5 जून को हर साल की तरह पर्यावरण दिवस का शोर उठा और कुछ कुछ घंटों या यूं कहें कि दिन बीतते यह लोगों के दूसरे कामों के आगे थमता चला गया। पर्यावरण दिवस पर अनुपम मिश्र यानि अनुपम जी की बात ना हों, यह कैसे संभव हो पाता! संयोग से अनुपम जी का जन्मदिन भी 5 जून को ही पड़ता है तो लोगों ने पर्यावरण दिवस के बहाने उन्हें अपने-अपने ‘अनुपम’ तरीकों से याद किया। किसी के पास उनकी छोटी यादें तो किसी के पास उनकी बड़ी यादें थीं। मेरे पास भी अनुपम जी को याद करने की बहुत सारी बातें हैं लेकिन अब जब शोर थम गया है तो मैं उनकी महासागर जैसे व्यक्तित्व को यादों के पिटारे से थोड़ा साबाहर निकाले की कोशिश कर रहा हूँ।
वर्ष 2003 में मैं जब पत्रकारिता शुरू कर रहा था तब मुझे संवेद और सबलोग के सम्पादक किशन कालजयी ने कुछ किताबें पढ़ने को दी, उनमें से एक किताब अनुपम जी की भी थी- आज भी खरे हैं तालाब। किताब खत्म करते-करते लगा कि ये आदमी तो कमाल के लेखक हैं और मजे की बात यह है कि इस किताब में उन्होंने उन सभी को क्रेडिट दिया जिन्होंने इस कालजयी किताब के लेखन में उनकी तिनके भर भी मदद की थी। मैंने इस किताब से दो बात सीखी- एक यह कि आप सरल ढंग से अपनी बात कहें और दूसरी अपने काम आने वाले हर छोटे-बड़े मदद करने वालों के प्रति ऋणी बने रहे। इस किताब के बाद राजस्थान की रजत बूंदें, महासागर से मिलने की शिक्षा और अन्यत्र छपे उनके लेख और इंटरव्यू खोज-खोज कर पढ़ डाले। मुझे लगा कि हिन्दी पट्टी में गद्य लेखन में इस आदमी का कोई सानी नहीं है। मैंने प्रण किया मुझे इस आदमी से जरूर मिलना है।
दैनिक जागरण में कुछ महीनों की नौकरी के बाद 2004 की जनवरी में मैं दिल्ली दोबारा आ गया और नौकरी ढूंढनी शुरू की। किसी सम्पादक ने मुझे नौकरी नहीं दी तो मैंने फ्रीलांसिंग करना तय किया। सहारा समय वीकली में काम मांगने के सिलसिले में मैं मनोहर नायक जी से मिला। उस समय लोकसभा का चुनाव होना था तो वहीं कार्यरत चंद्रभूषण जी ने मुझसे ‘चुनाव में पर्यावरण क्यों नहीं बनता मुद्दा?’, पर अनुपम मिश्र से बातचीत कर लेख तैयार करने को कहा। मैं अनुपम जी को सुबह फोन करता तो वे कहते कि कल मुझे 12 बजे फोन करना तो कभी कहते- भैया एक-दो दिन रूक जाओ ‘गांधी मार्ग’ प्रेस में भेज दूं तो बात करेंगे। यह सब करते-करते 10-15 दिन बीत गये लेकिन अनुपम जी से बातचीत नहीं हो पाई और मुझे लगने लगा कि वे मुझसे बातचीत नहीं करेंगे। लेकिन मैं उनको फोन करता रहा और वे कल, परसों में बात करने की कहते रहे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा- किसी नामी, गिरामी व्यक्ति से बुलवाओ, अखबार वालों को मेरी क्या जरूरत? मैंने कहा- अखबार वाले ने ही तो असाइन्मेंट दिया है। उन्होंने फिर कहा—भैया, कल दोपहर 12 बजे आ जाओ, साथ-साथ लंच करेंगे और बातचीत भी कर लेंगे और कोई काम की बात होगी तो छाप देना नहीं तो कूड़े के ढेर में डाल देना।
मैं दूसरे दिन उनके पास गांधी शांति प्रतिष्ठान के पर्यावरण कक्ष में नियत समय से कुछ समय पहले ही पहुंच गया। वे चिट्ठियों के जवाब लिख रहे थे। उनके पास एक नोटबुक थी जिसमें उन्होंने पूरे दिन में क्या-क्या काम निपटाने हैं और किनको कॉल करना है- सबकुछ उसमें दर्ज रहता। काम के प्रति इतनी ईमानदारी और इतनी तन्मयता उनमें तब थी जब उन्हें संस्थान से कुछ हजार की सैलरी (शायद 12 हजार रुपये प्रति महीना) और रहने को एक घर मिला हुआ था। मैंने उनसे बातचीत की और साथ में लंच किया और उसके बाद थोड़ी सी बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे कहा कि अब आप जाइए और जाते हुए एक बार फिर से कहा— काम की बात लगे तो छापना अन्यथा कूड़े में डाल देना। इसके बाद लगातार उनसे सम्पर्क में रहा और मैंने भी पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखना शुरू कर दिया। मैं उनसे वर्तमान समय में चल रहे पर्यावरण के मुद्दों को लेकर बातचीत करना जारी रखा। उनकी संगत में रहकर मेरी समझ और भाषा साफ होती गयी। एक बार मैंने उनसे पूछा- आप इतना सरल कैसे लिख लेते हैं? उनके हाथ में एक पेंसिल थी, दिखाते हुए कहा- इससे सीधी लकीर खींचनी कितना कठिन है? इसके बाद उन्होंने कहा- पीपल या बरगद का वृक्ष कितना विशाल होता है और उसका बीज कितना छोटा? उन्होंने कहा- चीजों को लेकर आपकी समझ जितनी साफ होगी, आप उतनी सहजता से अपनी बात कह पाएंगे। अन्यथा, पहले भाषा के जाल में आप खुद उलझेंगे और बाद में लोगों को उलझाएंगे।
वर्ष 2012 में मैंने तहलका में काम करने के दौरान सम्पादक संजय दुबे ने मुझसे पूछा कि अनुपम मिश्र को जानते हो? मैंने कहा- उन्हें कौन नहीं जानता है? इसके बाद संजय जी ने मुझसे कहा कि हमने अनुपम जी से लिखवाने के लिए एक कॉलम ‘रामबुहारू’ शुरू किया था पर उन्होंने एक-दो बार लिखा और फिर बंद कर दिया। संजय जी ने कहा- उनके बहुत पीछे पड़ना पड़ता था तो वह कॉलम बंद ही हो गया। मैं चाहता हूँ कि यह कॉलम फिर से शुरू हो। इसके बाद पाक्षिक पत्रिक तहलका के लिए अनुपम जी से बातचीत कर मैं वह कॉलम करता रहा। मैं आॅफिस से काम कर रात में नौ- दस बजे रात लौटता और उन्हें फोन करता कि आपका लेख चाहिए। वे कहते- अभी घर लौटे हो। खाना खा लो और थोड़ा आराम कर लो फिर फोन करना। यह सिलसिला लगभग पांच महीने तक चला। पत्रिका के प्रेस में जाने से एक-दो दिन पहले वे फोन पर रात में मुझे डिक्टेशन देते। डिक्टेशन पूरा होने के बाद कहते हैं- जितनी जरूरी लगे उतनी ही छापना, जो गैर-जरूरी लगे उसे बेझिझक काट देना। मैं पत्रिका की जरूरत के हिसाब से काट-छांट करता और कभी-कभी कुछ जोड़ भी देता। उन्होंने मुझे कभी इस बात के लिए नहीं टोका कि फलां शब्द क्यों हटा दिया या फलां वाक्य क्यों जोड़ दिया। एक बार मुझे फोन कर वे तहलका के दफ्तर मंजू जी और सोपान जोशी के साथ आए थे।

फोटो क्रेडिट : तहलका (तहलका के दफ़्तर में अनुपम मिश्र अपनी पत्नी मंजू जी के साथ)
तहलका में हालात कुछ ऐसे हो गये कि मुझे छह महीने में ही नौकरी बदलनी पड़ी। इस बारे में कभी और विस्तार से लिखूंगा। मेरे लिए अनुपम जी पत्रकारिता और पेशेवर दुनिया के अभिभावक थे इसलिए तहलका की नौकरी छोड़ने से पहले मैंने उनसे सारी बातें बताई। मेरे नौकरी छोड़ने के बाद तहलका के सम्पादक संजय दुबे ने अनुपम जी से लेख लिखने का कई बार आग्रह किया लेकिन वे हर बार जवाब में कहते- मेरे लिखने से क्या फर्क पड़ जाएगा? हां, आपके दफ्तर के शीशे कोई तोड़ने लग जाए तो मुझे बताना। मैं जरूर लिख दूंगा। इसके बाद शुक्रवार साप्तहिकी में काम करते हुए पत्रिका के सम्पादक विष्णु नागर जी ने भी अनुपम जी से लेख लिखवाने का जिम्मा मुझे कई मौकों पर दिया। उनसे मिलना, जुलना और उनसे बातचीत पर आधारित लेख लिखने का सिलसिला करीब एक युग तक चलता रहा।
मैं जब भी किसी परेशानी में फंसा हुआ महसूस करता तो उन्हें फोन कर लेता। उनसे मिलने चला जाता। एक बार इंडिया वॉटर पोर्टल के लिए काम करने के दौरान ऐसी ही एक परेशानी आ गयी थी। मैंने उन्हें अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने कहा कि कुछ लोग अपने बुरे वक्त में रोते हैं और जब उनका अच्छा वक्त आ जाता है तो वे दूसरों को रूलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। उन्होंने कहा कि पानी का काम आनंद का है और जब काम में से आनंद निकल जाए तो उस काम को छोड़ देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि भैया, ऐसे लोगों को माफ करते हुए आगे बढ़ जाना चाहिए। उन्होंने आज भी खरे हैं तालाब किताब में भी तो यही लिखा है- ‘अच्छा, अच्छा काम करते जाना।’

अनुपम जी के ऑफिस की एक तस्वीर, फोटो क्रेडिट : रुचि श्री
अनुपम जी सम्बन्धों की बहुत परवाह किया करते। कई बार काम की व्यस्तता में उन्हें 15-20 दिन बाद जब फोन करूं तो वे यही कहते- मैं आपको एक-दो दिन में फोन करने ही वाला था। मुझे लगता कि यह बात वे विनम्रतावश कहते हैं। मैंने भी एक बार सोचा कि इस बार मैं फोन नहीं करूंगा। 17वें या 18वें रोज उनका फोन आया कि भैया आप कहां हैं? मैं और मंजू ( अनुपम जी की पत्नी) आपके घर शब्द से मिलना आना चाह रहे हैं। मेरा बेटा शब्द तब शायद कोई तीन-चार साल का रहा होगा। वे घर आए और कुछ घंटे बैठे। उन्होंने हमारे मोहल्ले के अचार की एक दुकान से कई तरह के थोड़े-थोड़े आचार भी खरीदे थे। इसके बाद शब्द ने मुझसे कई बार आग्रह किया कि पापा मुझे अनुपम अंकल से मिलने जाना है। अनुपम जी पर्यावरण कक्ष में बेकार पड़ी कागजों से शब्द को नाव, जहाज और कागज की अन्य आकृतियां बनाकर देते। मुझे लगता कि मैं अनुपम जी का समय बर्बाद कर रहा हूँ। वे मेरे चेहरे का भाव पढ़ लेते और कहते- ‘बच्चों को बच्चों जैसे काम में ही आनंद मिलता है। उनके साथ भारी-भरकम भाव लेकर दोस्ती कैसे हो सकती है? बच्चों के पर्यावरण की दुनिया तो नयी-नयी चीजें सीखने से बनती है।’
वर्ष 2015 में मैं नौकरी के सिलसिले में जयपुर चला गया। फोन पर उनसे कुछ-कुछ अंतराल पर बातचीत हो जाती। एक दिन मैंने उनके घर पर फोन किया तो उनके बड़े भाई ने कहा कि अनुपम कुछ बीमार हैं फिर कभी कॉल कर लीजिएगा। मुझे लगा कि कोई मामूली बुखार होगा। एक सप्ताह बाद मुझे उनके साथ काम करने वाले प्रभात झा ने बताया कि उन्हें प्रोस्टेट कैंसर हो गया है। दुर्योग देखिए कि प्रभात ने हाल ही में बहुत छोटी उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया है। इसके बाद तीन-चार बार मैंने अनुपम जी को कॉल किया तो वे कहते कि भैया तुम जयपुर से महीने में एक-दो दिन के लिए आते हो परिवार को पूरा समय दो। मेरे स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है और मैं जल्द ही ठीक होकर आपलोगों से मिलूंगा। हालांकि, वह लम्हा हमारे जीवन में कभी नहीं आया।
2016 के दिसम्बर की एक सुबह मैं दिल्ली से जयपुर लौट रहा था तो बीच रास्ते में कहीं पत्रकार मित्र सारंग का फोन आया कि भैया, अनुपम जी नहीं रहे। मैं यह खबर सुनकर अवाक रह गया। सारंग मुझसे उनपर लेख लिखवाना चाहते थे। मैंने कहा कि एक तो मैं रास्ते में हूँ और मेरे पास लिखने के लिए कोई लैपटॉप या कागज, कलम भी नहीं है। फिर यह तय हुआ कि मैं कहीं ढाबे पर रूक जाउं और उनसे फोन पर बात कर लूं। अनुपम जी से सारी उम्र डिक्टेशन लेकर मैं लेख लिखता रहा और आज जब उनपर लिखने की बात आई तो मैं सारंग को आईबीएन 7 (नेटवर्क 18) के लिए डिक्टेशन दे रहा था। सारंग से बात करने के क्रम में मैं अनुपम जी को उनके घर के बाहर झाड़ू लगाते हुए देख रहा था तो कभी उनके घर जाने पर खुद से आम पना बनाते हुए देख रहा था। मेरे आंख झर रहे थे और मैं उसे महासागर से मिलने की शिक्षा का एक-एक पाठ स्मरण कर सुनाता रहा। अब अनुपम जी नहीं हैं लेकिन उस महासागर से मिलने की शिक्षा आज भी पल-पल मिलती रहती हैं। वे सचमुच हमारे समय के अनुपम व्यक्ति थे।
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स्वतंत्र मिश्र
लेखक पत्रकार हैं और ‘फिशमैन’ के नाम से मशहूर हैं। सम्पर्क +919873091977,15.swatantra@gmail.com

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