नफ़रत और विभाजन की क्षेत्रवादी राजनीति
शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने ‘पर-प्रांतियों’ को चिह्नित करने और उनपर निगरानी रखने की बात कहकर एकबार फिर क्षेत्रवाद की संकीर्ण राजनीति को हवा दी है। पिछले दिनों मुंबई के साकीनाका क्षेत्र में एक बत्तीस वर्षीय महिला के साथ ऑटो में वीभत्स बलात्कार किया गया। इस जघन्य वारदात के आरोपी के रूप में जौनपुर, उत्तर प्रदेश के एक ऑटोचालक की पहचान हुई है। आरोपित की पहचान और पकड़ के बाद शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ में संजय राउत ने अपराध के ‘जौनपुर पैटर्न’ का उल्लेख किया और लिखा कि उससे मुंबई में गन्दगी फैल रही है।
इसी नृशंस घटना के सन्दर्भ में गृहविभाग के आला अधिकारियों और पुलिस महानिदेशक के साथ बैठक में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मुम्बई की कानून-व्यवस्था की बदहाली के लिए पर-प्रांतियों को जिम्मेदार मानते हुए उनकी ‘ट्रैकिंग’ और पंजीयन का निर्देश दिया। क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काना और बाहरी लोगों के ख़िलाफ़ लिखना-बोलना शिवसेना या उसके नेताओं के लिए नयी बात नहीं है। वे उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के ख़िलाफ़ गाहे-बगाहे ज़हर उगलकर मराठा अस्मिता को भड़काने का खेल खेलते हैं।
परन्तु प्रदेश के संवैधानिक मुखिया द्वारा इस प्रकार का बयान देना चिंताजनक और अफ़सोसनाक है। दुःखद यह भी है कि महा विकास (विनाश) अघाड़ी में शामिल काँग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी इस मुद्दे पर रणनीतिक चुप्पी साध ली है। हालाँकि, विपक्षी दल भाजपा ने वोटबैंक की परवाह न करते हुए इस क्षेत्रवादी सोच का विरोध किया है। यह विडम्बनापूर्ण ही है कि उद्धव उत्तर भारतीयों की ट्रैकिंग करके मुंबई को अपराधमुक्त और मुम्बईवासियों को सुरक्षित करना चाहते हैं।
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे क्या मुंबई और महाराष्ट्र में वीजा/पासपोर्ट और परमिट की व्यवस्था शुरू करना चाहते हैं? क्या वे भौगोलिक आधार पर चरित्र प्रमाण-पत्र जारी करते हुए क्षेत्र विशेष के लोगों को अपराधी घोषित करना चाहते हैं? क्या वे देश के अन्य राज्यों और शहरों में महाराष्ट्रवासियों के लिए इसी प्रकार की व्यवस्था और व्यवहार चाहते हैं? क्या वे मराठा श्रेष्ठता-ग्रंथि के शिकार हैं और अन्य देशवासियों ख़ासकर उप्र और बिहार के लोगों को हीनतर मानते हैं? क्या उन्होंने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन किया है?
क्या वे इस बात से बेखबर हैं कि मुंबई अंडरवर्ल्ड के संचालक और सरगना कौन लोग हैं? क्या वे इस बात से भी अनजान हैं कि मुंबई के उद्योग-धंधों और कारोबार की रीढ़ कौन हैं? क्या वे यह भी नहीं जानते कि प्रवासियों के खून-पसीने के बिना मुंबई की गगनचुम्बी इमारतों में चमक-दमक और चहल-पहल संभव नहीं है? यह सब जानते-समझते हुए भी उन्होंने जो आपत्तिजनक बयान दिया है, उसकी ख़ास वजह है। यह खास वजह अगले साल की शुरुआत में होने वाला बृहन्मुंबई महानगर पालिका का चुनाव है।
दरअसल, ‘अपराध-शास्त्री’ संजय राउत द्वारा अन्वेषित अपराध के ‘जौनपुर पैटर्न’ को समझने से पहले राजनीति के ‘शिवसेना पैटर्न’ को समझना भी जरूरी है। शिवसेना संकीर्ण अस्मितावादी और क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने वाला सबसे पुराना और किंचित पहला राजनीतिक संगठन है। इस आपराधिक घटना को स्थानीय बनाम बाहरी और मराठी बनाम प्रवासी का रंग जानबूझकर दिया जा रहा है। यह वोटबैंक की राजनीति के तहत किया गया है। कुछ ही महीने बाद होने वाले बृहन्मुंबई महानगर पालिका के चुनाव के मद्देनज़र मराठा वोटों का ध्रुवीकरण इसके केंद्र में है।
उल्लेखनीय है कि पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना में काँटे की टक्कर हुई थी और शिवसेना ने बहुत मामूली अंतर से बृहन्मुंबई महानगर पालिका पर कब्ज़ा किया था। 40 हजार करोड़ से अधिक बजट वाली बी एम सी देश की ही नहीं, दुनिया की सबसे मालदार और दुधारू संस्था है। बी एम सी का वार्षिक बजट देश के कई राज्यों से अधिक है। यह शिवसेना की शक्ति का मूल आधार भी है। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी भी है। शिवसेना किसी भी कीमत पर इसे नहीं खोना चाहती।
मुंबई में काफी बड़ी संख्या कोंकड़ी लोगों की भी है। कोंकण के क्षत्रप नारायण राणे को केन्द्रीय मंत्री बनाकर भाजपा ने इन वोटों में बड़ी सेंधमारी की कोशिश की है। इससे शिवसेना का परेशान होना लाजिमी है। खिसकते जनाधार के कारण बी एम सी चुनाव में पराजय की आशंका से शिवसेना में बदहवासी और बैचैनी है। इस पृष्ठभूमि में यह मराठा वोटबैंक को एकमुश्त साधने की कोशिश है।
बृहन्मुंबई महानगर पालिका के चुनावी समीकरण में उत्तर भारतीयों की नगण्य भूमिका होने से उनके ख़िलाफ़ लिखना-बोलना आसान हो जाता है। पिछले कुछ दशकों से शिवसेना ने सावधानी बरतते हुए प्रवासियों में भी उत्तर भारतीयों ख़ासकर बिहारी और पूर्वांचलियों को ही अपनी घृणा का शिकार बनाया है। यूँ भी उत्तर भारतीय मतदाताओं की पहली पसंद भाजपा है। इसलिए शिवसेना उनकी नाराजगी की चिंता नहीं करती। जबकि मुंबई में बड़ी संख्या में गुजराती और दक्षिण भारतीय प्रवासी भी मौजूद हैं।
लेकिन उनकी निर्णायक संख्या को देखते हुए शिवसेना उनकी खिलाफत का जोखिम नहीं उठा सकती। सन् 1966 में बाला साहेब ठाकरे द्वारा स्थापित शिवसेना क्षेत्रवाद और मराठा अस्मिता की स्थानीयतावादी राजनीति की ही उपज है। मराठा उपराष्ट्रीयता की पैरोकारी करके उसने पाँव पसारे हैं। अपनी स्थापना के शुरुआती दशकों में इसने दक्षिण भारतीय लोगों की ख़िलाफ़त की राजनीति की थी। उस समय मुंबई में क्लर्क स्तर की छोटी-मोटी नौकरियों और उद्योग-धंधों में दक्षिण भारतीयों की काफी तादात थी।
यह दुखद सत्य है कि शिवसेना का जन्म और विकास क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काने और संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति का प्रतिफलन है। भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन के दौरान उसकी इन आक्रामक प्रवृत्तियों पर कुछ अंकुश लगा था। सन् 2008 में जब राज ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना के इतिहास को दुहराने की कोशिश की तो उन्हें असफलता ही हाथ लगी। आज मनसे का गठबंधन भाजपा के साथ है और उसने प्रांतवाद की आक्रामक और घ्रणास्पद राजनीति को लगभग तज दिया है।
यही बात शिवसेना को भी समझने की जरूरत है कि ‘मराठा कार्ड’ की राजनीति अब वोटदिलाऊ और चुनावजिताऊ नहीं है। 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अस्मितावादी राजनीति और उपराष्ट्रीयताओं के उभार का उपजाऊ देशकाल-वातावरण था। परंतु वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के बाद स्थिति में परिवर्तन आया है। ‘मराठा मानुष’ भी वैश्वीकरण और प्रवासन का लाभार्थी है और उनकी अपरिहार्यता से परिचित है। इसलिए वह क्षेत्रीय भावना भड़काने से भेड़चाल में वोट देने वाला नहीं है।
निश्चय ही, इस निर्देश की आड़ में पुलिस-प्रशासन द्वारा उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासियों का उत्पीड़न भी किया जायेगा। इससे पुलिस-प्रशासन पर गैर-जरूरी काम का बोझ भी बढ़ेगा जिससे उनकी कार्यक्षमता और कार्यकुशलता भी प्रभावित होगी। यह निर्णय भ्रष्टाचार के नए द्वार भी खोलेगा। वस्तुतः इसप्रकार के बयान अपनी और पुलिस-प्रशासन की नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश होते हैं। समस्या की सही समझ और सटीक इलाज की जगह इसप्रकार के पल्लाझाड़ू बयानों और झाड़-फूँक इलाज से किसी का भला नहीं होता, बल्कि समाज में बहुत गलत सन्देश जाता है।
अव्वल तो सभी राजनेताओं को इस प्रकार के बयान देकर क्षेत्रीय भावनाएं भड़काने और समाज में घृणा के बीज बोने से बचना चाहिए। लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को तो इस प्रकार के विभाजनकारी बयानों के दुष्परिणामों के बारे में और भी ज्यादा सचेत और सावधान रहने की आवश्यकता है। भारत के संविधान में भाषा, जाति-धर्म, क्षेत्र, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का पूर्ण-निषेध है। क्षेत्र विशेष के लोगों को अपराधी मानकर पुलिस-प्रशासन को निर्देशित करना संकीर्ण सोच और अलोकतांत्रिक एवं असंवैधानिक आचरण की अभिव्यक्ति है। इससे राष्ट्रीय एकता और अखंडता भी क्षतिग्रस्त होती है।
इस प्रकार की बयानबाजी से देशवासियों में अलगाव और विद्वेष पैदा होता है। जगह-जगह क्षेत्रीय भावनाएं और घृणा की फसल लहलहाने लगती है। ऐसे बयान और व्यवहार अंततः राष्ट्र को कमजोर करते हैं। शर्मनाक है कि देश के कई हिस्सों में उप्र और बिहार के लोगों को “भैय्ये” या “बिहारी” कहकर उपेक्षित और तिरस्कृत किया जाता है। ऐसा अपमानजनक संबोधन और भेदभावपूर्ण विधान संविधान की अवमानना और संविधानप्रदत्त अधिकारों का अपहरण है।
शिवसेना और उद्धव ठाकरे को जानने और मानने की जरूरत है कि धारावी जैसी झुग्गी-झोपड़ियों और चालों में अमानवीय हालात में रहने वाले लोगों के बलबूते ही मुंबई का आर्थिक साम्राज्य स्थापित हुआ है। वे सब अपराधी नहीं, परिश्रमी कामगार हैं, जो अपना परिवार पालने और मुंबई को चमकाने के लिए दिन-रात खटते रहते हैं। उनके माथे पर अपराधी लिख देना न सिर्फ उनके श्रम और योगदान का अवमूल्यन है, बल्कि भारतीय संविधान की भी अवहेलना और अपमान है। बिना किसी भेदभाव के समस्त नागरिकों के अधिकारों और सम्मान का संरक्षण करके ही संवैधानिक दायित्व का निर्वहन किया जा सकता है। यही राजधर्म भी है।