देश के संसदीय चुनाव में धार्मिक आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण के उद्देश्य से साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा एक बार फिर अली बनाम बजरंगबली का नारा दिया गया है। हज़रत अली और बजरंग बली दोनों अपने समय के अप्रतिम योद्धा भी रहे हैं और मानवीय करुणा के प्रतीक-पुरुष भी। दुर्भाग्य है कि एक अरसे से ये दोनों उनके ही धर्म के अनुयायियों द्वारा साम्प्रदायिक दंगों के दौरान दंगाईयों में जोश भरने के काम में आते रहे हैं। फिलहाल बजरंग बली को इमाम अली के खिलाफ खड़ा कर यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि अली हिंदुत्व के विरोध में खड़ी आसुरी शक्तियों के प्रतीक हैं जिनका विनाश बजरंग बली ही कर सकते हैं। वे ऐसा करने में सफल भी हो जाते हैं क्योंकि ज्यादातर हिंदुओं को हज़रत अली के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। हज़रत अली इब्ने अबू तालिब उर्फ़ हज़रत अली का शुमार विश्व इतिहास की कुछ महानतम शख्सियतों में होता है।
इस्लाम के लगभग डेढ़ हज़ार साल के इतिहास में वे ऐसे शख्स हैं जो अपनी सादगी, करुणा, प्रेम, मानवीयता और न्यायप्रियता के कारण सबसे अलग खड़े दिखते हैं। शान्ति और अमन के इस दूत ने आस्था के आधार पर इस्लाम में कत्ल, भेदभाव और नफरत को कभी जायज़ नहीं माना। उनकी नज़र में अत्याचार करने वाला ही नहीं, उसमें सहायता करने वाला और अत्याचार से खुश होने वाला भी अत्याचारी ही है। वे पहले मुस्लिम वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने विज्ञान की गूढ़ जानकारियों को आम भाषा में और रोचक तरीके से आम लोगों तक पहुँचाया था। उनके प्रति लोगों में श्रद्धा इतनी थी कि उन्हें ‘शेर-ए-खुदा’ और ‘मुश्किल कुशा’ जैसी उपाधियाँ दी गईं। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद ने उन्हें ‘अबू-तुराब’ की संज्ञा देते हुए उनके बारे में कहा था -‘मैं इल्म का शहर हूँ, अली उसके दरवाज़े हैं। और यह भी कि ‘मैं जिसका मौला हूँ, अली भी उसके मौला हैं।
मक्का के काबा में जन्मे हज़रत अली पैगम्बर मुहम्मद के चचाजाद भाई भी थे और दामाद भी। उन्हें अली नाम हज़रत मुहम्मद ने दिया था जिसका अर्थ है महान। अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में वे अपने दौर के अद्भुत योद्धा थे जिन्होंने मुहम्मद के साथ रहकर कई जंगे लड़ीं। उनकी बहादुरी की मिसालें आज भी दी जाती हैं। उन्हें पिछले दो दशकों में मुहम्मद पर उतारे गए कुरान के पाठ को लिखने की ज़िम्मेदारी दी गई थी जिसे उन्होंने कुशलता से पूरा किया। उन्होंने इस्लाम के पाठ को पूरे अरब में फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। मुहम्मद की मृत्यु के बाद उनके जीवन में बड़ा बदलाव आया। राजनीति से उन्होंने संन्यास ही ले लिया। 24 सालों तक न तो उन्होंने किसी भी युद्ध में भाग नहीं लिया।
इस समय का इस्तेमाल उन्होंने अपने परिवार की सेवा और खेती-किसानी में किया। उन्होंने सार्वजनिक उपयोग के लिए बहुत सारे कुएँ खोले और मदीने के आसपास कई बाग़ लगाए। उनके द्वारा निर्मित इन कुंओं को ‘अबर अली’ अर्थात अली के कुएँ के रूप में जाना जाता है। यह वह समय था जब अली का रूपांतरण इस्लाम के एक प्रखर योद्धा से मानवीय करुणा और समाज सेवा के जज़्बे से भरे एक महामानव के रूप में हुआ।
656 ई में इस्लाम के तीसरे खलीफा उथमान इब्न अफ़ान की हत्या के बाद अली मुसलमानों के चौथे खलीफा बने। उन्होंने 656 से 661 तक बहुत थोड़े दिनों तक राशदीन ख़िलाफ़त के चौथे ख़लीफ़ा के रूप में शासन किया। एक शासक के तौर पर उनकी मिसाल इतिहास में कहीं नहीं मिलती। तमाम वैभव के बीच उनकी सादगी ऐसी थी कि खलीफा बनने के बाद उन्होंने सरकारी खज़ाने का अपने या अपने रिश्तेदारों के हित में कभी इस्तेमाल नहीं किया। वे वही जौ की रोटी और नमक खाते थे जो खिलाफत के बहुसंख्यक लोगों का नसीब था। राजकोष को सार्वजनिक सम्पत्ति मानते थे।
उनसे जुडी एक घटना बहुत मशहूर है। एक बार वे चिराग जलाकर किसी राजकीय कार्य मे लगे हुए थे। तभी कुछ निजी बातें करने उनका मित्र आ पहुँचा। अली चिराग बुझाकर अंधेरे मे ही उससे बाते करने लगे। मित्र द्वारा कारण पूछने पर उनका उत्तर था कि चिराग़ राजकोष का है। चूंकि आपसे बातचीत मेरा व्यक्तिगत कार्य है, इसीलिए अपने व्यक्तिगत कार्य में इसका प्रयोग मैं नही कर सकता। अली सुन्नी समुदाय के आखिरी राशदीन और शिया समुदाय के पहले इमाम थे। खलीफा के तौर पर अपने छोटे-से कार्यकाल में उन्होंने शासन के जिन आदर्शों का प्रतिपादन किया, उसकी मिसाल दुनिया की किसी राजनीतिक विचारधारा मेँ नहीं मिलती। यहाँ तक कि आधुनिक लोकतन्त्र और मार्क्सवादी शासन व्यवस्था में भी नहीं। अपने और अपने बाद आने वाले ख़लीफ़ाओं के लिए जो आदर्श और शासन के सूत्र उन्होंने तय किए, उनमें से कुछ की बानगी देखिए :
‘अगर कोई शख्स भूख मिटाने के लिए चोरी करता पाया जाय तो हाथ चोर के नहीं, बल्कि बादशाह के काटे जाय।’
‘राज्य का खजाना और सुविधाएँ मेरे और मेरे परिवार के उपभोग के लिए नहीं हैं। मै बस इसका रखवाला हूँ।’
‘तलवार ज़ुल्म करने के लिए नहीं. हर हाल में मज़लूमों की जान-माल की हिफ़ाज़त के लिए उठनी चाहिये !’
‘अगर दुनिया फ़तेह करना चाहते हो, तो अपनी आवाज़ मे नरम लहजा पैदा करो। इसका असर तलवार से ज़्यादा होता है।’
‘तीन चीज़ों को हमेशा साथ रखो – सचाई, इमान और नेकी। तीन चीज़ों के लिए लड़ो – वतन, इज्ज़त और हक़।’
‘अच्छे के साथ अच्छा रहो, लेकिन बुरे के साथ बुरा मत रहो। तुम पानी से खून साफ़ कर सकते हो, खून से खून नहीं।’
‘जब मैं दस्तरख्वान पर दो रंग के खाने देखता हूँ तो लरज़ जाता हूँ कि आज फिर किसी का हक़ मारा गया है।’
‘ ख्याल रहे कि किसी की आंखें तुम्हारी वजह से नम न हो क्योंकि तुम्हे उसके हर इक आंसू का क़र्ज़ चुकाना होगा।’.
अली ने अपने आदर्शों और विचारों को अमली जामा पहनाने की भरपूर कोशिशें की, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें इसके लिए पर्याप्त समय नहीं मिला। उनके प्रतिद्वंद्वियों और इस्लाम के कट्टरपंथियों में उनका विरोध धीरे-धीरे प्रबल होता चला गया। 661 ई. मे माहे रमज़ान में कूफे की मस्जिद मे सुबह की नमाज़ के वक्त नमाज़ियों की भीड़ में खड़े एक शख्स अब्दुर्रहमान इब्ने मुलजिम ने ज़हर से बुझी तलवार से वार कर उन्हें शहीद कर दिया। खुद पर हुए इस जानलेवा हमले के बाद भी अली ने जिस तरह अपने क़ातिल पर करुणा दिखाई, उसकी मिसाल कम ही मिलती है।
हमले के बाद नमाज़ियोँ ने इब्ने मुल्ज़िम को पकड़ लिया तो अली ने फरमान था कि हमलावर के खाने-पीने का पूरा ख्याल रखा जाये और चूंकि इसने तलवार से उनपर एक ही वार किया है, इसलिए सजा के तौर पर इस पर एक से ज्यादा वार हरगिज नहीं किया जाए। कहा जाता है कि मुलजिम ने अली की हत्या उस मुआविया के कहने पर किया था जो अली के खलीफा बनाए जाने के खिलाफ था। मुआविया की दुश्मनी अली की मौत के बाद भी नहीं रुकी। उसने अली के बड़े बेटे हसन को जहर देकर मारा। अली के दुसरे बेटे हुसैन की क़र्बला में शहादत को न्याय और मनुष्यता के लिए दी गई दुनिया की सबसे बड़ी कुर्बानियों में एक माना जाता है।
हज़रत अली के गुज़र जाने के बाद किसी इस्लामी शासक ने शासन में उनके आदर्शों और विचारों को तवज्जो नहीं दी। आज दुनिया में पचास से ज्यादा इस्लामी मुल्क हैं, लेकिन इमाम अली के प्रति शिया और सुन्नी दोनों तबकों में अली के प्रति तमाम सम्मान के बावजूद शासन के उनके आदर्श सिरे से गायब हैं। जैसा कि आम तौर पर होता रहा है, उनके विचारों को फ्रेम कर इबादतगाहों और घरों में लटका तो दिया गया, लेकिन व्यवहार के धरातल पर उन विचारों को देश निकाला दे दिया गया। यह कहा जाता है कि उनके कई विचार व्यावहारिक नहीं हैं, लेकिन अगर कोई शासक उनमें से कुछ को भी अमली जामा पहनाए तो क्या हमारी दुनिया हिंसा, अन्याय और असमानता से मुक्त नहीं हो जाएगी ?
ध्रुव गुप्त
लेखक भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी तथा कवि एवं कथाकार हैं। सम्पर्क +919934990254, dhruva.n.gupta@gmail.com

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