पंच परमेश्वर की नैतिकता से विचलन
10 दिसंबर 2018 के सोमवार को मेघालय के उच्च न्यायालय के न्यायधीश एस. आर. सेन ने मूल निवास प्रमाणपत्र जारी न किये जाने से जुड़ी अमन राणा नामक व्यक्ति की याचिका की सुनवाई करते हुये अपने 37 पृष्ठों के एक आदेश में जो टिप्पणियाँ की, वह संविधान द्वारा उन्हें प्रदत्त न्यायिक अधिकारों का दुरुपयोग है। वे कहते हैं कि भारत के कानूनों और संविधान का सम्मान करने वाला मुसलमान भी इस राष्ट्र राज्य की नागरिकता का हकदार नहीं है अगर वह समान नागरिक संहिता का विरोध करता है। अपने निर्णय में उन्होंने जिसप्रकार संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों का उल्लंघन किया है और भारतीय इतिहास के ऊपर गैर तार्किक अनर्गल टिप्पणियाँ करते हुये केंद्र की मोदी सरकार और उसकी भगवा राजनीति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाई है, वह न्यायधीश के पद की गरिमा को तार-तार करने वाली है।
हमारे अड़ौस-पड़ौस के देशों में रहने वाले गैर मुसलिम लोगों के लिए स्वत: भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का रास्ता खोल देने वाला कानून बनाने का जो प्रस्ताव उन्होंने अपने प्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार के सामने रखा है, वह यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि वे दक्षिणपंथी ताकतों के द्वारा परिभाषित हिंदू राष्ट्र की अवधारणा से सहमत हैं। और वे इस कथित हिंदू राष्ट्र के प्रति इतने प्रतिबद्ध हैं कि वे अपने निर्णय में भारतीय नागरिकता से जुड़े संविधान के अनुच्छेद 5 से लेकर 11 तक का उल्लंघन कर गये हैं। 1955 के नागरिकता कानून का भी उन्होंने लिहाज नहीं रखा है। संविधान का सेकुलर चरित्र धर्म के आधार पर किसी को भी नागरिकता से वंचित रखने या किसी को विशेष रियायत देने की अनुमति नहीं देता है किंतु उन्होंने इस संदर्भ में अनुच्छेद 15 का भी उल्लंघन किया है क्योंकि अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का निषेध करता है।
न्यायधीश एस.आर.सेन द्वारा अपने निर्णय में की गई टिप्पणियाँन सिर्फ उनके निजी राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते विभिन्न संवैधानिक अनुच्छेदों के खिलाफ जाती हैं अपितु अपने निर्णय में निहित धार्मिक विद्वेष को सही साबित करने के लिए जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, उन्होंने इतिहास के तथ्यों तक को तोड़-मरोड़कर पेश किया है, यथा –उनका मत है कि भारत की स्वाधीनता को अहिंसा के बल पर अर्जित नहीं किया गया है … विभाजनोपरांत सिक्खों का पुनर्वास किया गया किंतु हिंदुओं का नहीं किया गया … भारत हिंदू शासकों से शासित एक विशाल देश था और फिर मुगल आये और उन्होंने देश का विभाजन कर दिया और उस समय बड़ी संख्या में बलात् धर्म परिवर्तन किया गया … 1947 में ही भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित कर देना चाहिए था … 1947 में हमारे राजनीतिक नेतृत्व को आजादी प्राप्त करने की बड़ी जल्दबाजी थी और इसीलिए आज की सारी समस्याएँ पैदा हुई हैं … किसी को भी भारत को दूसरा इस्लामिक देश बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए इत्यादि –इत्यादि। अपने निर्णय के अंत में न्यायधीश सेन ने सहायक सॉलिसिटर जनरल को निर्देश दिया कि वे इस निर्णय की एक प्रति 11 दिसंबर 2018 तक सम्माननीय प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और कानून मंत्री तक पहुँचा दें। स्पष्ट है कि वे इस निर्णय में न्यायालय की सीमा से परे जाकर परोक्ष रूप से व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को निर्देशित कर रहे हैं।
अस्तु, इतिहास का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है कि मुगलों से पहले हिंदुस्तान में पाँच मुसलिम वंश दिल्ली पर शासन कर चुके थे और विभाजन से लगभग नब्बे साल पहले ही मुगल शासन का अंत हो चुका था। अत: मुगलों को विभाजन के लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता और न ही उनके शासन काल में बड़े पैमाने पर कोई धर्मांतरण ही हुआ था। न्यायधीश सेन ने विभाजन के कारण हुई सांप्रदायिक हिंसा और विस्थापन के लिए इकतरफा ढंग से मात्र मुसलिमों को जिम्मेदार ठहराया है जबकि उस हिंसा और विस्थापन के वे भी बराबर के शिकार थे।
न्यायधीश सेन अपने इस निर्णय में लिखते हैं कि चूँकि विभाजन उपरांत पाकिस्तान को उसके हुक्मरामों ने एक इस्लामिक देश घोषित कर दिया था अत: भारत को भी एक हिंदू राष्ट्र राष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिए था। किंतु न्यायधीश सेन को पता होना चाहिए कि संविधान सभा ने बहुत सोच-समझकर ही हमारे देश को एक प्रगतिशील सेकूलर ढांचे में ढाला था। सेन ने यह तो सही कहा है कि किसी को भी भारत को एक और इस्लामिक देश बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए अन्यथा कयामत आ जायेगी। किंतु उन्हें यह भी समझना चाहिए कि चाहे इस्लामिक राष्ट्र हो या हिंदू राष्ट्र हो, दोनों ही लोकतंत्र की हत्या करने वाले होते हैं।
हमारे यहाँ संविधान ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित की है। हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में कानून का शासन स्थापित करने के लिए न्यायपालिका को सरकार के चंगुल से मुक्त रखने की भरपूर कोशिश की थी। उन्होंने संविधान में इसप्रकार की व्यवस्था की कि न्यायपालिका सरकारी दबाव से मुक्त हो स्वतंत्रतापूर्वक अपना कार्य कर सके। न्यायधीशों को बाह्य दबावों और प्रलोभनों से दूर रखने के लिए उन्हें कई प्रकार की सुविधायें और अधिकार प्रदान किये गये हैं। उन्हें नियमित वेतन मिलता है, उनके कार्यकाल की एक निर्धारित अवधि होती है और उनकी नियुक्ति हेतु एक पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई गई है। अदालतों ने भी अपने निर्णयों के द्वारा समय-समय पर स्वयं को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त रखने में सफलता पाई है।
लेकिन न्यायिक स्वतंत्रता हेतु सिर्फ संवैधानिक प्रावधान ही काफी नहीं होते हैं। इसके लिए न्यायधीशों से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने वैयक्ति पूर्वाग्रहों, राजनीतिक और नैतिक मान्यताओं एवं अंध आस्थाओं से ऊपर उठकर तटस्थता के साथ निर्णय लें। कई बार राजनीतिक विचारधारा विशेष न चाहते हुए भी निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है किंतु न्यायधीश को सदैव याद रखना चाहिए कि वह कोई नेता नहीं है, अपितु एक न्यायधीश है जिसकी निष्ठा कानून और संविधान के प्रति होती है, न कि नेताओं की तरह बहुसंख्यक आस्था और मतों के प्रति उसे जबावदेह होना होता है।
कानून और संविधान को ताक पर रखकर किसी राजनीतिक विचारधारा या राजनीतिक दल के प्रति अंध भक्ति रखने से न्यायधीश के निर्णय की साख संकट में पड़ जाती है जैसा कि न्यायधीश एस.आर.सेन के मामले में हुआ है। अत: हर न्यायधीश के लिए यह याद रखना जरूरी है कि उसकी कलम की वैधानिकता संविधान में निहित है, आंतरिक और बाह्य दबावों से स्वयं को मुक्त रखने में निहित है।हमारे न्यायधीशों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिसके कारण उनका वजूद है, वह है संविधान, न कि नेता और सरकारें। सरकारें तो हर पाँच साल में आती जाती रहती हैं और उन्हें भी न्यायालय का सम्मान करना होता है।
जितनी शक्तियाँ संविधान ने न्यायधीशों को दी हैं, उनके अहंकार में किसी भी न्यायधीश का निरंकुश हो जाना भी सहज संभव है। ऐसी स्थिति में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के साथ न्यायपालिका की टकराहट होते हुये भी प्राय: देखी जाती है। लेकिन यह स्थिति भी तभी पैदा होती है जब कोई पक्ष संविधान द्वारा निर्धारित शक्तियों और अधिकारों के पृथक्करण की उपेक्षा करने लगता है। और पिछले कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि अदालतें अपने क्षेत्राधिकार से बाहर निकलकर भी कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को निर्देशित करने लगी हैं। जैसे-जैसे हमारे देश में लोकतंत्र अपनी जड़ें जमाता गया, वैसे-वैसे अदालतों के ऊपर भी यह दबाव बढ़ता गया कि वे अपने संकीर्णतावादी आभिजात्य चरित्र से बाहर निकलकर न्यायिक सक्रियता और आंदोलनधर्मिता की दिशा में कदम बढ़ाये। जनहित याचिका स्वीकारने का प्रावधान हो या अदालत द्वारा अपने विवेक से जनहित में साक्ष्य की दुर्बलता को भी नज़रअंदाज करने का मसला हो – एक सीमा तक ही इन चीजों की सराहना की जा सकती है। लेकिन उस सीमा के बाद अदालतों की अति सक्रियता व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकारों के हनन का रूप धारण कर लेती है।
नवउदारवादी दौर में जब व्यवस्थापिका और कार्यपालिका जनता के हितों की कीमत पर पूँजीवादी ताकतों के पक्ष में अपने मूल कर्तव्यों की उपेक्षा करने लगीं तो वैसे में आम जन के पक्ष में अदालतों की अति सक्रियता समय की मांग भी बन गई। किंतु इस आंदोलनधर्मी न्यायपालिका से प्राप्त नई ऊर्जा और आत्मविश्वास का इस्तेमाल एस.आर.सेन जैसे न्यायधीश अपनी संकीर्ण राजनीतिक-धार्मिक आस्थाओं को निर्णयों की शक्ल में ढालकर राष्ट्र राज्य के ऊपर थोपने का प्रयास करने लगे। वे यह भूलने लगे कि निजी मान्यताओं को अदालती निर्णय प्रक्रिया से अलग रखना जरूरी होता है। सार्वभौमिक सत्यया जनहित या देशभक्ति के नाम पर कुछ न्यायधीश अपनी निजी मान्यताओं को दूसरों पर लादने के उत्साह में यह भी भूलने लगे कि जो आदेश वे सुना रहे हैं, उसे लागू करवाना उनके क्षेत्राधिकार से बाहर की चीज है। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान को अनिवार्य करने वाला अदालती आदेश हो या राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार करने की कवायद पर निगरानी रखने का मसला हो, ये सब सीधे-सीधे व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में दखलंदाजी के अंतर्गत शुमार किये जायेंगे। मेघालय के उच्च न्यायालय के न्यायधीश एस.आर.सेन को भी संविधान ने कहीं यह अधिकार नहीं दिया है कि वे धर्म के आधार पर नागरिकता में भेदभाव बरतने की अनुशंसा सरकार से करें। न्यायपालिका की सर्वोच्चता को गिरवी रखकर वर्तमान केंद्र सरकार की भगवा विचारधारा के साथ कदम ताल मिलाते हुये इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या करना और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्व पर आज के राष्ट्र राज्य की विभिन्न समस्याओं के लिए अनर्गल दोषारोपण करना – ये चीजें न्यायिक सक्रियता के नकारात्मक आयाम को सामने लाती हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बहाने एस.आर.सेन जैसे न्यायधीशों का स्वच्छंद हो न्यायपालिका की स्वतंत्र स्वायत्त अस्मिता को ही विचारधारा विशेष या सरकार विशेष के हाथों बेचा जाना हमारे लोकतंत्र के लिए एक अशुभ संकेत है। यह भारतीय उच्च न्यायालयों की महान गौरवपूर्ण छवि को मटियामेट करने वाला है।
एस.आर.सेन जैसे न्यायधीश न्यायिक स्वतंत्रता का गलत इस्तेमाल करते हुये तर्क की जगह वैचारिक खूंटाबंदी से संचालित हो एक विशेष परिणाम पर निगाह रखकर इसप्रकार के संविधान विरोधी निर्णय जब तब देते पाये गये हैं। न्याय की कुर्सी पर बैठे हुये सभी न्यायधीशों को प्रेमचंद की ‘पंच परमेश्वर’कहानी जरूर पढ़नी चाहिए और न्यायधीश होने के उच्च आदर्श को आत्मसात करना चाहिए कि न्याय की कुर्सी पर बैठने के बाद व्यक्ति का कोई मजहब, कोई जाति, कोई वर्ग, कोई रंग और कोई लिंग शेष नहीं रहना चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि उसके निर्णय की वैधता उस तर्क में निहित है जिसके आधार पर वह निर्णय लिया जाता है। निर्णय से निकलने वाले परिणाम से निर्णय प्रभावित नहीं होना चाहिए। सेन और अन्य दूसरे न्यायधीशों को यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अदालतें न्यायधीशों को निजी तौर पर प्रिय लगने वाले प्रशासकों और नेताओं के स्तुतिगान की जगहें नहीं हैं। राजनीति की हुल्लड़बाजी से हम अपनी अदालतों को जितना बचा पायेंगे हमारा लोकतंत्र उतना ही महफूज हो पायेगा।
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