिल्मकार होने के नाते तो हमारी तरफ से यही हमारी श्रद्धांजलि होगी।
.