
आज 3 जनवरी को इस लेख के लिखे जाने तक किसान आन्दोलन 39 वें दिन में प्रवेश कर चुका है। कृषि अधिनियम 2020 के तीनों प्रावधानों के पूर्ण रूप से वापस लिए जाने से कम पर किसान आन्दोलन वापस न लिए जाने पर अड़े हैं। इस गतिरोध को समझने के लिए इस कृषि अधिनियम में क्या है यह जानना तो जरूरी है ही, यह जानना भी आवश्यक है कि किसानों द्वारा कृषि उत्पाद की बिक्री की प्रक्रिया क्या है। सरकार इस अधिनियम द्वारा जो बिचौलियों/ आढ़तियों के शोषण से किसानों को मुक्त करने की बात कह रही है ,तो उत्पाद बिक्री की प्रक्रिया में उन बिचौलियों की भूमिका क्या है।
जब किसान के पास अनाज तैयार हो जाता है,तो वह उसे बेचने मण्डियों में जाता है। चूंकि सही खरीदार पाना एक बड़ा मामला है इसलिए इसके लिए किसानों को मध्यस्थता कर अनाज बिकवा देने वाले आढ़तियों की आवश्यकता होती है। आढ़तियों की वजह से बिक्री करने वाले और खरीदार दोनों को सुविधा होती है, अतः आढ़तियों की उपस्थिति क्रय विक्रय प्रक्रिया का एक आवश्यक हिस्सा है। आढ़तियों की इस आवश्यकता को देखते हुए लाइसेन्सी आढ़तियों की व्यवस्था की गई है।
किसान जब खलिहान से आनाज की भारी मात्र लेकर मण्डीमें आता है, तो किसान की गरज ये रहती है कि मण्डी में पहुँचने के बाद अनाज की बिक्री अवश्य हो जाय, उसे अनाज लेकर वापस न लौटना पड़े । ऐसे समय में भी उसे खरीदार के अलावे एक बिचौलिये की आवश्यकता पड़ती है।
यहाँ यह जिक्र कर देना आवश्यक है कि ये मण्डियाँ ही एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मारकेटटिंग कमिटी – कृषि उत्पाद विपणन समिति ) कहलाती हैं। यह एपीएमसी एक्ट के तहत एक व्यवस्था है। किसान इन मण्डियों में कृषि उपज लाकर बेचते हैं और इस व्यवस्था के लिए सरकार को तथा अन्य कर भी देते हैं। अभी देश में लगभग 7000 ऐसी मण्डियाँ हैं या एपीएमसी हैं।
किसान चाहता है कि अनाज की बिक्री से उसे एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइस – न्यूनतम समर्थन मूल्य ) मिले। न्यूनतम समर्थन मूल्य अर्थात सरकार द्वारा किसी भी अनाज की बिक्री का वह कम से कम दर, जो कृषि उत्पाद खरीदने पर किसान को सरकार देती है।
चूंकि हम एक लोक कल्यांणकारी राज्य व्यवस्था में रहते हैं, जीते हैं, अतः सरकार का दायित्व बंनता है कि वह ,किसी भी ऐसी प्रक्रिया में या परिस्थिति में, जिसमें विशाल जन समुदाय का हित अहित शामिल है, जिम्मेवारियों का वहन करते हुए ऐसी व्ययस्था दे जिससे लोगों की न्यूनतम आवश्यकता(एँ) बाधित न हो, उनका अहित न हो और वे सरल, सहज ढंग से जीवन यापन कर सकें। लोक कल्यांणकारी राज्य की परिकल्पना के अन्तर्गत ही लोकतन्त्र की व्यवस्था है और इस व्यवस्था के तहत चुनाव होते हैं, जिम्मेवारियों का वहन करने, जनता की सुख सुविधाओं का ख्याल रखने, उनकी मौलिक आवश्यकताओं को पूरा करने आदि के लिए जनता द्वारा सरकारें चुनी जाती हैं ।
एमएसपी सरकार की ऐसी ही एक जिम्मेवारी है। जैसा कि कहा जा चुका है एमएसपी सरकार की तरफ से, अनाज या किसी भी कृषि उत्पाद के लिए घोषित वह मूल्य है, जितना किसान कम से कम पाएगा ,जब वह अनाज (कृषि उत्पाद) की बिक्री करेगा । इस प्रकार एमएसपी अर्थात न्यूनतम समर्थन मूल्य लोक कल्यांणकारी राज्य की एक व्यवस्था है , जिससे किसान भी सुरक्षित रहता है और उपभोक्ता भी (जब किसान सुरक्षित रहेगा , तभी उपभोक्ता अनाज पा सकेगा और भोजन की आवश्यकता पूरी होगी) और भोजन जैसी मूलभूत आवश्यकता में शामिल तबके (किसान और उपभोक्ता) समुचित जीवन यापन कर सकते हैं।
एमएसपी नियमन के लिए ही सीएसीपी ( कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्टस एंड प्राइसेस ) की व्यवस्था है, जिसकी सिफ़ारिशों पर सरकार एमएसपी निर्धारित करती है। इस समय 23 उत्पादों की एमएसपी तय की जाती है जिनमें सात अनाज, 5 दालें, 7 तिलहन और 4 अन्य कमर्शियल उत्पाद( कपास वगैरह) हैं।
किसान अपने कृषि उत्पाद को बिक्री के लिए मण्डियों में ले जाता है। यदि सरकारी तंत्र या प्रक्रिया की किसी वजह से या अन्य किसी कारण से मण्डी में सरकार द्वारा अनाज खरीद की स्थिति नहीं है तो अनाज को वापस ले जाना ट्रांसपोर्टेशन खर्च की वजह से किसान के लिए घाटे का सौदा है क्योंकि अनाज मण्डी तक लाने में उसे काफी मशक्कत और खर्च करना पड़ता है, जिसमें ट्रांसपोर्टेशन का खर्च एक बड़ा खर्च है। ऐसे समय में यदि कोई किसान से एमएसपी से कम में भी अनाज ले लेता है(खरीद लेता है) तो किसान को इसमें भी राहत है। बीच में ख़रीदारी का यह काम भी बिचौलिये करते हैं क्योंकि वे मण्डियों में बिक्री की सारी प्रक्रियाओं, उसके दाव-पेंच से परिचित होते हैं । उनका धन्धा(व्यापार) ही यही है । इन बिचौलियों या आढ़तियों के पास भण्डारण की , ट्रांसपोरटशन की अपनी व्यवस्था (वृहत व्यवस्था ) होती है।वे विशेष परिस्थितियों में (जब किसान सीधे सरकार को एमएसपी में अनाज नहीं बेच पा रहा है)एमएसपी से कम में अनाज खरीद लेते हैं और बाद में स्वयं सरकार को एमएसपी में अनाज बेच कर मुनाफा कमाते हैं। और इस तरह तीनों – किसान, बिचौलिये, सरकार का काम चल जाता है पर तब जब अंततः सरकार एमएसपी का वहन करती है।
परंतु बिचौलियों या आढ़तियों की इस व्यवस्था का दूसरा पक्ष भी है। एक तरफ ये किसानों और ख़रीदारों को सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं , अनियमितताओं एवं अनिश्चितताओं की स्थिति में एक सहारा देने वाले का, सहायक स्तम्भ का कार्य करते हैं तो दूसरी तरफ ये सरकारी अनियमितताओं, लापरवाही तथा कृषि अनिश्चितताओं का बेजा लाभ उठाकर किसानों का शोषण भी करते हैं। व्यावहारिक रूप से कृषि उत्पाद क्रय विक्रय प्रक्रिया में ये ही सबसे शक्तिशाली कारक हो जाते हैं और कम क्षमता वाले किसान शोषित भी होते हैं।
सरकार की जिम्मेवारी बनती है कि वह कृषि, कृषि उपज और कृषि उत्पाद विक्रय की अनियमितताओं पर लगाम कसे और ऐसी नीति पर चले तथा व्यवस्था चलाये जिससे छोटे, बड़े सभी किसान लाभान्वित हों औए पूँजी हर जगह वितरित होती रहे। ऊपर आढ़तियों की जिस मनमानी का जिक्र किया गया है , उससे तथा उपज प्रक्रिया से जुड़ी किसानों की अन्य समस्याओं , विपत्तियों एवं कठिनाईयों से निजात की दुहाई देते हुए सरकार नये कृषि अधिनियम लेकर आई है। सरकार का यह भी कहना है कि निजी कम्पनियों के कृषि क्षेत्र में आने से कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास होगा में तथा उत्पादों का देश भर के और विदेशों के बाजारों में व्यापार होगा।
अधिनियम तीन हैं –
1. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020 – फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एण्ड कॉमर्स (प्रोमोशन एण्ड फैसीलिटेशन) एक्ट
2. कृषक सशक्तिकरण और संरक्षण कीमत आश्वाशन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020 – फार्मर्स (एम्पावरमेंट एण्ड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस अस्योरेन्स एण्ड फार्म सर्विसेस एक्ट
3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 – एसेंशियल कमोडिटीज (अमेंडमेंट) एक्ट
पहले विधेयक के तहत इन सरकारी मण्डियों के अतिरिक्त भी मण्डियों का प्रावधान किया जा रहा है । इनमें निजी खरीदार होंगे जो किसानों से कृषि उत्पाद खरीद सकते हैं अर्थात किसान इन निजी ख़रीदारों को कृषि उपज बेच सकते हैं । सरकारी मण्डियां ही एकमात्र जगह नहीं होंगी , जहां किसान उपज बेच सकें। अर्थात किसानों को अपनी उपज ऊंचे दामों पर भी बेचने का मौका मिल जाएगा।
पहली नज़र में यह किसानों के हित में लगता है, पर यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जिस तरह सरकारी खरीद में एमएसपी की व्यवस्था है ,जिसके तहत किसानों को एक न्यूनतम मूल्य पाने की सुरक्षा है, वह सुरक्षा, या ऐसा कोई बन्धन इन मण्डियों के लिए नहीं है। ये निजी खरीदार बड़े व्यापारी या कॉर्पोरेट घरानों के व्यवसायी होंगे, जिन्हें लोक कल्याण की चिन्ता नहीं, अपने मुनाफे की चिन्ता होगी। किसान उपज बेचते समय कई तरह की मजबूरियों में हो सकता है, जिसका फायदा उठाकर ये निजी खरीदार मनमानी कीमत देकर उपज खरीदेंगे, ये सुविधा एवं रिसोर्सेस से सम्पन्न घराने हैं, इनमें अकूत खरीद की एवं भंडारण की क्षमता होगी। अतः वे अपनी शर्तों पर किसानों एवं उपज का उपयोग करेंगे।
यही वजह है कि किसान इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं और ये कह रहे हैं कि यदि सरकार की मंशा किसानों के हित में है, तो वह इन मंडियों में भी एमएसपी की बाध्यता लागू करे और विधेयक में तत्सम्बन्धी प्रावधान डाले।
यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि इन मण्डियों के निजी ख़रीदारों पर कर सम्बन्धी भी कोई बाध्यता नहीं होगी अर्थात एपीमसी से सरकार के कोष मेँ जो कर आता है वह इस व्यवस्था में नदारत है।
पहला विधेयक जबकि कृषि उत्पादों की बिक्री पर प्रभावी है , दूसरा विधेयक सीधे कृषि उपज पर हस्तक्षेप करता है। इस दूसरे – कृषि (सशक्ति कारण और सरक्षण )कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, द्वारा सरकार निजी कंपनियों और किसानों के बीच खेती के करारनामे का प्रावधान रख रही है – यह कांट्रैक्ट फ़ार्मिंग है अर्थात निजी कंपनी ( जो कॉर्पोरेट घराने की कंपनियाँ होंगी) किसानों के साथ सीधे उपज सम्बन्धी ही कांट्रैक्ट कर सकेगी। अर्थात फसल बोने के पहले ही ये कंपनियाँ किसानों से यह कांट्रैक्ट कर लेंगी कि किसानों की कितनी जमीन पर किसान कौन सी पैदावार करेगा और उसे इसकी क्या कीमत मिलेगी। हो सकता है पैदावार की विधियाँ भी कांट्रैक्ट में पहले ही सुनिश्चित कर ली जाय , भले उस विधि का दूरगामी असर बुरा हो।
यह विधेयक भी पहली नज़र में यह प्रदर्शित करता है कि किसानों को यहाँ भी अपने फायदे , के अनुसार कांट्रैक्ट करने की छूट होगी पर व्यावहारिक पक्ष यह होगा कि अपने फायदे या रिस्क से बचने की लालच में किसान अपनी ही कृषि भूमि पर संविदा के तहत खेती करने वाले कामगार बन जाएंगे जो उन्हें कुछ समय बाद समझ में आयेगा। इन संविदाओं में निजी कम्पनियाँ सिर्फ वही और उसी तरीके से उपज लेंगी, जिनमें उनका व्यापारिक मुनाफा अत्यधिक होगा, भले ही यह जन समुदाय के हित में न हो या जन समुदाय के हित वाली उपज या विधियाँ धीरे धीरे खत्म ही क्यों न हो जाएँ, क्योंकि इन कम्पनियों पर लोक कल्याण की कोई जिम्मेवारी नहीं होगी।
तीसरा अधिनियम पहले के दोनों अधिनियमों से बनती स्थितियों में निजी कम्पनियों को सुविधाएँ पहुँचाने के लिए है। यह है आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम । अब चूंकि उनके पास अकूत भांडारण की क्षमता है या यह क्षमता वे विकसित कर सकते हैं, तो वे ज्यादा से ज्यादा भण्डारण कर सकें , इसके लिए इस तीसरे अधिनियम मेँ उन्हें भण्डारण की छूट दी जा रही है। इसके द्वारा दाल, सीरियल्स , खाद्य तेल, प्याज़ , आलू आदि को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है। इस नियम के द्वारा ,आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत जो आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की सीमा थी, वो समाप्त कर दी गई है। यह पुनः कुछ अति सम्पन्न लोगों के हाथ संपदा संचयन का रास्ता होगा।
वर्तमान में मण्डियों की संख्या का कम होना तथा उनका आधुनिकीकरण न होना अभी की व्यवस्था में अनियमिततता तथा संतोषप्रद परिणाम न देने का एक कारण है । यह भी सरकार की जिम्मेवारी बनती है कि वह मण्डियों की संख्या में आवश्यक बढ़ोतरी करे, उसका आधुनिकीकरण करे ताकि कृषि उत्पाद जैसी जन सामान्य से जुड़ी मौलिक समस्या का समाधान पटरी पर आये ।
एक और बात, सरकार कह रही है वह किसानों को बिचौलियों द्वारा शोषण से मुक्त कर रही है । तो ध्यान देने की बात है कि जो निजी कंपनियाँ इस कृषि व्यापार में आयेंगी, उन्हें भी क्षेत्र विशेष में उपज एवं किसानों से सम्बन्धित जानकरियों के लिए तथा किसानों को भी व्यापारियों से संपर्क करने के लिए भी एजेन्टों की जरूरत होगी। ये उपलब्ध एजेण्ट वही होंगे जो आढ़तिये या बिचौलिये हैं, अर्थात बिचौलियों की भूमिका या वर्चस्व वही रहेगा अन्तर सिर्फ इतना होगा कि पहले वे सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त बिचौलिये थे अब वे निजी कंपनियों की आवश्यकतानुसार , उनके एजेंट , फ्रेंचाइजी या अधिकारी/ कर्मचारी बन कर काम करेंगे ।
इन सबका परिणाम यह होगा कि अंत में लाभ और धन निजी घरानों के खाते में जाएगा, देश की जनता का कल्याण दरकिनार होगा और धन के कुछ हाथों में केन्द्रीकरण का यह एक विनाशक औज़ार साबित होगा। प्रश्न यह है कि जब एपीएमसी और एमएसपी से किसानों का , देश का भला है, तो सरकार क्यों उसे बदलना चाह रही है, जो स्वयं किसान नहीं चाहते ।
जो व्यवस्था , किसान और देश के हित में है, वो यदि नियमों में पालन की वजह से या लापरवाही की वजह से टूट रही है, तो सरकार की तो जवाबदेही बनती है कि उन्हें सख्ती से लागू करवाये, लापरवाही की जगह चुस्ती लाई जाये और जहां सुधार की गुंजाइश वहाँ सुधार किया जाय। लग तो यह रहा है कि तंत्र की विफलता का बहाना लेकर सरकार अपनी जिम्मेवारी निजी क्म्पनियों और कौरपोरेट घरानों को सौंप देना चाह रही है । एमएसपी देना सरकार को भारी लग रहा है। यदि सच में एमएसपी का बोझ सरकारी कोष की क्षमता के बाहर है तो, आमद की व्यवस्था सरकार की जिम्मेवारी है। इस जिम्मेवारी से बचकर जुआ उतार कर निजी आकाओं के कंधों पर फेंकने की तैयारी न लोक कल्याण है न जन सामान्य के हित में है। ऐसी नीतियों के दूरगामी परिणाम होंगे जो बहुजन हिताय बहुजन सुखाय तो नहीं ही होगा।
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