बीहड़ में तो बागी होते हैं
इस कोरोना महामारी और लॉकडाउन ने हमारे जीवन को पहले ही कई परेशानियों में डाल रखा है। इस बीच अधिकांश लोगों का सबसे बड़ा सहारा टीवी ही बना हुआ है। 29 अप्रैल में टीवी पर एक ऐसी बुरी खबर मिलेगी, ये मैंने सोचा नहीं था। अपने प्रिय कलाकार का इस तरह अलविदा कहना, अन्दर तक झकझोर के रख दिया। इरफान खान का पूरा नाम साहबजादे इरफान अली खान था। मायानगरी की दुनिया में नाम बदलने की परम्परा नयी नहीं है। लेकिन उन्होंने इस परम्परा को भी तोड़ दिया। राजस्थान के छोटे से गाँव में जन्म से लेकर मायानगरी तक का सफर बेहद ही रोचक और संघर्षपूर्ण रहा।
आज इरफान खान हमारे बीच नहीं रहें। इस अपूरणीय क्षति की भरपाई मुश्किल है। इनका जीवन संघर्षपूर्ण और सफलता के बीच की कहानी है। ऐसे व्यक्ति का जीवन उन लोगों के लिए प्रेरणादायक है, जो जीवन में संघर्ष करना जानते हैं, और चाहते हैं। विशेष तौर पर वह वर्ग जो धर्म, जाति, गरीबी का रोना रोते हैं। धर्म, जाति, गरीबी जैसे शब्द की परिभाषा को इरफान खान जैसे लोग बदलकर नयी परिभाषा गढ़ देते हैं जो दुनिया के लिए सीख है। ऐसे कलाकारों का जीवन नयी पीढ़ी को नयी दिशा देने का कार्य करती है। ऐसा कलाकार और जीवन्त व्यक्ति लाखों में से एक होते हैं जो तमाम विडम्बनाओं और अभावों के बावजूद वे मुम्बई जैसी मायानगरी में जुटा रहा। न सिर्फ जुटा रहा बल्कि निरन्तर संघर्ष करता रहा, तब कहीं जाकर अपनी अलग पहचान बनाई और देश-दुनिया पर अपना अमिट छाप छोड़, अभिनय की दुनिया में अमर हो गये।
मुम्बई जैसी मायानगरी में हीरो बनना
इरफान के लिए मुम्बई जैसी मायानगरी में हीरो बनना और अपने आप को स्थापित करना बेहद कठिन था। वो भी ऐसे समय में जब मायानगरी में पहले से प्रख्यात और स्थापित कलाकार मौजूद हों। साथ ही जब संघर्षरत व्यक्ति हीरो के पैमाने वाले कद-काठी पर भी खड़ा न उतरता हो। मायानगरी की इस दुनिया में स्थापित कलाकारों के सामने स्थापित होना बहुत बड़ी बात है। इरफान ने अपनी कला और संघर्ष के बदौलत न सिर्फ अपने-आप को स्थापित किया, बल्कि एक बड़े मुकाम तक भी पहुँचे। यह बहुत बड़ी बात है। वास्तव में मायानगरी की दुनिया माया ही है। यह बाहर से देखने में जितना दिव्य और आर्कषक दिखाई देता है, वह अन्दर से उतना ही कठिन है। ऐसी स्थिति में साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति हीरो बन जाए तो वह किसी आश्चर्य से कम नहीं।
बड़े पर्दे में हीरो का रूप-रंग और शारीरिक बनावट की जो कल्पना की जाती है, वह अत्यन्त सौंदर्यपरक होती है। हीरो की परिकल्पना में ऐसे ही लोग सटीक उतरते हैं। यदि देखा जाए तो ऐसे रूप रंग वालों की कमी भी नहीं हैं। कमी है तो रंगमंच के प्रतिभावान खिलाडि़यों की। खिलाड़ी शब्द का प्रयोग इसलिये समसामयिक है क्योंकि सारा जीवन ही एक खेल है। कौन व्यक्ति कब छक्का मारेगा या आउट होगा, ये कहना मुश्किल है।
असल जीवन का रंगमंच और पर्दे के रंगमंच
“प्रत्येक व्यक्ति का असल जीवन का रंगमंच और पर्दे के रंगमंच में महज एक बारीक सी लकीर खींची हुई है, जिसे जानना, पहचानना और उसे निभाना है। ये कला ही एक अभिनेता की असली पूँजी है। यह कला इरफान खान के पास थी। इसलिए अन्य अभिनेताओं से भिन्न थे। लाखों में से एक लोग ही इरफान खान बन पाता है। “किस्मत के सितारे ऐसे ही नहीं चमकते हैं। चमकता वही है, जो निरन्तर संघर्ष करता है और अपने को निरन्तर निखारता रहता है। निखारने वाली कला ऐसी कला है जो कलाकारों को लम्बे समय तक जीवन्त और प्रासंगिक बनाए रखता है। जीवन्त औार प्रासंगिक कलाकारों में इरफान खान एक ऐसा कलाकार है जिन्होंने संघर्ष जैसे शब्दों को चरितार्थ करके दिखाया है”।
इरफान खान बड़े पर्दे में आने से पहले चाणक्य, चंद्रकांता, अनुगूंज, लाल घास जैसे कई धारावाहिकों में छोटे पर्दे पर काम किया। छोटे पर्दे पर लगभग एक दशक तक कार्य करते रहे। जब तक इन्हें बड़े पर्दे पर अवसर नहीं मिला, तब तक इरफान खान को कम ही लोग जानते थे। लेकिन इरफान खान को जब बड़े पर्दे पर कार्य करने का अवसर मिलने लगा, तब उन्होंने अपनी प्रतिभा का भरपूर उपयोग किया। इसलिए जब इस प्रतिभा सम्पन्न कलाकार को वास्तविक मंच ‘पानसिंह तोमर’ से मिला, तो वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और निरन्तर सफलता की सीढ़ी पर चढ़ता गया।
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इसके बाद इरफान खान ने कई फिल्मों में काम किया, जिसके कारण इनके अभिनय का लोहा और मजबूत होता गया। लिंक से हटकर ऐसी फिल्मों में अभिनय किया है, जो मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के दर्शकों के लिए रोल मॉडल की तरह पेश हुआ। इनकी फिल्में- हिन्दी मीडियम, अंग्रेजी मीडियम, द लंचबॉक्स, स्लमडॉग मिलियेनेयर, बिल्लू, मदारी आदि ऐसी फिल्में हैं जिन्हें कालजयी फिल्मों की संज्ञा दी जा सकती है।
विशेषतौर पर हिन्दी मीडियम और अंग्रेजी मीडियम की बात करें तो समसामयिक समस्या के रूप में इन्हें देखा जा सकता है। हिन्दी मीडियम और अंग्रेजी मीडियम सिर्फ भाषा तक सीमित रहती तो एक बात थी। किन्तु हिन्दी और अंग्रेजी भारत के वर्गभेद की संस्कृति का संवाहक का कार्य कर रही है। अंग्रेजी बोलने वाले लोगों को बुद्धिजीवी माना जाता है। आज भी हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी का वर्चस्व दिखाई पड़ता है। दोनों भाषाओं पर बनी फिल्म के वास्तविक प्रयोजन को दर्शक समझ सके, तभी फिल्म की वास्तविक सफलता होगी। ऐसी फिल्मों की प्रासंगिकता आज भी है, कल भी रहेगा और आने वाले समय में भी होगी।
आमतौर पर एक अभिनेता का जीवन जितना आकर्षक और चकाचौंध वाला दिखाई पड़ता है, वास्तव में वैसा होता नहीं है। इरफान खान का व्यक्तित्व सरल, सहज और सादगीपूर्ण रहा। यह सादगीपूर्ण जीवन अन्य कलाकारों से इन्हें अलग करता है। विगत दो दशक के इनके कार्यों पर निगाह डालें तो, यह कलाकार अपने अभिनय का लोहा मनवाता रहा है। उनकी किसी भी फिल्म को देखने के बाद ऐसा लगता था कि वह हमारे अन्दर तक समा गये हैं। समाज को झकझोरती उनकी वाणी लोगों को भी अन्दर तक झकझोर देती थी। “बीहड़ में बागी रहते हैं, डाकू तो पार्लियामेंट में रहते हैं”, जैसे डायलॉग तो आज भी जहन से निकलना मुश्किल है।
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अभिनय को जीवन्त करने की उनमें जो अद्भूत शक्ति अथवा कला थी, वे शायद ही किसी और के पास दिखती है। इसी का परिणाम है कि श्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ खलनायक पुरस्कार और पद्यश्री जैसे कई बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
इरफान खान को जब से अपनी बीमारी “न्यरोएंडोक्राइन ट्यूमर” का पता चला था, तब से सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों के माध्यम से जो उनका बयान आ रहा था, उन बयानों पर प्रश्नवाचक चिन्ह दिखाई पड़ता था। अंतत: अपनी जिजीविषा और संघर्ष के बीच अपनी अन्तिम साँस 29 अप्रैल 2020 को ली। और कभी न मिट पाने वाली अपने यादों का झरोखा हमारे बीच छोड़ गये। सोशल मीडिया पर जिस तरीके से उन्हें मृत्यु के तुरन्त बाद से ही लोगों द्वारा श्रद्धांजलि अर्पित की गयी, उससे भी उनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस समय हमें भी ऐसा लग रहा था कि लाईफ अगर हाथ में नींबू दे दे, तो शिंकजी बनाना, सच में कितना मुश्किल है।
लेखक शिक्षाविद् एवं स्वतन्त्र लेखक हैं|
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