नरेन्द्र दाभोलकर: अंधविश्वास के खिलाफ शहादत
आजाद भारत के असली सितारे -44
‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ (एम.ए.एन.एस.) के संस्थापक डॉ. नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर (जन्म-1.11.1945) की 20 अगस्त, 2013 की सुबह पुणे में अज्ञात बंदूकधारियों ने उस समय गोली मारकर हत्या कर दी जब वे सुबह की सैर पर निकले थे। उस समय उनकी उम्र 67 वर्ष थी।
उनका दोष यह था कि वे अपने संगठन के माध्यम से क़ानून के दायरे में रहते हुए समाज में व्याप्त अंधविश्वास का विरोध करते थे। कुछ लोगों को उनकी यह भूमिका पसंद नहीं आई और विचारों से मुकाबला करने की जगह उन लोगों ने डॉ. दाभोलकर की गोली मारकर हत्या कर दी। महाराष्ट्र अंधविश्वास निर्मूलन समिति के अध्यक्ष डॉ. अविनाश पाटील के अनुसार यह हत्या ऐसे लोगों ने करवाई है जो विचार का जवाब विचार से नहीं दे सकते, जिनके पास तर्क और विज्ञान के खिलाफ़ एक ही हथियार है- हिंसा।
उनकी एक पुस्तक ‘भ्रम और निरसन’ के अनुवादक डॉ. विजय शिंदे के शब्दों में, “डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर का जिन्दगी के सारे चिन्तन और सामाजिक सुधारों में यही प्रयास था कि इन्सान विवेकवादी बने। उनका किसी जाति-धर्म-वर्ण के प्रति विरोध नहीं था। लेकिन षड्यंत्रकारी राजनीति के चलते अपनी सत्ता की कुर्सियों, धर्माडंबरी गढ़ों को बनाए रखने के लिए उन्हें हिन्दू विरोधी करार देने की कोशिश की गई और कट्टर हिन्दुओं के धार्मिक अंधविश्वासों के चलते एक सुधारक का खून किया गया।” (भ्रम और निरसन, पृष्ठ- 9)
डॉ. दाभोलकर का जन्म महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में हुआ था। उनके बड़े भाई डॉ. देवदत्त दाभोलकर पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति थे जबकि दूसरे भाई डॉ. दत्तप्रसाद दाभोलकर वरिष्ठ वैज्ञानिक और विचारक हैं। डॉ. दाभोलकर की पत्नी शैला दाभोलकर भी सामाजिक कार्यों में उनके साथ थीं। उनके बेटे हमीद दाभोलकर भी डॉक्टर हैं और उनकी एक पुस्तक ‘प्रश्न मनाचे’ का सह-लेखक भी। उनकी बेटी मुक्ता पेशे से वकील हैं।
एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर बनने की बजाए डॉ. दाभोलकर सामाजिक कार्यों से जुड़ गए। सन् 1982 से ही वे अंधविश्वास निर्मूलन आन्दोलन के पूर्णकालीन कार्यकर्ता बन गए। सन् 1989 में उन्होंने ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ की स्थापना की और उसी समय से वे समिति के कार्याध्यक्ष थे। यह संस्था किसी तरह की सरकारी अथवा विदेशी सहायता नहीं लेती है और शुभचिन्तकों तथा सहयोगियों के सहयोग से काम करती है।
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या के बाद प्रकाशित उनकी एक पुस्तक, ‘अंधविश्वास उन्मूलन : आचार’ का संपादन करने वाले डॉ. सुनील कुमार लवटे ने अपने संपादकीय में लिखा है, “डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की दूरदृष्टि, संगठन कौशल, कार्य की निरंतरता, पराक्रमशीलता, संयोजनकुशलता के कारण ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ ने विवेकवादी विज्ञाननिष्ठ समाज रचना का सपना देखा। सभी जाति, धर्म, तबके के कार्यकर्ताओं का निर्माण, वैचारिक रूप से समान संगठनो की एकता, पत्रकारिता, प्रकाशन माध्यम, प्रबोधन, लोकजागरण-क्या नहीं किया डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर ने? यही कारण है कि वे धर्माँध, जातिवादी, पाखंडी तत्वों के लक्ष्य बने रहे और अज्ञात बंदूकधारियों ने उनकी 20 अगस्त को निर्मम हत्या कर दी। हत्यारों का लक्ष्य डॉ. दाभोलकर के संगठन और विचार को कुचलना था। हुआ उल्टा। उनकी हत्या की प्रतिक्रिया समूचे भारत में हुई। राज्यसभा तक ने हत्या की निन्दा की। महाराष्ट्र सरकार सक्रिय हो उठी। दाभोलकर की मृत्यु के कुछ ही दिनों पूर्व महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने सन् 1995 से की जा रही जादू- टोना प्रतिबंध अधिनियम पारित करने की माँग के प्रति महाराष्ट्र सरकार की निष्क्रियता, उपेक्षा और उदासीनता को उजागर करते हुए ‘कृष्णपत्रिका’ का प्रकाशन किया था। हत्या से उभरे लोकक्षोभ के आगे घुटने टेककर महाराष्ट्र सरकार अंतत: ‘महाराष्ट्र नरबलि और अन्य अमानुष, अनिष्ट एवं अघोरी प्रथा तथा जादू-टोना प्रतिबंधक एवं उन्मूलन अधिनियम -2013’ अध्यादेश के जरिए अमल में ले आई। पर उसके लिए डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर को शहीद होना पड़ा।
महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की करीबन 200 शाखाएं राज्यभर में कार्यरत हैं। इसके जरिए राज्य में हजारों कार्यकर्ता सक्रिय हैं। उनमें छात्र, युवक, अध्यापकों की बड़ी तादाद है। समिति अंधविश्वास उन्मूलन, बुवाबाजी का पर्दाफाश, वैज्ञानिक जागरण, विवेकवादी जीवन-दृष्टि का प्रचार-प्रसार, विवेकवाहिनी, व्यसन-विरोध, अंतरजातीय तथा अंतरधर्मीय विवाह-समर्थन, ज्योतिष, भानमती, डाकिन, जादू-टोना का विरोध, धर्म-चिकित्सा, पर्यावरण-जागृति, यज्ञ-संस्कृति, पुरोहितशाही, कर्मकाण्ड का विरोध, प्रदूषण-मुक्त त्योहार (दीवाली-होली) आदि उपक्रम कर सभी जाति, धर्म निहित शोषण एवं भेदमूलक व्यवहार, परम्परा का विरोध कर उसकी जगह रचनात्मक गतिविधियाँ चलाती हैं और उनका समर्थन करती हैं। समाज का बड़ा तबका इस तरह अपने सक्रिय सहयोग से इन गतिविधियों की मदद करता है।” (अंधविश्वास उन्मूलन : आचार,- दूसरा भाग, भूमिका, पृष्ठ-14)
अपनी पुस्तक ‘भ्रम और निरसन’ की भूमिका में डॉ. दाभोलकर लिखते हैं, “अंधविश्वास उन्मूलन का आन्दोलन मूलत: प्रबोधनात्मक आन्दोलन है। रहस्यात्मक बातों, परम्पराओं का आग्रह, धर्माभिमान आदि बातों का सही मायने में खुली आँखों से तथा वैज्ञानिकता से आकलन करना ही इस आन्दोलन का उद्देश्य है। फिलहाल हमारे समाज के लिए इसकी आवश्यकता बहुत अधिक है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह जरूरत केवल अशिक्षितों के लिए ही नहीं, शिक्षित लोगों के लिए भी है। इस बात का एहसास आन्दोलनों के दौरान भाषण देते समय तथा शिविरों के दौरान बार-बार होता रहा। महाराष्ट्र अंधविश्वास उन्मूलन समिति ‘सत्यशोध प्रज्ञा परीक्षा’ उपक्रम चलाती है। इस उपक्रम का उद्देश्य स्कूली अध्यापकों के लिए अंधविश्वास उन्मूलन हेतु प्रशिक्षणात्मक शिविरों का आयोजन करना तथा उनकी मदद से इस विचार को विद्यार्थियों तक पहुँचाना है।” (भूमिका, पृष्ठ-14)
वे इसी पुस्तक की भूमिका में आगे लिखते हैं, “विज्ञान की प्रामाणिकता पर भरोसा रखना ही विज्ञानवादी दृष्टिकोण है….. इसी पद्धति से सत्य की प्राप्ति होगी- इसका विश्वास, इसको खोजने की तीव्र इच्छा शक्ति और इसी मार्ग पर चलने से कई मुश्किलों का उपाय ढूँढकर मनुष्य अधिक सुखी बन सकता है, इसपर भरोसा रखना इस जीवन-चक्र के केन्द्र में होता है।” (भ्रम और निरसन, पृष्ठ- 24)
महाराष्ट्र अंधविश्वास उन्मूलन समिति की दृष्टि में अंधविश्वास श्रद्धा के क्षेत्र का कालाबाजार है और यह कालाबाजारी सभी धर्मों में चलती है। इसमें शोषण है, इसलिए इसका विरोध किया जाता है। इस शोषण का प्रमुख कारण ब्राह्मणवादी विचार है। यह विचार केवल ब्राह्मण जाति से ही सम्बन्धित नहीं है। जन्मगत या जातिगत श्रेष्ठत्व, लाभ के कुछ क्षेत्रों पर आजीवन अधिकार, कर्मफल का सिद्धांत, भाग्य आदि की कल्पना जैसी की बातों का समावेश ब्राह्मण्य में होता है। किसी भी धर्म या जाति का समझकर समिति ने किसी भी साधु-सन्यासी का विरोध नहीं किया। विरोध किया उनकी अवैज्ञानिक प्रस्तुति तथा शोषण की पद्धति का।
उल्लेखनीय है कि समिति की स्थापना और उसकी यात्रा का काल-खण्ड ही मंडल आयोग आन्दोलन कालखण्ड है। स्वाभाविक रूप से इस अवधि में बने अधिकतर संगठन प्रत्यक्ष य़ा अप्रत्यक्ष रूप से जाति का आधार लेकर खड़े रहे हैं। जाति के नाम पर किए जाने वाले भेदभाव का विरोध और जाति-उन्मूलन की बात इन संगठनों में सभी लोग करते हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे जाति की संस्था को और अधिक मजबूत ही करते रहे हैं।
डॉ. दाभोलकर उक्त परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं, “हमारी समिति की विशेषता यह है कि समिति ने अपने निर्माण में बिलकुल सहजता से जाति को पीछे छोड़ा है। एक ओर समिति के कर्यकर्ताओं में अनगिनत जातियों के लोग हैं। समिति की शाखाओं की कार्यकारिणी, जिला कार्यकारिणी तथा राज्य कार्यकारिणी में अधिकतर बहुजन ही हैं। कभी भी इसमें किसी एक स्तर की कार्यकारिणी का किसी वर्ष का चयन जाति के आधार पर नहीं हुआ है। इसी कारण समिति के रूप में प्रत्यक्ष रूप से एक जाति निरपेक्ष सशक्त संगठन महाराष्ट्र में खड़ा रहा है। महाराष्ट्र के आज के सामाजिक यथार्थ में यह बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धि है।” (उपर्युक्त, पृष्ठ 136)
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने जब ज्योतिष विषय को विश्वविद्यालयों में पढ़ाने की सिफारिश की तो उसके विरोध में समिति ने आकाश-पाताल एक कर दिया था। महाराष्ट्र के सभी कुलपतियों को समिति ने पत्र लिखकर उनके विश्वविद्यालयों में यह विषय न पढ़ाने का आग्रह किया, जिसका अच्छा परिणाम भी आया। महाराष्ट्र के तत्कालीन उच्च शिक्षा मंत्री ना. दिलीप वलसे पाटील ने समिति की माँग का समर्थन किया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सूचित किया कि वे ज्योतिष विषय के बदले जल-संवर्धन विषय का पाठ्यक्रम तैयार करें।
उनकी दूसरी मुहिम थी गणेश विसर्जन के बाद होने वाले जल प्रदूषण और दिवाली में पटाख़ों से होनेवाले ध्वनि प्रदूषण के ख़िलाफ़। गणेश विसर्जन के लिए नदी के बजाए टंकियों का विकल्प उन्हीं के द्वारा सुझाया गया जिसे महाराष्ट्र के हर महानगर निगम ने अब स्वीकार किया है। वहीं दिवाली के दौरान वे और उनके कार्यकर्ता गावों-क़स्बों तथा शहरों के स्कूलों में जाते और छात्र-छात्राओं से प्रतिज्ञा करवाते कि वे पटाख़ों पर ख़र्च करने की बजाय वह पैसा बचाकर सामाजिक संस्थाओं को दान में दें। इस तरह उन्होंने अब तक लाखों रुपए धुंओं में उड़ने से बचाए। शिक्षा में प्राथमिक स्तर से लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए उन्होंने मुहिम शुरू की थी।
एक बार प्रसिद्ध साहित्यकार विजय तेंदुलकर ने जब डॉ. दाभोलकर से पूछा था कि, “क्या तुम्हें नहीं लगता कि श्रद्धा या आस्था रखना लोगों की मजबूरी है?” तब उनके जवाब में डॉ. दाभोलकर ने कहा था, “मुझे मजबूरीवश आस्था रखनेवालों से कोई आपत्ति नहीं है। मेरी आपत्ति है दूसरों की मजबूरियों का ग़लत फ़ायदा उठानेवालों से।”
डॉ. दाभोलकर के अनुसार ढकोसलों को जीवन में स्थान देने का मतलब अंधविश्वास के खतरे को मोल लेना है। आज भी गाँवों के लोग काला जादू और भूत प्रेत आदि को लेकर एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हैं। खून-खराबा होता है। धन की बरबादी होती है। इसे रोकना जरूरी है। देश में स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं की बहुत कमी है। इसके विरुद्ध आवाज उठाने की बजाय लोग दैवी इलाजों के जरिए अपना शारीरिक और मानसिक नुकसान तो करते ही हैं, समाज में गलत संदेश भी पहुँचाते हैं। मानसिक बीमारियों के कारण समाज में और भी गंभीर हालात पैदा हो जाते हैं। ‘मन बीमार होता है’ की बात देश के लोग हजम नहीं कर पाते और व्यक्ति के ‘विचित्र व्यवहार’ को ‘बाहर की पीड़ा’ समझा जाता है। स्वाभाविक रूप से इस पीड़ा के इलाज के लिए लोग बाबाओं और ढोंगी-पाखंडी गुरुओं के पास जाते हैं। इसमें बहुमूल्य समय, स्वास्थ्य और धन की बरबादी होती है। मरीज ठीक होने की जगह और भी बीमार हो जाता है। जीवन की निरर्थकता की भावना से पीड़ित अनेक महिलाएँ बाबाओं के भुलावे में आ जाती हैं और उनके चरित्र पर आँच आने लगती है। प्रारब्ध, नियति, दैवी दंड-विधान जैसी कल्पनाओं का गंभीर प्रभाव सामाजिक जीवन पर पड़ता है।
डॉ. दाभोलकर कहते हैं कि प्रत्येक बाबा, गुरु, स्वामी अपने-अपने अनुयायियों को आश्वस्त करते हैं कि उसकी भलाई का रहस्य सिर्फ वे ही जानते हैं। इसलिए बिना किसी झिझक उनकी शरण में चले जाओ। उनपर श्रद्धा रखो। सब कुछ ठीक हो जाएगा- ऐसा आश्वासन हर व्यक्ति को अपने बचपन में माता-पिता से मिलता है क्योंकि सभी स्तरों पर वह उनपर ही निर्भर होता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगता है, वह आत्मनिर्भर बनने लगता है। युवा और समझदार होने पर भी अगर वह जीवन के फैसले दूसरों के विचारों से लेने लगे तो फिर यही मानना पड़ेगा कि उसकी अबतक की परवरिश में कुछ कमी रह गई है। इस तर्क के आधार पर कह सकते हैं कि जो गुरु अपने शिष्य को दृष्टि देता है, उसे अपने पैरों पर खड़ा करता है, जीवन में संकटों का सामना करने की हिम्मत देता है, वही सच्चा नि:स्वार्थी गुरु होता है। लेकिन जो गुरु, भक्त के जीवन की सार्वकालिक जिम्मेदारियाँ लेने का दावा करता है, वह भक्तों को कमजोर बना देता है। उसे मानसिक पंगु बना देता है।
बाबा या साधु आश्रम में रहते हैं। इन आश्रमों से जुड़े लोगों को अपने गुरुकी भक्ति ही जीवन का अंतिम कर्तव्य लगती है। गुरु की सेवा में ही सारी समस्याओं का समाधान दिखाई देता है। गुरु का विरोध करना महापाप समझा जाता है। उन्हें विश्वास होता है कि गुरु के अनुग्रह से जीवन का कल्याण होगा और संसाररूपी भवसागर को पार किया जा सकेगा। ऐसे संदेश भक्तों के मन पर कुरेदे जाते हैं, उसका ब्रेनवाश किया जाता है और तब भक्त एक कट्टर सैनिक बन जाता है। गुरुगिरी के ढकोसले अभेद्य चक्रव्यूह बन जाते हैं। इसे मजबूत बनाने के लिए निरंतर ब्रेन वाशिंग एवं कंडिशनिंग जारी रहती है। भक्त सम्मोहित हो जाते हैं। संवेदनाओं के भ्रम तैयार होते हैं। आस-पास कुछ न होते हुए भी चंदन की खुशबू आने लगती है। देवताओं के मधुर स्वर कानों में गूँजने लगते हैं। भाग्यवान भक्तों को अपने महाराज के रूप में देवता के दर्शन होते हैं। दैवी साक्षात्कार का गवाह बनने का पुण्यलाभ होता है। बाबा के शब्द मानो मोक्ष का मार्ग खोल देते हैं। मंत्रमुग्ध कर देनेवाले वातावरण में तल्लीन हुए भक्तों से एक ही संदेश मिलता है, ‘हमारे जीवन की पूरी जिम्मेदारी बाबा ने ली है, यह भाग्य खुल जाने का संकेत है। जीवन की सारी चिंताएँ मिट गई हैं। सुख, शांति, संतोष, संपन्नता के महाद्वार खुलने वाले हैं। बाबा के आशीर्वाद से हमें एक ही समय में भौतिक, भावनात्मक, आध्यात्मिक, पारलौकिक अधिकार प्राप्त हो गए हैं।’
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर बताते हैं कि यह मानसिकता एक गूढ़ वातावरण तैयार करती है जिसमें मनुष्य प्रश्नों को सुलझाने के लिए जरूरी विवेक खो देता है। वह अपनी और समाज की बुद्धि, श्रम और समय को मुफ्त गँवा देता है।
भारतीय संविधान में यह स्पष्ट किया गया है कि ‘प्रत्येक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, शोधक बुद्धि, सुधारवाद एवं मानवतावाद का प्रसार करे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ यह विश्वास होता है कि समूचा विश्व कार्य-कारण भाव से बद्ध है। शोधक बुद्धि का अर्थ सजग दृष्टि से यथार्थ की ओर देखना है, अथवा उसके लिए प्रयत्न करना है। सुधारवाद का अर्थ है, जो परम्परा से हो रहा है, उसका आधुनिक दृष्टि से जायजा लेकर उसमें निहित वैयक्तिक और सामाजिक हित जैसी बातों का चयन करना। मानवतावाद का अर्थ बंधुत्व की वैश्विक भावना है। भारतीय संविधान का बताया हुआ यह कर्तव्य और ढकोसले के कारण पनपी मानसिकता एक-दूसरे के विरुद्ध है। इसका सीधा अर्थ है कि ढकोसले की शरण में जानेवाला मन अपने संवैधानिक दायित्व के प्रतिकूल आचरण करता है।
डॉ. दाभोलकर ईश्वर में आस्था रखनेवालों पर ताने कसने की बजाय उनके लिए सहानुभूति जताते है। वे कहते हैं, “मुझे कुछ नहीं कहना है उन लोगों के बारे में जिन्हें संकट के समय ईश्वर की ज़रूरत होती है। लेकिन हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए, जो काम-धाम छोड़कर धर्म का महिमा मंडन करें और मनुष्य को अकर्मण्य बनाएं।”
डॉ. दाभोलकर ने 18 साल पहले ‘सामाजिक कृतज्ञता निधि’ की स्थापना की थी जिसके तहत परिवर्तनवादी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को प्रतिमाह मानदेय दिया जाता है। आज यह निधि एक करोड़ रुपयों तक पहुंच चुकी है। इस रक़म के ब्याज से पचास कार्यकर्ताओं को एक हज़ार रुपयों का मानदेय दिया जाता है। अपनी हत्या के कुछ दिन पहले तक वे अंतरजातीय विवाह को लेकर अधिक सक्रिय हो चुके थे।
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर ने अंधविश्वास उन्मूलन से सम्बन्धित एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। उनमें ‘ऐसे कैसे झाले भोंदू’ (ऐसे कैसे बने पोंगा पंडित), ‘अंधश्रद्धा विनाशाय’, ‘अंधश्रद्धा: प्रश्नचिन्ह आणि पूर्णविराम’ (अंधविश्वास: प्रश्नचिन्ह और पूर्णविराम), भ्रम आणि निरास, प्रश्न मनाचे (सवाल मन के) आदि प्रमुख हैं। उनकी ‘तिमिरातुनी तेजाकड़े’ (अर्थात तमसो मा ज्योतिर्गमय) पुस्तक महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के विचार तथा आचार और सिद्धांत को समग्रता में प्रतिबिम्बित करती है।
डॉ. दाभोलकर ने पोंगा पंडितों और दंभियों का दंभस्फोट करनेवाली कई पुस्तकों का लेखन किया है। ख़ासकर तथाकथित चमत्कारों के पीछे छिपी हुई वैज्ञानिक सच्चाइयों को उजागर करने पर उन्होंने अधिक ध्यान दिया।
जाने माने साहित्यकार और समाजवादी चिंतक साने गुरुजी द्वारा स्थापित ‘साधना’ साप्ताहिक का संपादन वे पिछले बारह वर्षों से कर रहे थे। इस साप्ताहिक को नई बुलंदियों और लोकप्रियता तक पहुँचाने का सराहनीय कार्य भी उन्होंने किया है।
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या का देशभर के बुद्धिजीवियों ने विरोध किया था। राष्ट्रव्यापी विरोध के दबाव में सरकार को इस हत्या काण्ड की जाँच की जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपनी पड़ी। जाँच एजेंसी द्वारा जून 2016 में हिन्दू जनजागरण समिति के नेता वीरेन्द्र तावड़े को इस हत्या काण्ड के संबंध में गिरफ्तार किया गया था। बाद में संजीव पुनालेकर, विक्रम भावे आदि की भी गिरफ्तारियाँ हुईं।
मरणोपरान्त भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।