एक थी ऊदा देवी पासी
झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की तरह अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजों के छक्के छुडाने वाली एक और भी वीरांगना थी जिसे दुर्भाग्य से वह यश और सम्मान नहीं मिला जिसकी वह वास्तव में हकदार थी। शायद इसलिए कि वह किसी राजघराने या सामंती परिवार में नहीं, एक गरीब दलित परिवार में पैदा हुई एक मामूली सैनिक थी। इतिहास के पन्नों पर ऐसे मामूली लोगों को जगह देने की परम्परा हमारे देश में कम ही रही है।
इतिहास द्वारा विस्मृत स्वाधीनता संग्राम की वह नायिका थी ऊदा देवी पासी जिसे 1857 के स्वाधीनता संग्राम की घटनाओं के कुछ अँग्रेज लेखकों द्वारा दिए गए विवरणों में ‘ब्लैक टाइग्रैस’ कहा गया था। लखनऊ के पास उजिरियाँव गाँव की ऊदा देवी उस दलित पासी जाति से थी जिसे अछूत माना जाता था, लेकिन जो अन्याय और अस्पृश्यता के प्रतिरोध में अपने जुझारू स्वभाव के लिए हमेशा से जानी जाती रही है।
उसका पति मक्का पासी अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पलटन में एक सैनिक था। देशी रियासतों पर अंग्रेजों के बढ़ते हस्तक्षेप के मद्देनज़र जब वाजिद अली शाह ने महल की रक्षा के उद्देश्य से स्त्रियों का एक सुरक्षा दस्ता बनाया तो उसके एक सदस्य के रूप में ऊदा देवी नियुक्त हुईं। अपनी बहादुरी और तुरन्त निर्णय लेने की उसकी क्षमता से नवाब की बेगम और देश के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की नायिकाओं में एक बेगम हजरत महल बहुत प्रभावित हुई। नियुक्ति के कुछ ही अरसे बाद में ऊदा देवी को बेगम हज़रत महल की महिला सेना की टुकड़ी का कमाण्डर बना दिया गया।
महिला दस्ते के कमाण्डर के रूप में ऊदा ने देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान जिस अदम्य साहस, दूरदर्शिता और शौर्य का परिचय दिया था उससे खुद अँग्रेज सेना भी चकित रह गयी थी। ऊदा की वीरता पर उस दौर में लोक में कई गीत लिखे और गाए जाते थे। उन गीतों की कुछ पंक्तियाँ आज भी उपलब्ध हैं : कोई उसको हब्शी कहता / कोई कहता नीच अछूत / अबला कोई उसे बताए / कोई कहे उसको मजबूत! ऊदा देवी को शौर्य और बलिदान की प्रेरणा अपने पति मक्का पासी की शहादत से मिली थी। यह वह समय था जब 10 मई 1857 को मेरठ के सिपाहियों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़ा गया संघर्ष तेजी से पूरे उत्तर भारत में फैलने लगा था।
10 जून, 1857 को लखनऊ के क़स्बा चिनहट के निकट इस्माईलगंज में हेनरी लारेंस के नेतृत्व में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौज की मौलवी अहमदउल्लाह शाह की अगुवाई में संगठित विद्रोही सेना से ऐतिहासिक लड़ाई हुई थी। चिनहट की इस ऐतिहासिक लड़ाई में विद्रोही सेना की विजय तथा हेनरी लारेंस की फौज का मैदान छोड़कर भाग खड़ा होना प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक थी। देश को गौरवान्वित करने वाली और स्वाधीनता सेनानियों का मनोबल बढ़ाने वाली इस लड़ाई में सैकड़ों दूसरे सैनिकों के साथ मक्का पासी की भी शहादत हुई थी। ऊदा देवी ने अपने पति की लाश पर उसकी शहादत का बदला लेने की कसम खाई थी। मक्का पासी के बलिदान का प्रतिशोध लेने का वह अवसर ऊदा देवी को मिला चिनहट के महासंग्राम की अगली कड़ी सिकन्दर बाग़ की लड़ाई में।
अंग्रेजों की सेना चिनहट की पराजय का बदला लेने की तैयारी कर रही थी। उन्हें पता चला कि लगभग दो हजार विद्रोही सैनिकों ने लखनऊ के सिकन्दर बाग में शरण ले रखी है। 16 नवम्बर, 1857 को कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में अँग्रेज सैनिकों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत सिकन्दर बाग़ की उस समय घेराबन्दी की जब विद्रोही सैनिक या तो सो रहे थे या बिल्कुल ही असावधान थे। ऊदा के नेतृत्व में वाजिद शाह की स्त्री सेना की टुकड़ी भी हमले के वक्त इसी बाग में थी। असावधान सैनिकों की बेरहमी से हत्या करते हुए अँग्रेज सैनिक तेजी से आगे बढ़ रहे थे। हजारों विद्रोही सैनिक मारे जा चुके थे। पराजय सामने नजर आ रही थी। मैदान के एक हिस्से में महिला टुकड़ी के साथ मौजूद ऊदा ने पराजय निकट देखकर पुरुषों के कपडे पहन लिए। हाथों में बंदूक और कंधों पर भरपूर गोला-बारूद लेकर वह पीपल के एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गयी।
ब्रिटिश सैनिकों को मैदान के उस हिस्से में आता देख ऊदा ने उनपर निशाना लेकर फायरिंग शुरू कर दी। पेड़ की डालियों और पत्तों के पीछे छिपकर उसने हमलावर ब्रिटिश सैनिकों को सिकन्दर बाग़ के उस हिस्से में में तब तक प्रवेश नहीं करने दिया था जबतक उसका गोला बारूद खत्म नहीं हो गया। ऊदा ने अपनी उस अकेली लड़ाई में ब्रिटिश सेना के दो बड़े अफसरों कूपर और लैम्सडन सहित 32 अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। गोलियाँ खत्म होने के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने पेड़ को घेरकर उसपर अन्धाधुन्ध फायरिंग की। कोई उपाय न देख जब वह पेड़ से नीचे उतरने लगी तो उसे गोलियों से छलनी कर दिया गया। ब्रिटिश सेना के हाथ पड़ने के पहले ही वह वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी।
लाल रंग की कसी हुई जैकेट और पैंट पहने ऊदा की लाश जब पेड़ से ज़मीन पर गिरी तो उसका जैकेट खुल गया। कैम्पबेल यह देखकर हैरान रह गया कि वीरगति प्राप्त वह बहादुर सैनिक कोई पुरुष नहीं, एक महिला थी। कहा जाता है कि ऊदा देवी की स्तब्ध कर देने वाली वीरता से अभिभूत होकर कैम्बेल ने हैट उतारकर उसे सलामी दी थी। ऊदा के शौर्य, साहस और शहादत पर देशी इतिहासकारों ने बहुत कम, अँग्रेज अधिकारियों और पत्रकारों ने ज्यादा लिखा। ब्रिटिश सार्जेण्ट फ़ॉर्ब्स मिशेल ने अपने एक संस्मरण में बिना नाम लिए सिकन्दर बाग में पीपल के एक बड़े पेड़ के ऊपर बैठी एक ऐसी स्त्री का उल्लेख किया है जो अंग्रेजी सेना के बत्तीस से ज्यादा सिपाहियों और अफसरों को मार गिराने के बाद शहीद हुई थी। लन्दन टाइम्स के तत्कालीन संवाददाता विलियम हावर्ड रसेल ने लड़ाई का जो डिस्पैच लन्दन भेजा उसमें उसने पुरुष वेश में एक स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से फायरिंग कर अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुँचाने का उल्लेख प्रमुखता से किया गया था। लन्दन के कई दूसरे अखबारों ने भी ऊदा की बहादुरी पर लेख प्रकाशित किए थे।
ऊदा देवी हमारे राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान की जीवन्त प्रतीक हैं। जातिगत पूर्वग्रह से ग्रस्त इतिहास ने उसके साथ न्याय नहीं किया। अंग्रेजों से अपनी रियासत बचाने की लड़ाई लड़ रहे कई लोग देश के पहले स्वाधीनता आन्दोलन के नायक और नायिका घोषित किए गए, मगर बिना किसी स्वार्थ के देश की आजादी के लिए लड़ने और मर मिटने वाले सैकड़ों आमलोग इतिहास के अंधेरे तहखानों में गुम कर दिए गए। वीरांगना ऊदा देवी उनमें से एक है। मात्र कुछ ही सालों पहले उत्तर प्रदेश की सरकार ने ऊदा देवी की एक मूर्ति सिकन्दर बाग़ परिसर में स्थापित की है। उसकी तरह सैकड़ों दूसरे लोग भी हैं जिन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति दी थी, लेकिन न इतिहास को उनकी याद है और न लोकमानस को। अब वक़्त आ गया है कि भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास फिर से लिखा जाय और उसके अनाम नायकों-नायिकाओं के बलिदान को भी अपेक्षित सम्मान मिले।