
आजाद भारत के असली सितारे -4
गंगा के लिए प्राण देने वाले गंगापुत्र स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद
अपनी माँ गंगा के अविरल प्रवाह की रक्षा और उसे प्रदूषण से बचाने के लिए एक सौ ग्यारह दिन तक लगातार अनशन करके अन्तत: अपने प्राण त्याग देने वाले स्वामी सानंद (20.7.1932-11.10.2018) को ‘गंगापुत्र’ भी कहा जाता है। उनका मूल नाम प्रो. गुरुदास अग्रवाल है। उन्हें जी.डी. अग्रवाल और बाद में स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के रूप में भी पहचान मिली।
जी.डी.अग्रवाल का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के काँधला नामक कस्बे में हुआ था। उनकी प्राथमिक और माध्यमिक तक की शिक्षा स्थानीय विद्यालयों में हुई। उसके बाद रुढ़की विश्वविद्यालय के प्रौद्योगिकी संस्थान से उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक और कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी बर्कले से पर्यावरण इंजीनियरिंग में पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त की थी।
अपने कैरियर की शुरुआत उन्होंने 1950 ई. में उत्तर प्रदेश राज्य सिंचाई विभाग में डिजाइन इंजीनियर के रूप में की। वे आई.आई.टी. कानपुर में सिविल एवं पर्यावरण इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख, चित्रकूट स्थित महात्मा गाँधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग के मानद प्रोफेसर, रुढ़की विश्वविद्यालय में पर्यावरण इंजीनियरिंग में अतिथि प्रोफेसर, देश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के प्रथम स्थाई सचिव तथा राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्य कर चुके थे।
उन्होंने पर्यावरणीय गुणवत्ता में सुधार लाने हेतु नीति निर्माण और प्रशासनिक तन्त्र को व्यवस्थित करने और उसे व्यापक आकार और आधार प्रदान करने वाली समितियों में सलाहकार सदस्य के रूप में भी अपना योगदान किया था। वे महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा 1905 में स्थापित ‘गंगा महासभा’ के संरक्षक भी थे। सतही और भूगर्भ जल विज्ञान के क्षेत्र में प्रो. अग्रवाल देश के सर्वोच्च वैज्ञानिकों में से एक थे। प्रो. अग्रवाल के इस ज्ञान के बल पर ही अलवर समेत इस देश के कई इलाकों ने ‘डार्क जोन’ को वापस ‘व्हाइट जोन’ में बदलने में सफलता पाई है।
1977 ई. में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर उनका साथ देने और उससे उत्पन्न विवाद के कारण उन्होंने में आई.आई.टी. कानपुर से त्यागपत्र दे दिया। यह उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था। सिंचाई हेतु नदियों पर बाँधो के निर्माण की परिकल्पना में उनकी खास भूमिका थी। भागीरथी पर बनने वाले टिहरी बाँध-परियोजना की स्वीकृति में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका होने और उसके बाद टिहरी बाँध के कारण गंगा की दुर्दशा देखकर विज्ञान से उनका मन विमुख हो गया। गंगा की निर्मलता, अविरलता, उसके प्रदूषण मुक्ति के उपायों और उसके तकनीकी पहलुओं की उन्हें बहुत अच्छी समझ थी। गंगा की अविरलता के प्रति उनका प्रबल आग्रह था। इसकी पीड़ा उनके अन्दर सदैव सालती रही।
गंगा की अविरलता और निर्मलता को बचाने के लिए वे अध्यात्म की ओर मुड़ गये और अपने जीवन का बाकी हिस्सा गंगा को अविरल और निर्मल बनाने में अर्पित करने का संकल्प लिया। 11 जून 2011 को गंगा दशहरा के दिन जोशी मठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के शिष्य एवं उत्तराधिकारी स्वामी अवमुक्तेश्वरानंद सरस्वती से ज्ञान- दीक्षा लेकर उन्होंने सन्यासी वेश धारण कर लिया और गंगा की रक्षा में निकल पड़े। इसके बाद उनका नाम स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद हो गया।
स्वामी सानंद का विश्वास था कि गंगा पर बनने वाले बाँध, गंगा के अविरल प्रवाह के लिए अभिशाप तो हैं ही, उससे आस-पास के प्राकृतिक परिवेश पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बाँधों में गंगा को कैद किए जाने के चलते गंगा जल का कभी खराब न होने वाला विलक्षण गुण भी खत्म होता जा रहा था। इसीलिए अपनी गंगा माँ को प्रदूषण से बचाने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग देने का फैसला कर लिया। वे कहा करते थे कि गंगा के लिए वे अपनी जान भी दे देंगे।
स्वामी सानंद के पूर्व भी गंगा के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले त्यागी योद्धा हो चुके हैं। उनमें ब्रह्मचारी निगमानंद का नाम भी उसी श्रद्धा से लिया जाता है। उन्होंने भी गंगा की रक्षा के लिए अनशन करते हुए अपने प्राण त्याग दिए थे। ब्रह्मचारी निगमानंद ने गंगा के लिए दो बार अनशन किया। एक बार उनका अनशन 72 दिनों तक चला था जबकि दूसरी बार 115 दिन के अनशन और 19 दिन तक जौलीघाट अस्पताल में भर्ती रहने के बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए थे। ब्रह्मचारी निगमानंद के समाधि स्थल से ही स्वामी सानंद ने अपने अनशन की शुरुआत की। इसके पहले भी स्वामी सानंद ने गंगा की निर्मलता और अविरलता के लिए 2013 ई. में अनशन किया था और जेल भी गये थे। इसके बाद तत्कालीन वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी, तत्कालीन पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश और तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री सुशील कुमार शिन्दे ने गंगोत्री क्षेत्र की लोहारी नागपाला, मनेरी और भैरोघांटी जलविद्युत परियोजना को बन्द करने का फैसला लिया था।
ब्रह्मचारी निगमानंद की मौत के बाद वर्ष 2013 में अनशन करते वक्त स्वामी सानंद ने मीडिया को बताया था कि वे गंगा की निर्मलता और अविरलता को विज्ञान का विषय नहीं, बल्कि आस्था का विषय मानते हैं। 13 अगस्त, 2013 से जब वे अनशन कर रहे थे तो हरिद्वार प्रशासन ने इसे आत्महत्या का प्रयास करार दिया और हरिद्वार के कनखल पुलिस थाने में धारा 309 के तहत प्राथमिकी दर्ज कराई। इसके बाद उन्हें इलाज के नाम पर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली ले जाया गया। वहाँ से लौटने पर उन्हें रोशनाबाद जेल में डाल दिया गया। इस बीच स्वामी जी द्वारा जमानत लेने में असमर्थता व्यक्त करने पर न्यायिक हिरासत की अवधि बढ़ा दी गयी। हालाँकि देश की सर्वोच्च अदालत ने स्वामी सानंद की याचिका पर बिना जमानत रिहाई के आदेश देकर उनके संकल्प का सम्मान किया।
गंगापुत्र स्वामी सानंद ने जो कहा उसे उन्होंने कर के भी दिखा दिया। 22 जून 2018 से वे अपनी माँ गंगा की अविरलता को बचाने और उसे प्रदूषण मुक्त करने हेतु अपेक्षित कदम उठाने के लिए सरकार से आग्रह करने लगे और अन्त में आमरण अनशन पर बैठ गये। गंगा के लिए उनकी प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से माँग थीं कि-
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एम.सी.मेहता, परितोष त्यागी आदि के साथ मिलकर ‘गंगा महासभा’ द्वारा तैयार किया गया “नेशनल रीवर गंगाजी ऐक्ट-2012” संसद के सामने रखा जाय और उसे पास किया जाय।
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गंगा पर बन रहे और गंगा पर बनाने के लिए प्रस्तावित सभी जलविद्युत परियोजनाओं पर तुरंत रोक लगाई जाय।
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गंगा में बालू की खुदाई पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए।
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गंगा की सुरक्षा के लिए और गंगा से जुड़े मुद्दों को देखने के लिए एक ‘गंगा भक्त परिषद’ बनाया जाय।
बहरहाल, माँ गंगा के लिए अपनी माँग के साथ 111 दिन तक उन्होंने कठिन अनशन किया। आए दिन धूमधाम से गंगा की आरती करने वाली और गंगा की सबसे ज्यादा चिन्ता करने का दावा करने वाली भाजपा सरकार के कान पर जूँ तक न रेंगा और अन्तत: माँ गंगा का यह सपूत 11 अक्टूबर 2018 को गंगा के किनारे अपने प्राण त्याग दिए। अपने निधन के लगभग एक महीने पहले ही स्वामी सानंद ने कह दिया था कि अगर सरकार उनकी माँगे नहीं मानती है, तो वे नवरात्र शुरू होने के साथ ही पानी भी नहीं पियेंगे। फिर भी सरकार के ऊपर कोई असर नहीं हुआ। उनके किसी पत्र का जवाब तक नहीं आया। मजबूर होकर उन्होंने अपने संकल्प के अनुसार 10 अक्टूबर से पानी पीना भी छोड़ दिया। इसके बाद हरिद्वार प्रशासन की नींद खुली और उसने उन्हें मातृ सदन से उठाकर ऋषिकेश के एम्स में भर्ती करवा दिया। 11 अक्टूबर को उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और दोपहर 2 बजे के करीब उनकी मौत हो गयी।
Saddened by the demise of Shri GD Agarwal Ji. His passion towards learning, education, saving the environment, particularly Ganga cleaning will always be remembered. My condolences.
— Narendra Modi (@narendramodi) October 11, 2018
उनके निधन के बाद भारत के प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने शोक व्यक्त करने की औपचारिकता निभाते हुए 11 अक्टूबर 2018 को सायं 8.36 बजे अपने ट्विटर पर अंग्रेजी में लिखा कि, “ सडेन्ड बाई द डिमाइज ऑफ जीडी अग्रवालजी. हिज पैशन टूवर्ड्स लर्निंग, एजूकेशन, सेविंग द इंवायरन्मेंट, पार्टिकुलर्ली गंगा क्लीनिंग विल आलवेज बी रिमेंबर्ड. माई कंडोलेंस.” किन्तु सचाई यह है कि गंगापुत्र ने सरकार को चार-चार पत्र लिखे, लोग लगातार उनके अनशन की सूचना सरकार को देते रहे। यह सरकार का दायित्व होता है कि उसके देश का एक विशिष्ट नागरिक व्यापक सामाजिक हित के लिए यदि उसका ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से अनशन कर रहा हो तो उसकी ओर विशेष ध्यान दे, किन्तु सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया गया।
इसके पहले भी प्रोफेसर जीडी अग्रवाल गंगा को बचाने के लिए कई बार अनशन कर चुके थे। उनका सबसे पहला अनशन 2008 में हुआ था। इसके बाद 2010 में जब उन्होंने अनशन किया तो उनके सामने सरकार को झुकना पड़ा था। यूपीए सरकार ने भागीरथी नदी पर 600 मेगावाट का एक प्रोजेक्ट शुरू किया था, जिसे लोहरी नागपाला प्रोजेक्ट कहा जाता था। प्रोफेसर जीडी अग्रवाल ने इस प्रोजेक्ट के खिलाफ 38 दिनों तक अनशन किया और फिर यूपीए सरकार को झुकना पड़ा। पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश ने लोहारी नागपाला, मनेरी भाली और भैरोंघाटी जैसी जल विद्युत परियोजनाएँ बन्द करने का निर्णय लिया था। इतना ही नहीं, तत्कालीन सरकार ने भागीरथी के एक बहुत बड़े इलाके को ईको सेंसेटिव जोन भी घोषित किया था। ऐसी दशा में 2018 में जब स्वामी सानंद अनशन करने के लिए बैठे तो उन्हें को भरोसा था कि मौजूदा सरकार उनके प्रति ज्यादा संवेदनशील होगी, किन्तु हुआ इसके ठीक उल्टा।
प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी को स्वामी सानंद ने कम से कम चार पत्र लिखे। उन्हें उम्मीद थी कि प्रधान मन्त्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी गंगा की चिन्ता करेंगे। अपने अनशनों की याद दिलाते हुए उन्होंने लिखा था कि उनकी माँगों को मनमोहन सिंह की सरकार ने मान लिया था और लोहारी नागपाला जैसे बड़े प्रोजेक्ट रद्द कर दिए गये थे, जो 90 फीसदी तक बन चुके थे। इसकी वजह से हजारों करोड़ रूपयों का नुकसान भी हुआ था। इसलिए उन्होंने प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी से अपील की कि वे गंगा से सम्बन्धित चार माँगों को मान लें, नहीं तो वे स्वयं गंगा के लिए उपवास करते हुए प्राण त्याग देंगे।
उन्हें नरेन्द्र मोदी की सरकार से पूरी उम्मीद थी क्योंकि वर्ष 2013 में जब उनके जीवन का पाँचवां अनशन चल रहा था तो भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उन्हे भरोसा दिया था कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो स्वामी सानंद की सभी माँगें मान ली जाएँगी। इतना ही नहीं, नरेन्द्र मोदी ने 2014 के चुनाव में अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में हजारों लोगों को सम्बोधित करते हुए गंगा की सफाई के मुद्दे पर कहा था, “न मैं आया हूँ, न ही भेजा गया हूँ। मुझे तो माँ गंगा ने बुलाया है।“ नरेन्द्र मोदी के उक्त कथन को आश्वासन के अलावा भला क्या समझा जा सकता है? इसी घटना का उल्लेख करते हुए अखिल भारतीय अग्रवाल सम्मेलन की राष्ट्रीय महासचिव सुमन अग्रवाल ने जीडी अग्रवाल के निधन के बाद नरेन्द्र मोदी पर गंगा के नाम पर राजनीतिक लाभ के लिए जन भावनाओं के शोषण का आरोप लगाया था। मोदी जी ने 2014 के चुनाव के दौरान एक बार बहुत आदर के साथ कहा था कि “स्वामी सानंद गंगा के बेटे हैं”।
इन सब कारणों से गंगापुत्र स्वामी सानंद को नरेन्द्र मोदी पर पूरा विश्वास हो गया था कि उनकी सरकार आएगी तो गंगा निर्मल और अविरल अवश्य होगी। गंगा को मोदी सरकार राष्ट्रीय प्रतीक घोषित करेगी जो स्वामी सानंद की दिली तमन्ना थी। इसीलिए स्वामी सानंद ने काफी दिनों तक प्रतीक्षा की और उसके बाद पत्र लिखे। उन्हें एक-एक कर कई पत्र लिखने पड़े किन्तु किसी भी पत्र का कोई जवाब नहीं आया। इस बीच गंगा की सेहत और खराब होती गयी। क्षुब्ध होकर वे 22 जून से अनशन पर बैठे थे। अनशन पर बैठना उनकी विवशता थी।
जी.डी.अग्रवाल ने अपनी चौथी और आखिरी चिट्ठी अपनी मौत से कुछ ही घंटे पहले लिखी थी। इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि हरिद्वार प्रशासन ने उन्हें जबरन मातृ सदन से उठाकर एम्स ऋषिकेश में दाखिल करवा दिया था। उन्होंने लिखा था कि गंगा संरक्षण को लेकर उनकी तपस्या को देखते हुए एम्स के डॉक्टरों ने उनका सहयोग किया है। इस पत्र को लिखने के कुछ ही घंटों के बाद उनकी मौत हो गयी।
‘सिटिजन फॉर जस्टिस ऐंड पीस’ नामक एनजीओ से जुड़े कार्यकर्ता उज्जवल क्रिष्णम ने पीएमओ में आरटीआई दाखिल कर इस सम्बन्ध में जानकारी माँगी थी। पीएमओ ने स्वीकार किया है कि जीडी अग्रवाल के 13 जून और 23 जून 2018 के पत्र उन्हें मिले थे। 20 अगस्त को पीएमओ ने इन पत्रों को जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय (एमओडब्ल्यूआर) को ट्रांसफर कर दिया। और अपने यहाँ से मामले को बन्द कर दिया।
मातृसदन के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने बताया कि उन्हें जल संसाधन मंत्रालय से कोई जवाब नहीं आया। उस समय जलसंसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय के केन्द्रीय मन्त्री नितिन गडकरी थे।
स्वामी सानंद के सहयोगी रहे रवि चोपड़ा का कहना है कि उन्हें वर्तमान दौर में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों का राजनीतिक दबाव में काम करना पसन्द नहीं था। एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने व्यथित मन से कहा था कि आज की इस मेधा में वह ईमानदारी नहीं है। अब ये लोग सरकार की इच्छाओं के अनुसार अपने दिमाग और विचार बदल लेते हैं। रवि चोपड़ा के अनुसार एक बार उन्होंने कहा था कि आज विकास को भौतिकता और भोग के पैमाने पर नापा जाता है। यह गलत है। विकास में भोगवाद की तलाश से पर्यावरण सुरक्षित नहीं रह सकता है।
निधन के बाद जीडी अग्रवाल के पार्थिव शरीर पर अन्तिम दर्शन के लिए भी विवाद हुआ। दरअसल उन्होंने अपने शरीर को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को रिसर्च के लिए दान कर दिया था। अदालत ने निर्देश दिया कि अग्रवाल के पार्थिव शरीर को आठ घंटे तक मातृसदन (जहाँ वे रहते थे) में रखा जाय ताकि हिन्दू धर्म के अनुसार धार्मिक कर्मकांड किये जा सकें उसके बाद से मेडिकल कॉलेज को सौंपा जाय और यही हुआ।
जनहित के कार्य के लिए लड़ने वाले सच्चे सन्यासी स्वामी सानंद के प्रति शासन का रवैया देखकर मन व्यथित हो उठता है।
माँ गंगा को अविरल और निर्मल बनाने का संकल्प लेने वाले और उसके लिए अपने प्राण न्योछावर कर देने वाले गंगापुत्र स्वामी सानंद की जन्मतिथि पर हम इस महापुरुष को स्मरण करते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
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