- अनिल कुमार राय
‘सामाजिक न्याय’, ‘सबका साथ, सबका विकास’ आदि आजकल बास्केट बॉल गेंद की तरह हर राजनीतिज्ञ के हाथ में उछलता हुआ जुमला है और हर दल इस गेंद को अपने पाले में करने की कोशिश में लगातार लगा हुआ है. यह जुमला/नारा/वादा इतना लोक-लुभावन और प्रभावी है कि जो कोई भी इस नारे का अपने पक्ष में जितना ज्यादा उपयोग कर लेता है, वह सत्ता पर उतनी मजबूती के साथ कायम हो जाता है. अर्थात अवाम को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए राजनीतिक दलों के पास यह परीक्षित और कामयाब हथियार है.
स्वतंत्रता के संघर्ष में, जब करोड़ों लोग स्वाधीनता के सुनहले सूरज को लाने के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास कर रहे थे तो उनकी आँखों में भावी भारत का एक सुन्दर सपना था. उस सपने को गाँधी के ‘स्वराज्य’ और ‘रामराज्य’ की परिकल्पनाओं. वामपंथी क्रांतिकारियों की आर्थिक समानता के आश्वासनों और समाजवादियों की सामाजिक गरिमा के भरोसों ने मिलकर परोसा था. इसीलिए अति वैविध्यपूर्ण सामाजिक-आर्थिक-भौगोलिक संरचना वाले इस देश में भी सभी समूहों, वर्गों और तबकों ने आजादी के आन्दोलन में भाग लिया था. लेकिन आजादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में केंद्र में और इधर अधिकांश प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बनी, उसी कांग्रेस की, जिसपर आजादी के पहले से ही, जमींदारों और पूंजीपतियों का कब्जा था और आजादी के बाद भी वह यूरोपियन पूँजीवाद की राह पर बढ़ चली. स्वतंत्रता का देदीप्यमान रथ तो खुला, परन्तु उस पर वही लोग सवार हो गए, जिनके उत्पीडन से मुक्ति की आकांक्षा में अवाम ने अपनी कुर्बानियां दी थीं. अधिसंख्यक भूखे, नंगे, उदास और उजड़े हुए लोग हक्का-बक्का जहाँ-के-तहाँ रह गए. न तो उन्हें आर्थिक समानता मिली, न सामाजिक भेदभाव से मुक्ति मिल पायी और न ही सत्ता में भागीदारी हो सकी. इस छलावे से उस दबे, कुचले, पीड़ित, दलित बड़े वर्ग का क्षुब्ध होना स्वाभाविक था.
इस बीच आजादी के उद्देश्यों से असंतुष्ट वामपंथियों ने आर्थिक अधिकारों की बढ़ोत्तरी के लिए जगह-जगह प्रयास शुरू कर दिए. पूरे देश में उन्होंने संगठित क्षेत्र के कामगारों की विभिन्न ट्रेड यूनियन बनाकर हक़ और हुकूक के लिए जबरदस्त दबाव बनाए. दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीनों और किसानों के पक्ष में जमीन के सवाल को प्रमुखता से उठाया और उन्हें कब्जा दिलाने का भी प्रयास किया. लगातार चल रहे इन जबरदस्त दबावों और आंदोलनों के कारण एक ओर तो कामगारों की आय में इजाफा हुआ, उन्हें मानवीय सुविधाएँ प्राप्त हुईं, बंधुआ मजदूरी और रैयती प्रथा ख़त्म हुई, वासभूमि पर अधिकार प्राप्त हुआ; दूसरी ओर जमींदारी प्रथा, निजी बैंक, खदानों का निजी स्वामित्व, प्रिवी पर्स आदि के कई दुर्ग ढहकर बिखर गए. अपने समय में वामपंथ को इस आर्थिक संघर्ष का राजनीतिक लाभ भी मिला.
लेकिन सामाजिक गरिमा का सवाल अब भी जहाँ-का-तहाँ खडा था. वामपंथियों का ख़याल था कि इस पूँजीवादी लोकतांत्रिक ढाँचे में ही, आर्थिक अधिकारों की बढ़ोत्तरी करके, सामाजिक गरिमा की प्राप्ति हो जायेगी, जो भारतीय सामाजिक संरचना में एक बड़ा सवाल था. लेकिन ऐसा हो नहीं सका. थोड़े-बहुत आर्थिक सुधारों, अधिकारों की प्राप्ति और अनेक बन्धनों से मुक्ति के बावजूद पिछड़े, दलित और अस्पृश्य समूह को वह सामाजिक समानता और सम्मान नहीं मिल पा रहा था, जिसको पाने की चाहत उनके भीतर, धीरे-धीरे, मजबूत होती जा रही थी. इसलिए उस बड़े समूह के भीतर, जिसे आज पिछड़ा, दलित, महादलित आदि कहा जाता है, ‘मेहनत की रोटी’
बहुसंख्यक समाज के अंत: में उमड़ती हुई इस जनाकांक्षा को संबोधित किया समाजवादियों ने. स्वातंत्र्योत्तर काल का उत्तरार्ध शुरू होते-होते समाजवादियों ने ‘सामाजिक न्याय’ का नारा लगाकर आरक्षण को हथियार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और उनकी इस तरकीब का बेतरतीब लाभ उन्हें मिला भी. विकास की दौड़ में किसी सामाजिक साजिश के तहत पीछे छूट गए बहुसंख्यक समुदाय को नौकरियों और राजनीति में आरक्षण के उपायों से आर्थिक उन्नति के साथ ही पद-प्रतिष्ठा भी दिखने लगी थी. इस तरह उस समूह का सामाजिक सशक्तिकरण भी हुआ. इसलिए कल तक जो पिछड़ा, दलित, मुस्लिम समुदाय कांग्रेस के पाले में खडा रहता था, वह आहिस्ते से खिसककर समाजवादियों के खेमे में जाकर खडा हो गया.
यह सच है कि समाजवादियों ने दलितों, पिछड़ों, वंचितों के सामाजिक सम्मान के सवाल को संबोधित तो किया, परन्तु शीघ्र ही उसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे. सदियों से साम्प्रदायिक विद्वेष की लपटों से झुलसते हुए इस देश के सम्मुख जातीय संघर्ष का एक नया स्वरुप उभरकर सामने आया, जो पहले के जातीय असंतोष से बिलकुल अलग था. इस नए जातीय विद्वेष में घृणा और आक्रामकता अधिक थी, जो पहले बहुत कम थी. समाजवादियों ने इस विद्वेष और घृणा की आँच को और भड़का-भड़काकर अपनी राजनितिक रोटियाँ सेंकनी शुरू कर दीं. जिस तरह मध्यकाल के पूर्व यह भूखंड छोटे-छोटे हजारों स्वतंत्र राज्यों में विभक्त था, उसी प्रकार, भौगोलिक एकता और संवैधानिक समरूपता के बावजूद पूरा देश, साम्प्रदायिकता के साथ ही, जातीयता के अनेक द्वीपों में विखंडित हो गया. इस खंडित स्वरुप से देश और समाज और ज्यादा कमजोर हुआ.
दूसरी ओर जिस आरक्षण का परचम इतने जोश से लहराया गया था, उसमें दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की अधिसंख्यक आबादी के अधिसंख्यक लोग फिर से वंचित ही रह गए. उस विशाल समुदाय के जो थोड़े से लोग पहले से ही आगे बढे हुए थे, उनकी ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी, पुन:-पुन: उस आरक्षण से लाभान्वित होती गयी. बाकी दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक, आदिवासी आज भी उसी जगह खड़े हैं.
समाजवादी प्रयासों के पूरे प्रकरण में जो सबसे बुरी बात हुई वह यह कि वे कहने को तो समाजवादी रहे, परन्तु वे किसी भी प्रकार पूँजीवादी ढर्रे और दृष्टिकोण से अपनी भिन्नता नहीं दिखा सके. वे भी वैश्विक पूँजीवाद के स्थानीय राजनीतिक उपकरण के रूप में काम करते हुए समाजवाद के नाम पर निजी पूँजीवाद को संरक्षित और पोषित करने के लिए सार्वजनिक संस्थाओं को कमजोर और ध्वस्त करते रहे. सार्वजनिक हित में बेहतर सुविधाएँ प्रदान करने की दलील देकर निजी अस्पतालों और चिकित्सा सुविधाओं, विद्यालयों-विश्वविद्यालयों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों आदि को प्रोत्साहित करने में किसी भी पूँजीवादी पार्टी की अपेक्षा इनका प्रयास कम नहीं रहा, बल्कि कई मामले में तो बढ़-चढ़कर रहा.
इसी राजनीतिक-सामाजिक व्यवहारों के परिप्रेक्ष्य में समाजवादी सत्ता-काल की शिक्षा को देखने की जरूरत है. इसे तो सब स्वीकार करेंगे कि आदमी जीये और स्वस्थ रहे, इसके बाद जो सबसे महत्वपूर्ण जरूरत है, वह शिक्षा है. और, यह जरूरत तो उन आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों के लिए और ज्यादा हो जाती है, जो समाज की किताब के सबसे अंतिम पन्ना हैं. जो समृद्ध और जागरूक हैं, वे तो अपनी ताकत के बल पर कहीं भी जाकर मनचाही शिक्षा ले ले सकते हैं. लेकिन उस अंतिम पन्ने में लिखे हुए नाम वाले लोग, जो यह भी नहीं जानते कि पढ़ाई क्यों जरूरी है और जो आज भी अपने बच्चे को स्कूल भेजने की अपेक्षा होटल में प्लेट धोने के काम में लगाना ज्यादा वाजिब समझते हैं,
इस तरह शिक्षा का शव-परीक्षण करने पर यह पाया जाता है कि ‘सामाजिक न्याय’ के अस्पताल में ही, एक गहरी साजिश के तहत, 80 के दशक के बाद से, धीमा असर करने वाला जहर देकर इसकी ह्त्या की गयी है.
लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता और ‘आसा’ के संयोजक हैं|
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