नेताजी सुभाषचंद्र बोस और उनकी विरासत
…नेताजी और उनकी फौज हमें जो सबक सिखाती है, वह तो त्याग का, जाति-पांति के भेद से रहित एकता का और अनुशासन का सबक है। अगर उनके प्रति हमारी भक्ति समझदारी की और विवेकपूर्ण होगी तो हम उनके इन तीनों गुणों को पूरी तरह अपनाएंगे, लेकिन हिंसा का उतनी ही सख्ती से सर्वथा त्याग कर देंगे…। (महात्मा गांधी)
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा, बन गया है। “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा” का नारा भी उनका था जो उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। वह 1941 का वर्ष था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को ब्रिटिश राज से आज़ाद कराने के लिए हिटलर की मदद लेने बर्लिन पहुँचे थे।
नेताजी का मानना था कि भारत को आज़ादी केवल सशस्त्र आन्दोलन से ही मिल सकती है। इसी सोच से प्रेरित होकर इस स्वतन्त्रता सेनानी ने अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाना शुरू किया। नेताजी के दो उद्देश्य थे। पहला, एक निर्वासित (देश के बाहर) भारत सरकार की स्थापना करना और दूसरा, ‘आज़ाद हिन्द फौज’ का गठन करना। उनकी योजना इस फौज में 50,000 सैनिकों को शामिल करने की थी, जिनमें से अधिकतर भारतीय सैनिक थे जो रोम में अफ्रीका कॉर्प्स के द्वारा बंधक बनाए गये थे। इनके अलावा भारतीय युद्ध कैदी भी थे।
मीडिया विजिल के पंकज श्रीवास्तव के अनुसार –
’निश्चित ही, हिटलर या धुरी राष्ट्रों से सहयोग की नेता जी की योजना ने तमाम भ्रम पैदा किए। लेकिन नेता जी के लेखों और भाषणों से गुज़रते हुए यह साफ़ लगता है कि यह रणनीतिक दाँव था जो अंग्रेजों को कमज़ोर करने और भारत की आज़ादी के एकमात्र लक्ष्य को ध्यान में रखकर लगाया गया था। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर उनका लगातार ज़ोर था जिसे वे राष्ट्रीय एकता के लिए ज़रूरी मानते थे। उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक की जो नीति सूत्रबद्ध की थी, वह खुद बहुत कुछ कहती है-
- पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता और इसकी प्राप्ति के लिए अटल साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष।
- पूरी तरह आधुनिक और समाजवादी राज्य।
- देश के आर्थिक पुनरुद्धार के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक ढंग से उत्पादन।
- उत्पादन और वितरण दोनों का सामाजिक स्वामित्व और नियंत्रण।
- धार्मिक पूजा के मामले में व्यक्ति की स्वतंत्रता।
- प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार।
- भारतीय समुदाय के सभी वर्गों के लिए भाषायी और सांस्कृतिक स्वायत्तता।
- स्वतंत्र भारत में नई व्यवस्था के निर्माण में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को लागू करना।
(काबुल थीसिस, 22 मार्च 1941, पेज 26-27, खंड-11, नेताजी सम्पूर्ण वाङ्मय, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)
नेताजी आईएनए को एक उच्च कोटि की सेना बनाना चाहते थे, जिसका प्रशिक्षण जर्मन आर्मी के स्तर का हो। वे एक ऐसी सेना गठित करना चाहते थे, जिसके सैनिक भारत की स्वतन्त्रता को एकमात्र लक्ष्य मान कर अपने साथी सैनिकों के कंधे से कंधा मिला कर चलें। ऐसा करने के लिए यह ज़रूरी था कि इस सेना में अटूट एकता और सामंजस्य हो। यह नेताजी के लिए काफी चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि भारतीय सैनिक खुद को अपनी जाति व धर्म के समूह तक ही सीमित रखते थे। इसका कारण था कि ब्रिटिश-भारतीय सेना में इन सैनिकों को इनकी जाति और धर्म के अनुसार रेजीमेंट में संगठित किया जाता था, उदाहरण के लिए राजपूत, बलूची, गोरखा, सिख आदि।
इस समस्या से निपटने के लिए नेताजी धर्म पर आधारित अभिवादन, जैसे हिन्दुओं के लिए ‘राम-राम’, सिखों के लिए ‘सत श्री अकाल’ और मुसलामानों के लिए ‘सलाम अलैकुम’ से अलग ऐसा एक अभिवादन अपनाना चाहते थे, जिससे कोई धार्मिक पहचान ना जुड़ी हो, ताकि सैनिकों के बीच दूरियाँ कम हों और वे एक-दूसरे से समान स्तर पर जुड़ पाएँ। इस कारण आईएनए के प्रशिक्षण के दौरान नेताजी ने अपने करीबी सहयोगियों से एक ऐसे अभिवादन को लेकर बात की जो जाति-धर्म के बंधन से परे हो और सेना में एकीकरण को प्रोत्साहित करे। तब एक सहयोगी ने प्रभावशाली संबोधन ‘जय हिन्द’ अपनाने का सुझाव दिया, जिसे तुरंत ही नेताजी की स्वीकृति मिल गयी। इसलिए उन्होंने ‘जय हिन्द’ के अभिवादन को अपनाया।
जिस व्यक्ति ने यह धर्मनिरपेक्ष अभिवादन दिया, वे हैदराबाद के आबिद हसन सफ़रानी थे जो नेताजी के विश्वसनीय सहयोगी और आइ एन ए में मेजर थे।
आबिद हसन हैदराबाद के ऐसे परिवार में बड़े हुए थे जो उपनिवेशवाद का विरोधी था। किशोरावस्था में ही ये महात्मा गाँधी के अनुयायी बन गये और इन्होंने साबरमती आश्रम में कुछ समय बिताया। आगे चल कर जब इनके कई साथी इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने चले गये, तब आबिद ने इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के लिए जर्मनी जाने का फैसला किया। यहीं 1941 में पहली बार इनकी मुलाक़ात नेताजी से भारतीय युद्ध कैदियों से मिलने के दौरान हुई। इस करिश्माई नेता से प्रेरित हो आबिद ने पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया। इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर आबिद नेताजी के निजी सचिव और इनके जर्मनी में ठहरने के दौरान उनके दुभाषिया बन गये।
1942 में नेताजी के गुप्त दक्षिण-पूर्व एशियाई दौरे पर आबिद उनके साथ थे। यह यात्रा एक जर्मन पनडुब्बी (अंटरसीबूट 180) से की जा रही थी। इस यात्रा के दौरान जहाँ आबिद क्रू के साथ हंसी-मज़ाक करते रहते थे, वहीं नेताजी अपना समय पढ़ने-लिखने या जापानियों के साथ समझौता करने के बारे में योजना बनाने में लगाते थे। अपने संस्मरण ‘द मैन फ्रॉम इम्फ़ाल’ में अप्रैल 21, 1943 के तड़के इस जर्मनी पनडुब्बी का सामना जापानी पनडुब्बी से हुआ और इनके बीच सांकेतिक भाषा में बात हुई। इस बात को जानते हुए भी कि उस समय समुद्र की लहरें उफान पर थीं, नेताजी और आबिद ने एक पटरी पर कदम रखा और तूफानी लहरों को पार करते हुए जापानी पनडुब्बी I-29 पर चढ़ गये।
इसमें भले ही कुछ मिनट लगे, पर यह एक बेहद साहसिक काम था, जिसका उदाहरण किसी दूसरे युद्ध में नहीं मिलता। उफनती लहरों के बीच एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी में जाने की यह पहली घटना थी। इसके बाद इन दोनों पनडुब्बियों ने लहरों में गोता लगाया और अपने-अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ीं। हिटलर के रेंच में दो साल बिताने के बाद अब दोनों जापान की इंपीरियल नेवी के मेहमान बन गये। I-29 पनडुब्बी में जाने के बाद जापानी कप्तान टेयओका ने इन भारतीय मेहमानों को अपना केबिन दे दिया।
बोस और आबिद को उनके इस शानदार ‘क्रॉसिंग’ और जापानी राजा के जन्मदिन की खुशी में गर्म करी परोसी गयी। सफ़रानी ने इस अनुभव के बारे में लिखा है कि ऐसा लगा मानो यह घर लौटने जैसा था। टोक्यो पहुँचने के बाद नेताजी ने आईएनए की कमान संभाल ली और फिर इनके जीवन के सबसे सुंदर अध्याय की शुरुआत हुई। यह वो समय था, जब आईएनए का अभियान द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्र में बढ़ रहा था। इसी समय इस साहसी सैनिक ने सांप्रदायिक एकता और मान के प्रतीक के रूप में अपने नाम में ‘सफ़रानी’ जोड़ लिया था।
कहा जाता है कि आईएनए में हिन्दू और मुस्लिम सैनिकों के बीच झंडे के रंग को ले कर मतभेद था। एक तरफ जहाँ हिन्दू चाहते थे कि झंडा केसरिया रंग का हो, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम हरे रंग का झंडा चाहते थे। जब हिन्दुओं ने अपनी मांग वापस ले ली, तब आबिद उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें मान देने के लिए इन्होंने अपने नाम के आगे ‘सफ़रानी’ जोड़ने का निश्चय किया।
1943 में जब नेताजी ने आईएनए द्वारा गठित अल्पकालीन सरकार के लिए रबीन्द्रनाथ टैगोर के ‘जन–गण–मन’ को गान के रूप में चुना, तब आबिद को इसका हिन्दी में अनुवाद करने की ज़िम्मेदारी दी गई। इनका अनुवाद ‘सब सुख चैन’ का संगीत राम सिंह ठाकुरी ने दिया था, जो जल्दी ही एक लोकप्रिय गान बन गया।
नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए “दिल्ली चलो!” का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया। 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया।
1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।
6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनायें माँगीं। सुभाषचंद्र बोस अपने सपनों को लेकर बेहद स्पष्ट थे। 1938 में लंदन में रजनीपाम दत्त को दिए गये साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- ‘काँग्रेस का उद्देश्य दोतरफ़ा है। पहला राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना और दूसरा समाजवादी व्यवस्था की स्थापना।
यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है कि हिन्दू महासभा को एक कट्टर सांप्रदायिक मोड़ देने वाले सावरकर सन 1937 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने। अंग्रेज़ों से सहकार और काँग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन का तीखा विरोध उनकी नीति थी। यह वह समय़ था जब हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्य, काँग्रेस के भी सदस्य हो सकते थे। कई तो पदाधिकारी तक बनते थे। सुभाषचंद्र बोस ने काँग्रेस के अध्यक्ष बनने पर इस ख़तरे को महसूस किया और 16 दिसंबर 1938 को एक प्रस्ताव पारित करके काँग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया और हिन्दू महासभा तथा मुस्लिम लीग के सदस्यों को काँग्रेस की निर्वाचित समितियों में चुने जाने पर रोक लगा दी गयी।
दरअसल, कलकत्ता नगर निगम के चुनाव के समय हिन्दू महासभा के एक वर्ग के साथ सहयोग लेने का उनका अनुभव बहुत बुरा था। उन्होंने महासभा की घटिया चालों के बारे में खुलकर लिखा और बोला। 30 मार्च 1940 को ‘फारवर्ड ब्लाक’ में छपे हस्ताक्षरित संपादकीय में वे लिखते हैं- ‘असली हिन्दू महासभा से हमारा कोई झगड़ा नहीं, कोई संघर्ष नहीं। लेकिन राजनीतिक हिन्दू महासभा, जो बंगाल के सार्वजनिक जीवन में कांग्रेस का स्थान लेना चाहती है और इसके लिए उसने हमारे खिलाफ जो आक्रामक रवैया अपनाया है, संघर्ष तो होना ही है। यह संघर्ष अभी शुरू ही हुआ है।’ (पेज नंबर 98, नेताजी सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड 10, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।)
सुभाषचंद्र बोस ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में एक भाषण दिया था जो 14 मई को आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा। उन्होंने कहा- ‘हिन्दू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिन्दू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिन्दू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।’
दरअसल, धार्मिक आधार पर राजनीति करना सुभाष बोस की नज़र में ‘राष्ट्र के साथ द्रोह’ था। 24 फरवरी 1940 के फार्वर्ड ब्लाक में हस्ताक्षरित संपादकीय में उन्होंने कहा-
‘सांप्रदायिकता तभी मिटेगी, जब सांप्रदायिक मनोवृत्ति मिटेगी। इसलिए सांप्रदायिकता समाप्त करना उन सभी भारतीयों-मुसलमानों, सिखों, हिंदुओं, ईसाइयों आदि का काम है जो सांप्रदायिक दृष्टिकोण से ऊपर उठ गये हैं और जिन्होंने असली राष्ट्रवादी मनोवृत्ति विकसित कर ली है, जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए युद्ध करते हैं, निस्संदेह उनकी मनोवृत्ति असली राष्ट्रवादी होती है।’ (पेज नंबर 87, नेताजी सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड 10)
जाहिर है सुभाषचंद्र बोस का सम्मान उसकी समतावादी, सहिष्णु सामाजिक विरासत के सम्मान से ही संमव है और यही असल पराक्रम भी है।
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