“…खुदा कहलाने का शौक था जिसे मरघट का मसीहा बन कर रह गया ” यह पंक्तियाँ हिन्दी के चर्चित कवि एक्टिविस्ट अजय सिंह की है जो इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो गयी हैं। लेकिन मेरे मित्र अजय सिंह ने अपनी कविता में “मरघट के मसीहा” का नाम नहीं लिया है। देश की जनता इस मसीहा को अब अच्छी तरह जान गयी है इसलिए यहाँ उसका नाम लेने की जरूरत नहीं। अगर उस मसीहा का नाम ले भी लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति होगी या अतिरंजना नहीं होगी।
अगर उन्हें “मरघट का बादशाह” कहा जाए तो भी अनुचित नहीं होगा। भाजपा के एक नेता उन्हें विष्णु के तेरहवें अवतार बता ही चुके हैं। अगर आज भारत “मरघट” के रूप में तब्दील होता जा रहा है तो उसके लिए क्या हम किसी को दोषी ठहरा सकते है या हम क्या यह मानकर हम चुप हो जाए कि यह कहर तो प्रकृति ने बरपाया है। इसलिए उसके लिए कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं है बल्कि यह प्राकृतिक आपदा लेकिन अब पूरी दुनिया यह मानने लगी है कि भारत में दूसरी लहर में जो कुछ हुआ उसके लिए मोदी सरकार जिम्मेदार है।
दूसरी लहर तो विदेशों में भी आई पर आस्ट्रेलिया अमरीका इसराइल जैसे देशों ने इस पर विजय पाई। चीन पहले ही विजय पा चुका है। विदेशी मीडिया ने ही नहीं देश के कई हाईकोर्ट ने भी अपने फैसलों में इस सिस्टम के विफल होने पर सरकार को किसी न किसी रूप में जिम्मेदार ठहराया है। यह अलग बात है कि उन्होंने सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम नहीं लिया है लेकिन उन्होंने केंद्र की जिस तरह खिंचाई की है, जिस तरह चुनाव आयोग के खिलाफ मुकदमा चलाए जाने की बात कही है, उससे यह लगभग सिद्ध हो गया है की इस हादसे के लिए हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लापरवाही और बद इंतजामी तथा अदूरदर्शिता ही उसे लिए जिम्मेदार है।

वायरोलॉजिस्ट शाहिद जमील
पिछले दिनों जीनोम स्ट्रक्चर के लिए गठित वैज्ञानिक सलाहकार ग्रुप के वायरोलॉजिस्ट शाहिद जमील ने अपने से इस्तीफा दे दिया है उससे बड़ा सवाल खड़ा हो गया है और इसके लिए भी जिम्मेदार सरकार है क्योंकि शाहिद जमील ने दो टूक शब्दों में कहा कि हम लोगों ने सरकार से जब डाटा मांगा तो नहीं दिया गया और जो सिफारिशें की थी, उन पर अमल नहीं किया गया। आखिर सरकार डाटा क्यों छिपा रही है? पिछले दिनों करण थापर को दिये गये इंटरव्यू में एक वैज्ञानिक सलाहकार ने कहा कि उन्होंने तीन माह पूर्व सरकार को चेतावनी दी थी तब सरकार ने दूसरी लहर को रोकने के लिए कदम क्यों नहीं उठाए गये।
पिछले दिनों “द टेलीग्राफ” द्वारा आयोजित एक सेमिनार में प्रसिद्ध डॉक्टर कुणाल सरकार ने तो यहाँ तक कहा कि कोरोना की रोकथाम की जिम्मेदारी पुणे की संस्था सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल की है न कि आईसीएमआर की लेकिन सरकार ने आईसीएमआर को इसलिए यह जिम्मेदारी दी क्योंकि उसका अध्यक्ष सरकार का” यस मैन “है। यानी मोदी सरकार इस महामारी नियंत्रण के कामको अपने अंकुश में लेना चाहती थी। आज प्लाज्मा डोनर और कोविशील्ड् के दोनो टीकों के गैप के बारे में लिए गये फैसलों से आईसी एमआर पर भी सवालिया निशान खड़ा हो गया हैं।
दरअसल जो कोई डॉक्टर या विशेषज्ञ सरकार की हाँ में हाँ मिलाता है तो वह ठीक है लेकिन अगर कोई असहमत है तो उसकी या तो छुट्टी कर दी जाती है या वह व्यक्ति खुद ही मजबूर होकर शाहिद जमील की तरह इस्तीफा दे देता है। सच पूछा जाए तो मरघट का बादशाह बनने की ख्वाहिश ने सरकार की आंखों पर पट्टी बांध दी। यही कारण है कि सरकार पांच राज्यों के चुनाव में मशगूल रही और सत्ता के नशे में उसने अपने देश की जनता की कोई परवाह ही नहीं की। जब पानी सर से ऊपर गुजरने लगा तब सरकार की नींद टूटी और उसने आनन-फानन में ऑक्सीजन या विदेशों से टीका मंगवाने का निर्णय लिया और बायोटेक के फार्मूले को दूसरी कंपनियों को देने की मंजूरी दी गयी।
सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए कोविशील्ड के टीके को लगाने का अंतर 8 सप्ताह से बढ़ाकर 12 सप्ताह कर दिया और इसके पीछे यह तर्क दिया कि ब्रिटेन एवम अन्य देशों से प्राप्त डाटा के आधार पर यह फैसला लिया गया लेकिन सरकार ने कोई डाटा जारी नहीं किया। इस बीच ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने भारतीय वैरीअंट को देखते हुए अपने देशवासियों के लिए टीके का गैप 12 सप्ताह से घटाकर 8 सप्ताह कर दिया। एक तरफ तो ब्रिटेन गैप घटा रहा जबकि भारत बढ़ा रहा।
जब लोग कोविशील्ड का दूसरा टीका लेने के लिए गये तो उन्हें टीका लेने से यह कहकर मना कर दिया गया कि 84 दिन से पहले टीका नहीं दिया जा सकता है। इस पर जब हंगामा हुआ तब भारत सरकार ने एक और आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि अगर किसी ने कोविशील्ड के दूसरे डोज के लिये से पहले से ऑनलाइन पंजीकरण करा रखी है तो वह 84 दिन के पहले भी टीका ले सकता है। यानी इस देश के कुछ नागरिक तो 84 दिन से पहले भी कोविशील्ड का दूसरा टीका ले सकते हैं जबकि अन्य नागरिक 84 दिन के बाद टीका लेंगे। एक ही देश में टीके को लेकर यह दो तरह के नियम क्यों? लेकिन सरकार इस पर कोई जवाब नहीं देना चाहती है। उसने चुप्पी लगा रखी है।
ऐसे में देश की जनता किस बात पर यकीन करें। यह सारी गड़बड़ियाँ मोदी सरकार अदूरदर्शी नीतियों के कारण हुई। इस अदूरदर्शिता का एक उदाहरण हम नोटबंदी के दौरान देख चुके हैं, दूसरा उदाहरण जीएसटी के दौरान देखने को मिला और तीसरा उदाहरण अब देखने को मिल रहा है। इन तीनों उदाहरणों से पता चलता है कि यह सरकार तुगलक की तरह फैसले लेती है और वह अपनी गलतियों को स्वीकार भी नहीं करती है जिसका खामियाजा देश की गरीब जनता को भुगतना पड़ता है। दरअसल मोदी जी अपनी ही नीतियों के कारण आज इस मरघट के बादशाह बने हुए हैं। उन्हें बादशाहत् अधिक पसन्द है। उनके कारण ही यह सिस्टम फेल हो गया।
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर हाहाकार मचा हुआ है कि हमारा सिस्टम फेल हो गया है लेकिन क्या हमने यह सोचा है कि यह सिस्टम किसके लिए फेल हुआ है? आजादी के बाद यह सिस्टम किसने बनाया था और किसके लिए बनाया गया था? अगर इन सवालों पर हम विचार करें तो इस बात को समझ जाएंगे कि आजादी के बाद जो “सिस्टम” बना उसका मूल स्वरूप क्या था। यह “सिस्टम” किस के हितों की रक्षा कर रहा था? इस सिस्टम की क्या विश्वसनीयता थी और यह सिस्टम कितना कारगर था?
सच पूछा जाए तो यह “सिस्टम” हमारे आपके लिए फेल हुआ है, उनके लिए नहीं। सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला के लिए यह “सिस्टम” फेल नहीं हुआ है जो पिछले दिनों यह कहकर भारत छोड़कर लंदन चले गये कि उनकी जान को खतरा है। अगर आपकी हमारी जान पर खतरा हो तो क्या हम भारत छोड़कर ब्रिटेन जा सकते हैं? यह सिस्टम उन लोगों के लिए फेल नहीं हुआ है जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उनका पूरा परिवार भारत छोड़कर विदेश चला गया है। लेकिन मोदी सरकार की लापरवाही के कारण यह सिस्टम और फेल हो गया।
आक्सीजन के लिए उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायलय को आदेश देना पड़ा। मरघट के मसीहा के चेहरे पर शिकन तक नहीं बल्कि 72 देशों को टीका देने पर सवाल करते हुए जब राजधानी में पोस्टर लगाए गये तब 24 एफआईआर दर्ज हुए। देश के इतिहास में यह पहली घटना होगी जब इतनी बड़ी संख्या में एक दिन में इतने लोगों के खिलाफ पोस्टर लगाने के मामले में एफआईआर दर्ज किया गया हो। मोदी ने सत्ता में आते ही राष्ट्रवाद का नया आख्यान रचने की कोशिश की थी लेकिन उनके टीकाकरण कार्यक्रम से इस राष्ट्रवाद में पलीता भी लग गया क्योंकि मोदी सरकार ने टीका उपलब्ध करने की जिम्मेदार राज्यों को दे दी कि वे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने टीके के लिए ग्लोबल टेंडर दें।
यह दुनिया के इतिहास में संभवत पहली बार हुआ होगा जब किसी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने वह देश खुद सामने ना आए बल्कि उसका कोई राज्य सामने आए। क्या अमेरिका के जगह उसका कोई राज्य भारत से मदद मांगेगा। अगर राज्यों को ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने टीके के लिए बोली लगाने पड़े तो “राष्ट्र” का क्या मतलब। आखिर मोदी जी किस राष्ट्र के प्रमुख हैं। जब वह राष्ट्रप्रमुख के रूप में अपनी इतनी जिम्मेदारी नहीं निभा सकते तो फिर उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना चाहिए क्योंकि अब राज्य तो कोरोना की समस्या खुद ब खुद संभाल लेंगे तो फिर प्रधानमंत्री के नेतृत्व की अब क्या जरूरत है?
आपको याद होगा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कुछ साल पहले गुजरात में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए वहाँ दंगों के लिए जिम्मेदार तत्कालीन मुख्यमंत्री को “मौत का सौदागर” बताया था तो उनके इस बयान की काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। भारतीय जनता पार्टी तथा संघ परिवार ने श्रीमती गाँधी को उनके इस बयान के लिए आड़े हाथों लिया था। वैसे, तकनीकी रूप से श्रीमती गाँधी का बयान पूरी तरह सच नही हो क्योंकि अदालत ने श्री मोदी को कभी भी दोषी नहीं स्वीकार किया।
इसलिए कहा जा सकता है कि श्री मोदी मौत के सौदागर नहीं है लेकिन कई बार अदालती सच सच भी नहीं होता पर कोरोना काल में मोदी की विफलताओं लापरवाही जिद्दी पन को देखते हुए अगर उन्हें “मौत का सौदागर” फिर कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्या यह निक्कमे राज्य द्वारा “जनसंहार” नही है ? सड़क दुर्घटना में किसी की मौत हो जाए तो चालक को सजा होती है लेकिन लाखों लोगों की मौत पर चालक न तो इस्तीफा देता है बल्कि वह अपने विरोधियों को सजा भी देता है। अजय सिंह ने ठीक ही इस बादशाह को “मरघट का मसीहा” कहा है।
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