लोहियावादियों की लाज : किशन पटनायक
आजाद भारत के असली सितारे – 55
डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद की भारतीय राजनीति, साहित्य अथवा संस्कृति के क्षेत्र पर जब मैं नजर दौड़ाता हूँ तो मुझे सबसे ज्यादा नैतिक पतन लोहियावादियों का ही दिखाई देता है। सबसे ज्यादा अवसरवादी, पद और पुरस्कार के लिए अपने सिद्धांतों की तिलांजलि देने वाले लोहियावादी ही साबित हुए हैं। यह अध्ययन का एक अलग विषय है। किन्तु उन्हीं लोहियावादियों में कुछ गिने चुने ऐसे लोग भी थे जिन्होंने किसी भी परिस्थिति में अपना जमीर नहीं बेचा और अपने उसूलों के सामने अपने कैरियर को तुच्छ समझा। ऐसे ही महान योद्धाओं में से एक का नाम है किशन पटनायक। किशन पटनायक (30.6.1930- 27.9.2004) ने जमीनी स्तर पर काम करने वाले ईमानदार नेताओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार की है जो आज भी राजनीति से लेकर लोकहित के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय है।
किशन पटनायक से मेरा सीधा कोई परिचय नहीं था किन्तु कोलकाता के उनके मित्र अशोक सेक्सरिया से मैं आम तौर पर मिलता रहता था। अशोक सेक्सरिया की जीवन-चर्या देखकर उनके साथी किशन पटनायक के बारे में कुछ- कुछ अनुमान किया जा सकता था। अशोक सेक्सरिया कोलकाता के प्रख्यात व्यवसायी और समाजसेवी सीताराम सेक्सरिया के सुपुत्र थे। वे आजीवन अविवाहित रहे। वे अपनी समूची पैतृक संपत्ति छोड़कर उनके आलीशान भवन के पीछे की ओर स्थित एक कमरे में सन्यासी की तरह रहते थे। उन्हीं के माध्यम से मैं ‘सामयिक वार्ता’ से परिचित हुआ और किशन पटनायक के बारे में कुछ अधिक जान सका।
किशन पटनायक का जन्म ओड़िशा के भवानीपाटना में हुआ था। उनके पिता का नाम चिंतामणि पटनायक और माँ का नाम सत्यवती था। चिन्तामणि पटनायक कालाहांडी रियासत के दीवान थे। किशन जी के बचपन का नाम कृष्ण प्रसाद था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा काशीपुर के सरकारी विद्यालय में हुई जहाँ उनके पिता कार्यरत थे। आगे पढ़ाई के लिए उन्हें भवानीपाटना आना पड़ा जहाँ के ब्रजमोहन हाई स्कूल से उन्होंने 1946 में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उसके बाद की पढ़ाई के लिए वे बलांगीर आ गए और वहाँ के राजेन्द्र कॉलेज में प्रवेश लिया। राजनीति की ओर किशन जी का झुकाव इन्हीं दिनों देखने को मिला। उन्होंने राजेन्द्र कॉलेज में छात्र सम्मेलन कराया और 9 अगस्त 1946 को राष्ट्रध्वज फहराने के आन्दोलन का नेतृत्व किया।
किशन पटनायक ने बी.ए. और एम.ए. की पढ़ाई नागपुर से की। उनके नागपुर रहते हुए ही गांधी जी की हत्या हुई थी जिसकी प्रतिक्रिया में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं पर हमले हुए थे। किशन पटनायक ने निष्कर्ष निकाला था कि इन हमलों नें गांधी जी की हत्या के अपराध को हल्का कर दिया। वे एम.ए. करने के बाद भवानीपाटना आ गए और उसी ब्रजमोहन हाई स्कूल में अध्यापन करने लगे जहाँ से उन्होंने शिक्षा ली थी किन्तु जल्दी ही उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी।
1951 में जब आम चुनाव होने वाला था तो राज्य के प्रसिद्ध समाजवादी नेता सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी भवानीपाटना आए। वहाँ का राजा चुनाव में खड़ा था। वह जहाँ भी जाता था लोग उसका चरण पखारते थे। किशन जी के घर भी जब राजा आने वाला था तो उनके घर के लोग भी राजा का चरण धोने की तैयारी कर रहे थे। किशन जी को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वे चुपके से अपना घर छोड़ दिए। पैसे के अभाव में वे बिना टिकट यात्रा करके मद्रास पहुँच गए। मद्रास में किसी तरह उन्हें एक नौकरी मिल गई। इस बीच समाजवादी पार्टी के दफ्तर में उनका बराबर आना जाना था। बाद में वे पार्टी के दफ्तर में ही रहने लगे। किशन पटनायक के मद्रास में रहने की सूचना इस बीच सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी को मिल चुकी थी। 1952 में चुनाव की तैयारी के सिलसिले में जब वे मद्रास गए तो किशन पटनायक से मिले। सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी के कहने पर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और कटक के पार्टी दफ्तर में आकर पार्टी का काम देखने लगे।
कटक के पार्टी दफ्तर में काम का बोझ ज्यादा था और वहाँ समुचित भोजन और रहने की व्यवस्था भी नहीं थी। काम के दबाव में उन्हें सिगरेट की भी लत लग गई। उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और वे दमा के रोगी हो गए। बाद मे डॉक्टरों की सलाह पर उन्होंने सिगरेट का सेवन तो बंद कर दिया किन्तु इसके बावजूद दमा के रोग ने उन्हें जीवन भर चैन से नहीं रहने दिया और अंत में इसी दमे से उनकी मृत्यु भी गई।
कटक के पार्टी दफ्तर में रहते हुए किशन जी ‘कृषक’ पत्रिका देखते थे। कुछ दिन बाद वे संभलपुर के किसान संगठन से जुड़ गए। 1952 में पार्टी दो हिस्से में बँट गई। उन दिनों डॉ. लोहिया पार्टी के महासचिव थे। पार्टी का विभाजन डॉ. लोहिया और मधुलिमये को पार्टी से निकाल देने के मसले पर हुआ। ज्यादातर पुराने अनुभवी लोग प्रसोपा में बने रहे किन्तु नौजवानों की बड़ी संख्या के साथ डॉ. लेहिया ने अलग सोशलिस्ट पार्टी गठित कर ली। किशन जी लोहिया के साथ हो लिए।
संभलपुर में किशन जी ने पार्टी को संगठित करने में सारी ताकत लगा दी। उन्होंने ‘साथी’ नामक ओड़िया पत्र निकाला जो दो साल तक चला। इस बीच सूखा प्रभावित क्षेत्र होने के नाते तकावी कर्ज माफी के लिए पार्टी ने आन्दोलन चलाया। किशन पटनायक ने इसका नेतृत्व किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजू पटनायक किसानों से बात करने आए किन्तु वार्ता सफल नहीं हुई और आन्दोलन चलता रहा। परिणामस्वरूप किशन पटनायक गिरफ्तार कर लिए गए। इस बीच 1962 का संसदीय चुनाव हुआ। किशन पटनायक संभलपुर से खड़े हुए और जेल में रहकर ही उन्होंने यह चुनाव लड़ा और वे भारी मतों से विजयी हुए। इस तरह वे तीसरी लोकसभा के सबसे कम उम्र के सांसद बने। इसी चुनाव में डॉ. लोहिया फूलपुर से जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ लड़े थे और पराजित हुए थे। बाद में लोहिया उपचुनाव जीतकर संसद में आए थे। किशन जी उसके बाद कभी संसद में नहीं पहुँचे किन्तु उनके संसद का वह कार्यकाल एक अविस्मरणीय कार्यकाल के रूप में याद किया जाता है।
किशन जी संभलपुर निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे लेकिन उनके संसदीय सरोकार सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्र या अपने प्रदेश तक ही सीमित नहीं थे। वे जितनी शिद्दत से कालाहांडी, बलांगीर और संभलपुर जिलों में व्याप्त अकाल और भुखमरी के हालात की ओर देश और सरकार का ध्यान खींचते थे, उतनी ही बारीकी से नगा समस्या, देश के विभिन्न भागों में आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन से जुड़ी समस्याओं, देश की सीमाओं की सुरक्षा से जुडें सवालों और देश की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली पर भी सरकार का ध्यान खींचते थे। कई बार तो उनके प्रश्न और प्रतिप्रश्न इतने तीखे होते थे कि सरकारी पक्ष बुरी तरह तिलमिला जाता था।
1966 में किशन जी को समाजवादी युवजन सभा का अध्यक्ष बनाया गया। 1967 में डॉ. लोहिया का निधन हो गया। उनके निधन के बाद समाजवादी पार्टी की दशा देखकर उनका मन दुखी हो गया और वे उससे अलग हो गए। उन्होंने 1972 में इंदुमती केलकर, श्रीप्रसाद केलकर, केशवराव जाधव, रमा मित्र, ओमप्रकाश दीपक आदि लोहिया के निष्ठावान साथियों को लेकर ‘लोहिया विचार मंच’ का गठन किया। समाजवादी युवजन सभा में काम कर चुके बहुत से नौजवान भी इसमें शामिल हुए। इसके बाद का सारा जीवन किशन जी ने लोहिया विचार मंच के माध्यम से राजनीति को एक बेहतर विकल्प देने के काम में लगा दिया। 1974 में जब बिहार में छात्रों ने आन्दोलन शुरू किए तो किशन जी भी पूरी निष्ठा के साथ उससे जुड़ गए। इस दौर में उनके प्रयास से उनके कुछ मित्रों ने ‘चौरंगी वार्ता’ नाम से एक पत्रिका कलकत्ता से निकाली जो बाद में समाजवादी विचारों की प्रमुख पत्रिका बन गई।
इमरजेंसी के दौरान यह पत्रिका बंद हो गई। बहुत सारे लोग गिरफ्तार हो गए। किन्तु किशन जी भूमिगत रहते हुए राजनैतिक काम जारी रखे। किन्तु इसके बावजूद 1976 में ही किशन जी गिरफ्तार हुए। जेल में उनकी तबीयत और खराब हो गई। इमरजेंसी की समाप्ति के बाद नवगठित जनता पार्टी में किशन पटनायक शामिल नहीं हुए। उन्हें यह सब अवसरवाद लगा। वे लोहिया विचार मंच के माध्यम से काम करते रहे और जनान्दोलनों को ताकत प्रदान करते रहे।
‘सामयिक वार्ता’ का प्रकाशन 1977 में आरंभ हुआ था। यह पत्रिका पहले पाक्षिक निकलती थी। इसकी प्रसार संख्या दस हजार तक पहुँच गई थी। इस पत्रिका के माध्यम से किशन पटनायक ने भारतीय राजनीति की सही दिशा निर्धारित करने में लगातार अपना पक्ष रखा और नेताओं को सचेत किया। इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी का गठन हो रहा था, उस समय किशन जी ने दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया था। उन्होंने जनता पार्टी के सदस्यों का आरएसएस का भी सदस्य होना गलत बताया था। किशन जी के सुझाव पर अमल न करने का नतीजा बाद में सामने आया। जनता पार्टी टूट गई और भारतीय जनता पार्टी का नया रूप सामने आ गया जिसका असली चरित्र सबके सामने है।
किशन जी अब भी हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने 1979 में समाजवादी युवजन सभा तथा लोहिया विचार मंच के ईमानदार लोगों को लेकर सराय ( वैशाली ) में एक सम्मेलन करके नया संगठन बनाने की कोशिश की। इसका प्रभाव इस रूप में हुआ कि 1980 में बंगलूर में ‘समता संगठन’ का गठन हुआ।
किशन जी ने धनबाद के कोयला मजदूरों के बीच भी काम किया। उन्होंने कोयला मजदूरों में शराब और कर्ज-मुक्ति के अभियान चलाए। बच्चों की शिक्षा से लेकर औरतों की पिटाई के खिलाफ आन्दोलन चले। कटिहार में गाँव के गरीबों को जमीन दिलाने की मुहिम चलाई गई। उन्होंने ‘भूमिपुत्र’ नाम से ओड़िया में भी पत्रिका निकाली। उन्होंने 1985 में कालाहांडी में भुखमरी से परेशान गरीबों द्वारा बच्चे बेचने के सवाल को सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से उठाया। जहाँ आवश्यक समझा, चुनावों में अपने उम्मीदवार भी खड़े किए। स्वयं उन्होंने जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव ठुकरा दिया। 1989 में वे संभलपुर से चुनाव लड़े और हार गए। 1991 में उन्होंने जनान्दोलनों को गति देने के उद्देश्य से जनान्दोलन समन्वय समिति के गठन में केन्द्रीय भूमिका निभाई। इसमें उत्तर बंग तपसीली जाति संगठन, कर्नाटक रैयत संघ, दलित संगठन समिति, छात्र संघर्ष वाहिनी आदि ने हिस्सा लिया।
किशन जी ने 1995 में ‘समाजवादी जन परिषद्’ का गठन करके एक बड़ा राजनैतिक दल बनाने की पहल की ताकि उनके अबतक के प्रयासों को एक ठोस रूप दिया जा सके। उन्हीं दिनों उन्होंने ओड़िया पत्रिका ‘विकल्प विचार’ का प्रकाशन भी शुरू किया। इस दौर में आर्थिक संकटों के बावजूद ‘वार्ता’ निकलती रही।
किशन जी की नजर पूरे देश पर रहती थी। उनके जनान्दोलनों का विस्तार राष्ट्रव्यापी था। कर्नाटक में रैयत संघ और दलित संघर्ष समिति के आन्दोलन, अस्सी के दशक में उभरे किसान आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन, एनरॉन विरोधी मुहिम, पेप्सी -कोक विरोधी आन्दोलन, तवा बाँध से विस्थापित हुए आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई, कोचस ( रोहतास ) के नहर आन्दोलन, उत्तर बंगाल के दलित-आदिवासी आन्दोलन, ओड़िशा में गंधमार्दन का आन्दोलन, काशीपुर का किसान आन्दोलन, गोपालपुर तथा चिल्का क्षील में हुए विस्थापन का आन्दोलन आदि हर जगह किसी न किसी रूप में उनकी भागीदारी रही।
किशन जी फासीवाद और भूमंडलीकरण के खतरों को समय रहते पहचान गए थे। 1993 में उन्होंने दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन और सेमीनार किया था। इसके पहले अपने समाजवादी जनपरिषद् के साथियों के साथ वे देश भर में दर्जनों सभाएं कर चुके थे। डंकल प्रस्ताव का उन्होंने जमकर विरोध किया था। वे हर तरह से भूमंडीकरण का विरोध कर रहे थे।
दरअसल किशन पटनायक ने अपना पूरा जीवन सच्चे और ईमानदार राजनीतिक कार्यकर्ताओं के निर्माण में लगा दिया। उन्हें निजी तौर पर भले ही कोई महत्वपूर्ण पद या सम्मान न मिला हो किन्तु आज भी देश में यदि अन्याय, भ्रष्टाचार, लूट आदि के खिलाफ बोलने वाली मुखर आवाजें बची हुई हैं और यदा कदा दिख जाती हैं तो उनके पीछे किशन पटनायक का किया गया त्याग, समर्पण और निष्ठा है। सही अर्थों में उनका मुख्य काम कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण का था। उन्होंने अपने जीवन के लगभग पैंतीस वर्ष इसी काम में लगाए। उन्होंने हजारों कार्यकर्ता तैयार किए, अध्ययन केन्द्र चलाए, प्रशिक्षण शिविर लगाए, विभिन्न भाषाओं में अनेक पत्रिकाएं निकालीं, सेमीनार, सम्मेलन और प्रदर्शन किए और साइकिल यात्राएं तक कीं। किशन जी का दुर्भाग्य यह था कि उनसे प्रशिक्षण पाने वाले लोगों में उनके जैसा त्यागी, निर्लिप्त और सादगी भरा जीवन जीने वाले बहुत कम थे। ज्यादातर लोग अवसर मिलते ही किशन जी से दूरी बना लेते थे। इसके बावजूद आज भी जहाँ कहीं भी लूट, भ्रष्टाचार या अन्याय के खिलाफ तथा जनता के व्यापक हित में आवाजें उठती हैं तो उसमें किशन पटनायक के आवाज की अनुगूंज भी सुनाई देती है।
किशन जी ने 1969 में वाणी मंजरी दास से प्रेम विवाह किया था। विवाह से पहले वाणी जी के पेट में कैंसर का पता चला। उन दिनों कैंसर लाइलाज था। वाणी जी ने मन ही मन शादी न करने का निर्णय ले लिया था। किन्तु यह सब देखते हुए किशन जी ने एक दिन शादी का प्रस्ताव रखा। इसपर वाणी जी ने अपने कैंसर का हवाला देते हुए मना कर दिया और कहा, “विवाह अब कभी नहीं हो सकता क्योंकि मैं मृत्यु की तरफ बढ़ रही हूँ। कब क्या होगा इसका कुछ ठिकाना नहीं। अगर मैं विवाह कर भी लूँ तो मेरे बाद कोई लड़की आपकी दूसरी पत्नी बनना नहीं चाहेगी।” इसपर किशन जी का जवाब था, ”अगर मैने एक वेश्या को भी शादी के लिए वचन दिया होता तो मैं उससे जरूर कर लेता।” वाणी जी ने लिखा है कि, “मैं यह सुनकर स्तब्ध रह गई।” (किशन पटनायक : आत्म और कथ्य, सं. अशोक सेक्सरिया, संजय भारती, पृष्ठ-134) बाद में वाणी जी का आपरेशन हुआ। उन्हें कैंसर नहीं था। उनका गलत ऑपरेशन हुआ था।
वाणी जी को किशन जी से शादी करने की सलाह देने वाले उनके क्षेत्रमणि भैया ने किशन जी का परिचय बताते हुए एक बार कहा था कि, “किशन जी ऐसे व्यक्ति हैं जिनके एक पैर में चप्पल रहती है और दूसरा पाँव नंगा रहता है। उनके खाने -पीने रहने का कोई ठिकाना नहीं रहता।” (उपर्युक्त, पृष्ठ-127)
अपनी विचारधारा के बारे में किशन जी ने स्वयं लिखा है, “मैं निरीश्वरवादी हूँ, लेकिन मैं जानता हूँ कि इसमें मुझे सिर्फ एक बौद्धिक संतोष मिलता है। इसको एक मुद्दा बनाकर मैं कोई सामाजिक -राजनीतिक आन्दोलन नहीं खड़ा सकता। निरीश्वरवादियों का एक क्लब बन सकता है या आश्रम बन सकता है जो अपने में एक अच्छी चीज होगी। लेकिन वह एक सांप्रदायिकताविरोधी सामाजिक आन्दोलन नहीं बन सकता।” (विकल्पहीन नहीं है दुनिया, पृष्ठ- 207)
किशन पटनायक बहुत अध्ययनशील थे। वे किताबों से ज्यादा जीवन और समाज का अध्ययन करते थे। भाषा के बारे में उनके विचार एक बड़े भाषावैज्ञानिक की तरह हैं। वे लिखते हैं, “भाषाएं जब विकसित होती हैं तो वे एक-दूसरे से दुश्मनी नहीं करतीं, बल्कि सहयोग करती हैं। वे सौत नहीं होतीं, सखी होती हैं। भारतीय भाषाओं का आधुनिक विकास जिन दिनों हुआ था, उन्हीं दिनों भारतीय राष्ट्रवाद का भी विकास हुआ था। जिसको हम बोली या उपभाषा (डाइलेक्ट) कहते हैं, वे तो हजारों हैं। जब लोक की कोई भाषा गतिशील होकर समृद्ध होने लगती है तो स्वाभाविक ढंग से बोलियाँ अपने को उस विकास के स्रोत में विलीन कर देती हैं। लेकिन जब भाषाओं का विकास रुक जाता है तो उपभाषाएं या बोलियाँ भी समान दरजे की माँग करने लगती हैं। भाषा, बोली और उपभाषा में कोई अंतर नहीं होता। जिन भाषाओं में विज्ञान, दर्शन, व्यापार और अनुसंधान का काम नहीं होता, वे सारी भाषाएं बोलियां हैं।” (उपर्युक्त, पृष्ठ- 206)
इसी तरह उन्होंने अन्यत्र लिखा है, “अंगरेजी अज्ञान पैदा कर रही है। वह हमारे बीच दीवार जैसी खड़ी है। अंगरेजी केवल नौकरशाहों, सेठों और सेमीनार प्रेमी बुद्धिजीवियों को इकट्ठा कर सकती है।” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-206)
किशन पटनायक ने ‘किसान आन्दोलन : दशा और दिशा’, ’भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि’ तथा ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ नाम से पुस्तकें लिखी हैं। ये पुस्तकें समय -समय पर उनके द्वारा विभिन्न पत्रिकाओं में लिखे गए लेखों के संकलन हैं।
किसान आन्दोलन : दशा और दिशा’ में भारत के किसान आन्दोलन का उसके सामाजिक –आर्थिक –राजनीतिक और कुछ हद तक सांस्कृतिक आयामों का गहराई से विश्लेषण और मूल्यांकन किया गया है। इस पुस्तक में किसान आन्दोलन का विश्लेषण मुख्यत: उदारीकरण –वैश्वीकरण की नीतियों के संदर्भ में किया गया है जिनके चलते भारत की खेती –किसानी तबाही के कगार पर पहुँच गई है और लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसान जीवन पर आए इस अभूतपूर्व संकट के दौर मैं लेखक ने साम्राज्यवादी पूँजीवाद का प्रतिकार करने के लिए देश में एक स्वतंत्र किसान नीति के निर्माण, विकास और संगठन की जरूरत पर जोर दिया है।
‘भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि’ उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में आजादी के बाद की भारतीय राजनीति के परिदृश्य का, उसके समस्त आयामों में गंभीर विश्लेषण किया गया है। सम्यक विश्लेषण के साथ- साथ लेखक ने आधुनिक राजनीति की सभी अवधारणाओं, मूल्यों, मान्यताओं, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका आदि संस्थाओं, विविध प्रक्रियायों –घटनाओं, नेताओं आदि पर अपना मत रखा है। आधुनिक राजनीति के बीजपदों –संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, समाजवाद, गाँधीवाद, साम्यवाद, राष्ट्र, राज्य, राष्ट्रीय संप्रभुता, क्षेत्रीय अस्मिता, अंतरराष्ट्रीयता, अर्थनीति, विदेशनीति, कूटनीति, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, तानाशाही, फासीवाद, साम्प्रदायिकता आदि का विश्लेषण किया है।
‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ उनकी सर्वाधिक चर्चित कृति है। इसमें संकलित निबंध दो दशकों के बीच समय समय पर आवश्यक होने पर लिखे गए हैं। विचार के संकट के दौर में यह पुस्तक एक नया युगधर्म ढूँढने की कोशिश करती है।
किशन जी बहुत अच्छे कवि भी थे। अपने विद्यार्थी जीवन से ही उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। लेकिन राजनीति और सामाजिक कामों के दबाव में उनका कविरूप पीछे छूटता चला गया। आज पुण्य तिथि के अवसर पर हम इस महान लोहियावादी को नमन करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।