चरखा फीचर्स

गाँव में होम क्वारंटाइन का मतलब

 

  • राजेश निर्मल

 

जब भारत में करोना के मामले तेजी से बढ़ने लगे, तब होम क्वारंटाइन जैसा एक शब्द आँधी की तरह आया। जिसने न केवल भारत कीचरमराई स्वास्थ्य सेवा की कड़वी सच्चाई को सामने ला दिया बल्कि इसकी कमीने कई जिन्दगियों को उजाड़ कर रख दिया। पूरी तरह से प्लास्टिक परनिर्भर हो चुके इस दौर में एक बिमारी नें सबको प्लास्टिक में बाँध दिया और इंसानी सभ्यता के मूल भाव प्रेम तथा स्पर्श को प्लास्टिक के मास्क औरदस्ताने में कैद कर दिया। विकास की अन्धी दौर में हम इंसानों ने खुद को जिसतरह से प्लास्टिक की दुनिया में कैद कर लिया था, उसका परिणाम आज सबके सामने है। नतीजा यह है कि आज हम एक के बाद एक न जाने कितनी ही समस्यओं से जूझ रहे है। कोरोना संकट ने हमारी इस मुश्किल को और भी बढ़ा दिया है।

भारत जैसे विकासशील देश में क्वारंटाइन के लिए अलग कमरा यानि होम क्वारंटाइन में रह कर बीमारी से बचने की परिकल्पना एक ख्वाब जैसी लगती है। जिस ख्वाब को देश की आबादी का कुछ प्रतिशत हिस्सा ही देख सकता है। फिर इस ख्वाब को कानून में ढाल कर भारतीय समाज पर लादना कितना सही है? हम उसी की पड़ताल करते है उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के एक गाँव रामपुर बबुआन में। जब मैं इस गाँव को देखता हूँ और फिर करोना से बचाव के नियम तथा क्वारंटाइन की परिस्थिती को देखता हूँ, तो लगता है कि हम जो नियम विदेश से उठा कर अपने देश पर लाद रहे हैं, क्या जमीनी स्तर पर वह कारगर सिद्ध हो पायेंगे? क्या हमें नियम बनाते समय अपनी सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक और शैक्षणिक परिस्थितियों का जायजा नही लेना चाहिए और क्या उसी के आधार पर नीति तैयार नहीं करनी चाहिए?

यह भी पढ़ें- कारावास नहीं है क्वारंटाइन सेंटर

एक ऐसा राष्ट्र जहाँ की अधिकतर ग्रामीण आबादी को दो वक्त का खाना मिलना मुश्किल हो, एक ऐसा समाज जो आज भी कई मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है। वहाँ हाइजीन और सफाई की बात करना थोड़ा कठिन लगता है। गाँव की एक 55 वर्षीय आंगनबाड़ी कार्यकर्ता कमला सिंह, जिनकी ड्यूटी लोगो को कोरोना से जागरुक करने की है, अपना अनुभव बताती हैं कि “हमारी तरफ से लोगो को पूरी शिद्दत से जागरुक किया जा रहा है। हम उन्हे हाथ धोने के तरीके बताते हैं। लेकिन जब हम सामने होते हैं तो लोग हमारी बातें सुनते हैं, लेकिन हमारे जाते ही वह कितनी गम्भीरता से इसका पालन करते होंगे, मैं नही कह सकती। अब तो लोगों को समझाने जाओ तो वह चिढ़ जाते हैं और हमारे ऊपर ही आरोप लगाते है कि हम उनकी सरकारी मदद का पैसा खा रहे है।”

वाकई समझने वाली बात है कि आजादी के 70 वर्षों बाद भी क्या हम समाज की आधारभूत आवश्यकताएँ भी पूरी कर पाये हैं? एक खाली पेट और खाली जेब वाला इंसान जिसे एक बड़े परिवार का पेट पालना है, वह दिन में कितनी बार हाथ धोने की सोच पायेगा? यूरोपीय देशों के गाँवों की तुलना में हमारे शहर भी कहीं टिकते नहीं हैं। फिर हम गाँवों को किस बुनियाद पर क्वारंटाइन और हाइजीन की कसौटी पर कसते है? गाँव की संस्कृति में लेन देन, साथ उठना-बैठना और एक साथ मिलकर जानवरों को चराना एक आम बात है। यहाँ तक कि गाँव में कुछ घर तो आपस में ऐसे हैं जिनकी दीवारों के बीच दो ईटें, बिना सीमेंट की बनाई जाती हैं। जिनके बीच दूध-दही, साग सब्जी और माचिस तक का लेन देन होता है। ऐसे सांस्कृतिक माहौल में आप क्वारंटाइन की सफलता का पैमाना कैसे माप सकेंगे?

इस सम्बन्ध में एक ग्रामीण गीता देवी का कहना है कि यह देहात का सिस्टम है, कब तक घरो में बन्द रहकर काम चलेगा? लाठी डंडे के जोर पर अगर बन्द कर भी दिया तो ज्यादा से ज्यादा एक दिन। इससे ज्यादा नही हो सकता है। आखिर गाय भैस भी तो है, वह सरकारी कायदे कानून नही समझते हैं। उन्हें भी भूख लगती है। उनको तालाब ले जाना पड़ता है। चराना और घुमाना पड़ता है। उनसे नहीं कहा जा सकता कि एक महीने तक खूँटी से बंधे रहो, क्योंकि बाहर करोना है।

“गीता देवी का कहना था कि गाँव में बहुत सी चीजे सामूहिक रूप में होती हैं। जिनसे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पूरा गाँव जुड़ा होता है। हर परिवार का परिवेश और शिक्षा का स्तर, दूसरे परिवार से अलग है। इसी क्रम में गीता देवी कहती है कि “जैसे पाँच परिवारो के बीच में एक सरकारी नल है और प्रत्येक परिवार में आठ सदस्य हैं। यदि पाँच परिवारों में कोई एक भी कोरोना से ग्रसित है और नल को छूता है, तो आप बीमारी को फैलने से कैसे रोक सकते हैं? ऐसी स्थिति में आप पानी पीना तो छोड़ नही सकते हैं? फिर आप क्या करेंगे? इसलिए जरूरी है कि इस तरह की बीमारी को समझने और समझाने से पहले हमें अपनी जमीनी हकीकत को समझना होगा।”

शहर में रहने वाला एक इंसान बड़ी आसानी से अपने आप को एक कमरे में बन्द करके खुद को दुनिया से अलग कर सकता है। बड़ी-बड़ी सोसाइटी और अपार्टमेंट में अक्सर मैंने देखा भी है। मगर हाशिये का आदमी इसके सामने कैसे टिकेगा? शहर से कुछ किलोमीटर दूर जब आप बाहर निकलते हैं तो आपको सड़कें और माहौल बदला बदला नजर आने लगता है। यह बदलाव सिर्फ पानी, मिट्टी और कच्चे घरो का ही नही होता बल्कि सामाजिक जीवन भी बदल जाता है। शहर में बिना जाति पूछे लोगो को कमरे के अन्दर अपनी जरुरत की सारी सुविधाएँ हासिल हो जाती हैं। लेकिन गाँवों के ढाँचे में एक बड़ा मुद्दा जाति का भी नजर आता है। यहाँ एक जाति समुदाय का आदमी दूसरे जाति के स्पर्श तो क्या, उसकी छाया से भी बचता है। ऐसी सामाजिक स्थिति में घर में बन्द रहना ग्रामीण परिवेश की बहुत बड़ी चुनौती है।

यह भी पढ़ें- वैक्सीन के निर्माण में जरूरी है आत्म-निर्भरता

इस कड़वी हकीकत को सूरत से लौटे गाँव के एक प्रवासी मजदूर राजित राम कहते है कि “मैं एक मामूली मजदूर अनपढ और शूद्र हूँ। हमें न तो कोइ छूता है और न हमारे उत्थान के लिए सोचता है। हमारे विकास के लिए सरकार की बहुत सारी योजनाएँ होंगी, लेकिन वह कहाँ आती हैं और इसका लाभ कैसे प्राप्त किया जा सकता है, यह बताने वाला कोई नहीं होता है।” एक और चीज जो बार बार मुझे घर लौटे हुए प्रवासी मजदूरो से बात करते हुए महसूस हुई कि वह आज भी सरकार से राहत के इन्तजार में हैं। इसीलिए जब मैंने उनसे बात की और कहा कि आपकी समस्याओं पर कुछ लिखना चाहता हूँ तो उनका कहना था लिख कर पैसा दिलवा दोगे? आधार और अकाउंट की कॉपी लाकर दूं?” “कौन सी योजना है? कितना पैसा मिलेगा? फार्म कहाँ मिल रहा है?

वास्तव में फॉर्मों, एक अदद सहायता योजना पाने के लिए लगने वाली लम्बी-लम्बी कतारों और राहत पैकेज के बीच फंसा हमारा जरुरतमन्द ग्रामीण समाज, जब इस तरह के अभाव और मजबूरियों से जूझ रहा है तो हम कैसे उम्मीद कर सकते है कि वो मास्क, सैनेटाइजर या साबुन का इस्तेमाल करता रहेगा और कैसे छोटे छोटे घर में तीन तीन परिवारो वाला समाज अकेले कमरे में बन्द होकर खुद को और देश को महामारी से बचा पायेगा? (चरखा फीचर्स)

.

Show More

चरखा फीचर्स

'चरखा' मीडिया के रचनात्मक उपयोग के माध्यम से दूरदराज और संघर्ष क्षेत्रों में हाशिए के समुदायों के सामाजिक और आर्थिक समावेश की दिशा में काम करता है। इनमें से कई क्षेत्र अत्यधिक दुर्गम और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से अस्थिर हैं। info@charkha.org
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x