- संजय रोकड़े
सत्ता का सुख बड़ा ही बेहूदा होता है। इसका लालच भी हद दर्जे का होता है। जब सत्ता का सुख अपने हाथ से जाते दिखे तो तमाम ढोंग रचने पड़ते है। याने इसको बचाने के लिए साम-दाम-दंड भेद के साथ ही प्रेशर पोलिटिक्स भी करना पड़ता है। वैसे भी अब राजनीति में सुचिता, आत्म सम्मान का क्या काम। गर राजनेता इन बातों पर अमल कर ले तो फिर क्यों किसी को-
सुमित्रा के इस कदम के बारे में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने साफ कहा कि ताई ने भले ही लोकसभा चुनाव नहीं लडऩे का एलान किया लेकिन पार्टी उन्हें ही टिकट देगी और वे पहले से ज्यादा वोटों से चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बनाएंगी। इधर कांग्रेस ने भी सुमित्रा के इस कदम का जम कर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की। कांग्रेस के एक मीडिया समन्वयक ने कहा कि ताई ने खुद को प्रत्याशी मानकर बहुत पहले से चुनाव प्रचार शुरू कर दिया था, लेकिन भाजपा उन्हें योग्य नहीं मान रही है। एक सांसद को राजनीतिक सम्मान बरकरार रखने के लिए पत्र लिखकर अपना दुख जनता तक पहुँचाना पड़ रहा है। भाजपा ने इनका अपमान किया है। कांग्रेस की सहानुभूति उनके साथ है। बहरहाल ये अवसर ही कुछ ऐसा है जो हर कोई इसे भुनाने का प्रयास करेगा। फिर चाहे गैर हो या अपना। असल सवाल तो यह है कि आखिर क्यों किसी बड़े नेता ने सम्मानजनक तरीके से जाँच करना उचित नही समझा या फिर सुमित्रा की हठधर्मिता ही उनकी राजनीतिक साख पर भारी पड़ गई। जिस तरह उम्र के फेर में दूसरे उम्रदराज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया गया ठीक उसी तरह से सुमित्रा को भी दिखाना ही था लेकिन ये सब ड्रामेबाजी क्यों। कुछ भी हो पर मुझे लगता है कि पार्टी की इस वयोवृद्ध महिला नेत्री की विदाई दूसरे अंदाज में भी की जा सकती थी। हालांकि यहाँ सुमित्रा की व्यक्तिगत महत्वकांक्षा भी उतनी ही जिम्मेदार मानी जा सकती है। अच्छा होता कि 2019 के चुनाव परिणाम के बाद अगर मन में कोई दबी इच्छा होती तो उसे पूरा कर दिया जाता। जैसा हम अक्सर क्रिकेटरों के मामले में देखते है। वह पहले ही घोषणा कर देते है कि विश्व कप या सीरीज के बाद वह संन्यास लेने जा रहे हैं। उनके समर्थकों में भी एक सहानुभूति बनती है। अखबारों में भी लंबे-लंबे महानता के लेख लिखे जाते पर सुमित्रा के मामले में यहाँ चूक हुई है। खैर| पार्टी के उम्रदराज नेताओं व आमजन को यह भान रहना चाहिए कि अब पार्टी में सत्ता अंहकारी पीढ़ी के हाथों में आ चुकी है। यह सत्ता के संक्रमण के इस दौर की शुरूआत है जब पार्टी या गठजोड़ की सियासत एक व्यक्ति विशेष के सामने बौनी साबित होती जा रही है। सच तो यही है कि बहुत जल्दी नरेन्द्र मोदी ने अपना कद इतना बढ़ा लिया या बढ़ गया कि कोई खिलाफत की सोच भी नही सकता है। अब वे पार्टी में ही नही बल्कि कथित तौर पर देश के सर्वमान्य नेता बन गए है। बहरहाल अच्छा तो तब होता जब चिठ्ठी का यह खेल सुमित्रा चुनावी घोषणा के आसपास या पार्टी की लिस्ट जारी होने से पहले राजनीतिक संन्यास लेने की घोषणा करके खेलती। गर ऐसा करती तो इतनी तकलीफदेह रवानगी न झेलनी पड़ती। असल में यह कटु सत्य है कि दिग्गज किसी भी क्षेत्र का हो एक न एक दिन उसे अपने हथियार ड़ाल कर पवैलियन लौटना ही पड़ता है। पर इस समीकरण को बिठाने में पार्टी की ये बुजुर्ग नेता चूक कर गईं। हालांकि टिकट मोह में सुमित्रा कुछ बड़ा विद्रोही कदम भी उठा सकती थीं लेकिन वह ये नही चाहती थीं कि जिस पार्टी को लंबे समय तक अपने खून पसीने से सींचा, आगे बढ़ाया उसके खिलाफ जाकर वह अपनी मेहनत को इतिहासकारों की नजर में कम अंकवाती। वह शायद यही चाहती थी कि भाजपा के साथ उनका नाम हमेशा जोड़ा जाए और इतिहास में वह अपनी ही पार्टी के खिलाफ मुंह खोलने वाली नेत्री के तौर पर बदनाम न हों। दरअसल, सच्चाई तो यही है कि आज की तरह ही सुमित्रा ने भी कभी हठधर्मिता और अंधा बांटे रेवड़ी अपनों-अपनों को दे कि सियासत की शुरूआत की थी। यह बात अलग है कि आज न चाहते हुए भी कुछ लोगों के दिलों में उनके प्रति सहानुभूति की लहर पैदा हो गई है। जैसा कि अक्सर होता भी है। मैं इस मौके पर एक बात यह भी कहना जरूरी समझता हूं कि कांग्रेस व दूसरे दलों को सुमित्रा के मुद्दे पर सियासत करने से बचना चाहिए। किसी भी प्रकार की टीका-टीप्पणी करने से पहले अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए। यहाँ भी ऐसे अनेक हादसे भरे पड़े मिलेगें। जाते-जाते इतना भर की इस घड़ी में ईश्वर सुमित्रा को मान-अपमान झेलने की शक्ति प्रदान करे और भविष्य में भाजपा बहुमत लेकर केन्द्र आए तो पार्टी उनकी बची-खुची महत्वकांक्षा को भी पूरी करें।
लेखक पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिय़ा रिलेशन का संपादन करते है और सम-सामयिक मुद्दों पर कलम भी चलाते है।
सम्पर्क- +919827277518, mediarelation1@gmail.com .
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