साहित्य में सनसनी की भाषा
आपको जानकर यह आश्चर्य होगा की रेणु जन्मशती वर्ष में देश भर के 500 से अधिक लेखकों ने रेणु के साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर लेख लिखे हैं। यह हिन्दी साहित्य की पहली ऐसी घटना है जिसमें इतनी बड़ी संख्या में हिन्दी के साहित्यकारों ने किसी लेखक की जन्मशती पर इतना कुछ लिखा। इसमें सभी पीढ़ियों के लेखक शामिल हैं। 1980 में जब प्रेमचंद की जन्मशती राष्ट्रीय स्तर पर मनाई गयी, तब से लेकर अब तक न जाने कितने लोगों की जन्मशतियाँ मनाई गयीं जिनमें प्रेमचंद के अतिरिक्त जयशंकर प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल, बनारसी दास चतुर्वेदी, राहुल जी, शिवपूजन जी, निराला ,महादेवी, दिनकर, जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, मुक्तिबोध ,भीष्म साहनी अमृतलाल नागर आदि शामिल हैं।
लेकिन देशभर में रेणु की जन्मशती को लेकर जो उत्साह और उमंग दिखाई पड़ा है, वह अभूतपूर्व है, खासकर ऐसे समय में जब देश में लम्बे समय तक लॉकडाउन लगा हो ऐसे में” मैला आंचल ग्रुप” ने पहल की और पूरा हिन्दी समाज सोशल मीडिया पर रेणु की जन्मशती मनाने लगा। रेणु पर सौ से अधिक ऑनलाइन कार्यक्रम हुए, वीडियो ऑडियो बने, नाटक हुए फिल्में बनी। 14 पत्रिकाओं ने रेणु पर विशेषांक निकाले और विभिन्न पत्रिकाओं और अखबारों में रेणु पर कई लेख छपे।
इस बीच 7 ,8 किताबें भी उनके ऊपर प्रकाशित हुईं। इतना ही नहीं इस दौरान रेणु की जीवनी भी प्रकाशित हो चली। यह घटना अभूतपूर्व तो है ही और वह इस बात का संदेश भी देती है कि अगर हिन्दी समाज एकजुट हो तो हम अपने बड़े रचनाकारों की याद में बहुत कुछ कर सकते हैं और नयी पीढ़ी में साहित्य को प्रचारित प्रसारित भी कर सकते हैं। ऐसे में हमें रेणु के जन्मशती वर्ष में गम्भीर और परिपक्व बातें करनी चाहिए लेकिन हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार उपन्यासकार संजीव ने अपने समकालीन मित्र कथाकार शिवमूर्ति के गांव में आयोजित रेणु समारोह में यह बात कह कर सनसनी फैला दी कि रेणु की” आठ प्रेमिकाएं” थी। उन्होंने यह बात आखिर किस आधार पर कही? क्या उन्होंने कोई शोध कर यह रहस्योद्घाटन किया, यह कहना मुश्किल है।
आखिर उनके इस वक्तव्य का निहितार्थ क्या था, यह समझ से परे है लेकिन उनकी इस टिप्पणी ने हिन्दी में एक तरह से सनसनी फैला दी जिसका नतीजा यह हुआ रेणु के पुत्र ने संजीव के खिलाफ मानहानि का मुकदमा करने की धमकी दे डाली। वैसे ,उन्हें भी इतना उत्तेजित होने की जरूरत नहीं थी। संजीव ने यह बात कहकर कोई अपराध तो नही किया था क्योंकि इस तरह के गॉसिप लेखकों के बारे में प्रचलित रहे हैं। अधिक से अधिक आप उसकी निंदा भर्त्सना करें पर मुकदमेबाजी का फतवा देना उचित नहीं। संजीव की इस टिप्पणी को लेकर तीखी प्रतिक्रिया करने वालों ने भी संजीव को नहीं बख्शा और उनका एक तरह से साहित्यिक “चरित्र हनन” भी कर डाला और उनके बारे में” बिलो द बेल्ट” जाकर टिप्पणियाँ की।
साहित्य में आलोचना का काम लेखको के निजी प्रसंगों को उछालना नहीं होता बल्कि उनकी कृतियों का गम्भीर और सम्यक मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन करना होता। रेणुजी ने अगर आठ महिलाओं से प्रेम किया तो कोई गुनाह नहीं किया था लेकिन क्या उन महिलाओं ने कभी कोई शिकायत की या रेणुजी पर बदचलनी के आरोप लगाए। इसका हवाला संजीव ने नही दिया। अगर संजीव ने अपने भाषण में यह टिप्पणी न की होती तो शायद उनके द्वारा व्यक्त किये गये विचारों को लोग गम्भीरता से लेते लेकिन उनके इस सनसनी खेज जुमले ने जन्मशती वर्ष को गरिमाहीन बना दिया। संजीव ने अपने भाषण में रामविलास शर्मा की भी तीखी आलोचना करते हुए कहा कि शर्मा जी ने रेणु के मूल्यांकन में न्याय नहीं किया पर अपने भाषण में गम्भीर शब्दावली में यह आरोप लगाने की बजाय उन्होंने बार बार” गंदा” शब्द का प्रयोग किया।
इसकी जगह वह रामविलास जी के सौंदर्यबोध या दृष्टि की बात कहते तो वह आलोचना की भाषा होती लेकिन उन्होंने कहा कि रामविलास शर्मा ने रेणु के बारे में बहुत ही गंदा लिखा । यह आलोचना की भाषा नहीं है। साहित्य में किसी व्यक्ति की आलोचना करते समय उसे अपनी भाषा पर जरूर ध्यान देना चाहिए। भाषा व्यक्ति के पूर्वाग्रहों और नीयत को भी बयाँ कर देती है। इससे पहले शिवमूर्ति ने भी रेणुजी के प्रसंग में रामविलास जी को “सुपारी किलर” कहा था जिसको लेकर काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और इसका जवाब देते हुए अजय तिवारी ने भी शिवमूर्ति पर निजी हमले किये थे जो वांछित नहीं था।
आपको पता ही होगा कि गत वर्ष हंस के सम्पादक कथाकार संजय सहाय ने भी प्रेमचंद की आलोचना करते हुए कहा था कि उन्होंने महज पांच छह स्तरीय और प्रासंगिक कहानियाँ ही लिखी हैं जबकि शेष कहानियाँ उनकी” कूड़ा” है। उनकी इस टिप्पणी पर भी हिन्दी की दुनिया में काफी बवाल मचा था और संजय सहाय की भी मॉब लिंचिंग शुरू हो गयी थी। हालाँकि संजय सहाय ने अपनी मंशा स्पष्ट करते हुए खेद भी प्रकट किया था (सम्पादकीय हंस जुलाई ’20)। सोशल मीडिया पर कुछ लोग असहमति व्यक्त करते हुए मॉब लिंचिंग शुरू कर देते हैं। यह उचित नहीं है। पंत जी के जयंती वर्ष में हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह भी उनके साहित्य को” कूड़ा” बताया था जिस पर तब भी हिन्दी साहित्य में बहुत ही तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और इसके लिए भी इनकी लानत मलानत की हुई थी।
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इस तरह देखा जाए तो हिन्दी साहित्य में एक नयी प्रवृत्ति पैदा हो रही है कि किसी लेखक के निधन के बाद उसकी आलोचना करते हुए कुछ लोग उसका चरित्र हनन शुरू कर देते हैं और उसका अवमूल्यन शुरू कर देते हैं। वे आलोचना के स्तर को इतना व्यक्तिगत बना देते हैं कि आलोचना आलोचना नहीं रह जाती बल्कि वह उसके विरुद्ध एक अभियान और साजिश का हिस्सा बन जाती है। अज्ञेय के जन्म शती वर्ष में भी यह मामला उठा कि अज्ञेय सीआई ए के एजेंट थे और अमेरिका की “कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम” संस्था के लिए काम करते थे। उसके सम्मेलनों में हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे लोग भी भाग लेते रहे तब किसी बड़े लेखक ने आपत्ति नहीं जताई लेकिन अब यह मुद्दा बना हुआ है। जबकि यह कोई नया रहस्योद्घाटन नही है।
बहुत पहले इला डालमिया ने अज्ञेय के बारे में काफी कुछ अपनी किताब में स्पष्ट शब्दों में जिक्र कर रखा लेकिन तब कोई बवेला नहीं मचा था लेकिन अज्ञेय की जन्मशती वर्ष में इस मुद्दे को उठाया गया। पिछले 7 मार्च को भी सोशल मीडिया पर अज्ञेय की जयन्ती पर कुछ लेखकों ने इसे फिर उठाया। अगर हम लेखको के निजी प्रसंगों या साहित्य से इतर मुद्दों पर ही टीका टिप्पणी करते रहें तब लेखक का मूल्यांकन कब करेंगे। अज्ञेय पर उनके जीते जी भी वामपंथियों ने काफी हमले किये थे लेकिन उनके विरोधियों ने भी कोई किताब लिखकर आलोचना नही की। अज्ञेय की आलोचना इस बात के लिए भी हुई कि उनकी विचारधारा वामपन्थी नहीं थी।
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वैसे तो, रेणु भी वामपन्थी नहीं थे तो क्या इसके लिए रेणु के साहित्य का मूल्यांकन नहीं किया जाए। रेणु जन्म शती वर्ष में प्रेम कुमार मणि ने यह भी सवाल उठाया कि रेणु की मृत्यु के समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुडे प्रगतिशील लेखक संघ ने रेणु पर कोई शोक संदेश भी जारी नही किया था और उनकी स्मृति में कोई शोक सभा आयोजित नही की। इसका मूल कारण यह था कि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इंदिरा गांधी का समर्थन कर रही थी जबकि जयप्रकाश रेणुजी उसका विरोध कर रहे थे और आपातकाल का विरोध करते हुए वे दोनों जेल भी गये थे लेकिन आज रेणु को वामपन्थी लेखक अंगीकार कर रहे हैं और उन्हें अपनी परम्परा का एक लेखक बताने लगे हैं। साहित्य में अवसरवाद कोई पहली घटना नहीं है। कई लेखक संगठन, राजनीतिक दल तथा क्षेत्र विशेष प्रांत और जाति विशेष के लोग लेखकों पर भी अपना एकाधिकार अपने निहित स्वार्थों के लिए कर लेते हैं।
कुछ लेखकों की ऐसी छवि बना दी गयी है कि वह एक खास जाति या समुदाय के लेखक है। रेणु की जन्मशती वर्ष में भी कुछ लोगों द्वारा ऐसा ही करने का प्रयास देखा गया। सोशल मीडिया में रेणु को लेकर सवर्ण और पिछड़ी जाति के लेखक एक दूसरे पर आरोप भी लगाने लगे। कुछ लोगों ने यह भी टिप्पणी की कि रेणुजी को सवर्णों से मुक्त किया जाए क्योंकि सवर्ण समाज उन्हें अपनी ओर खींचने में लगा हुआ है। यह सारा प्रयास साहित्य में सनसनी फैलाने का किया जा रहा है। साहित्य कोई सनसनीखेज चीज नहीं है। वह मीडिया का ब्रेकिंग न्यूज़ भी नहीं है या वह बाजार का एक उत्पाद भी नहीं है बल्कि वह संस्कृति का एक दस्तावेज है, मानवीय गरिमा और संवेदनाओं का शिलालेख है। इसलिए साहित्य के बारे में हमें बात करते हुए सनसनीखेज तरीके से कोई बात नहीं करनी चाहिए बल्कि पूरी गरिमा और भाषा की गम्भीरता के साथ अपनी बात की जानी चाहिए।
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