धर्म और राजनीति का घालमेल – तीन
पिछला भाग – धर्म और राजनीति का घालमेल – दो
कैसे रुके वर्चस्व का खेल?
राजनीति, इहलोक का विषय है और धर्म, परलोक का। कह सकते हैं कि दोनो में घालमेल ठीक नहीं; फिर भी यह हमेशा से होता रहा है।
क्यों?
क्योंकि इस घालमेल का एक ही मकसद रहा है – वर्चस्व, वर्चस्व और वर्चस्व। धर्म के वर्चस्व के लिए राजनीति का इस्तेमाल, राजनैतिक वर्चस्व के लिए, धर्म का इस्तेमाल। इतिहास गवाह है कि कोई धर्म, कोई संप्रदाय, कोई जाति.. सिर्फ श्रेष्ठता के आधार पर इस दुनिया में वर्चस्व हासिल नहीं कर सके। वर्चस्व के इस खेल में ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह को एक रोमन सामंत ने सूली पर चढ़ा दिया। प्रोस्टेटों से असुरक्षा का बोध होते ही कैथोलिक कट्टरता पर उतर आये। तुर्की साम्राज्य ने अपने आतंक से ग्रीक आर्थोडॉक्स चर्च को भगाया। आयरलैंड में प्रोस्टेट और कैथोलिकों के बीच हिंसात्मक द्वंद होते 300 से अधिक वर्ष हो चुके। ईरान-इराक में शिया-सुन्नी फिरकों को लेकर दस साला युद्ध चला ही। इजरायल में यहुदियों के साथ, यूरोपियों के अपराध याद कीजिए। अग्नि पूजक पारसियों को देश से बाहर निकालकर ही इस्लाम, ईरान पर वर्चस्व हासिल कर सका। इंडोनेशिया, मलेशिया, भारत आदि दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में अपना वर्चस्व जमाने के लिए भी इस्लाम ने यही किया। यह बात और है कि एक दौर के राजनैतिक वर्चस्व के बावजूद, इस्लाम, भारत में एक अल्पसंख्यक संप्रदाय बना हुआ है।
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इलेक्ट्रॉनिक्स माध्यमों के प्रभाव में जब परम्परागत इस्लामी जीवन प्रणाली ध्वस्त होने लगी, तो आयतुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में ईरान एक ऐसी इस्लामी क्रान्ति के रंग में रंगा कि दुनिया की तमाम इस्लामी आबादी को कट्टरता की चपेट में ले लिया। भारत में इस्लाम के प्रवेश से पूर्व, शैव, वैष्णव, शाक्तों भीषण और हिंसात्मक संघर्ष हुए। लिंगायत कहे जाने वाले दक्षिण के शैवों के विरुद्ध 150-200 साल अभियान चला। हिदुओं और बौद्धों में एक समय इतना युद्ध रहा कि एक समय भारत से बौद्ध धर्म का देश निकाला ही हो गया था। जैनियों ने तो एक वक्त गुफाओं और निर्जन प्रदेशों में रहकर अपना अस्तित्व बचाया।
वर्चस्व के लिए धर्म-सम्प्रदायों का यह इस्तेमाल कब बन्द हो सकता है? जब धर्म-सम्प्रदायों के बीच अपना वर्चस्व सिद्ध करने की होड़ खत्म हो; जब एक राजनीतिज्ञ दल व व्यक्तियों को दूसरे राजनीतिज्ञ दल व व्यक्तियों पर वर्चस्व करने की जरूरत ही न महसूस हो। किन्तु यह तब तक नहीं हो सकता; जब तक कि धर्म प्रमुखों के लिए धर्म, और राजनीतिज्ञों के लिए राजनीति, सत्ता का विषय है।
कहना न होगा कि जब तक धर्म प्रमुखों के पद, उनसे जुङा पैसा व सम्पत्ति.. आकर्षण के बिन्दु बने रहेंगे, धर्म प्रमुखों के लिए धर्म, सत्ता का विषय बना रहेगा। जब तक सामाजिक और संवैधानिक रूप से सभी धर्मों का बराबर सम्मान स्वीकार लिया नहीं जाता, दो धर्मों के बीच वर्चस्व का द्वंद कभी खत्म नहीं होगा।
जहाँ तक राजनीति का सवाल है, गौर कीजिए कि राजनीति का मतलब होता है, राज करने की नीति। नीति और नीयत राज करने की हो, तो सत्ता भी होगी और उसके वर्चस्व के लिए संघर्ष भी; और मजहबी इस्तेमाल भी। एक राजा होगा, तो दूसरे प्रजा; कोई शासक होगा, तो कोई शासित। इस स्थिति को खत्म करने के लिए ही तो आज़ादी की इतनी लम्बी जंग हुई, किन्तु क्या आज़ाद भारत से शासक और शासित का भाव गया?
कहने को भारत, आज एक लोकतन्त्र है। राजा-प्रजा, राजतन्त्र के विषय हैं। स्पष्ट है कि लोकतन्त्र में राज, राजनेता और सत्ता जैसे शब्दों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। क्या हमने इन शब्दों को निकाल फेंका? नहीं, जनता अपने जनप्रतिनिधियों को आज भी राजनेता ही कहती है।
ऐसे में वर्चस्व के उनके खेल को राजनीति कहना ही पङेगा। जैसा सम्बोधन, वैसा व्यवहार। ये लोकतन्त्र के प्रतिकूल शब्द हैं; प्रतिकूल व्यवहार। लोकतन्त्र का मतलब होता है, राज की जगह-लोक, राजनीति की जगह-लोकनीति, राजनेता की जगह-लोकप्रतिनिधि और सत्ता की जगह-व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिए लोकप्रतिनिधि सभायें। जरूरी है कि जनता स्वयं अपने सम्बोधन.. शब्दावली से लेकर विचार और व्यवहार को लोकतन्त्र की परिभाषा के अनुकूल करें। राज, राजनेता, राजनीति और सत्ता – इन चार शब्दों की पुकार और व्यवहार बन्द कर दें।
क्या बिना दल की कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने से इसमें मदद मिल सकती है?
विचार करें। जब राजनीति ही नहीं होगी, तो धर्म प्रमुखों द्वारा इसका इस्तेमाल भी नहीं होगा। यदि लोकनीति और लोकप्रतिनिधि सभाओं को धर्म के इस्तेमाल की कभी जरूरत हुई भी, तो तय मानिए वह साम्प्रदायिक व सत्तात्मक होने की बजाय, सकारात्मक ही होगी। जिस दिन दुनिया, इस मंतव्य के अनुकूल परिस्थिति निर्मित कर सकी, तय मानिए कि धर्म और राजनीति का घालमेल पूरी तरह खत्म न भी हुआ, तो एक-दूसरे के साथ मिलकर वर्चस्व का खेल खेलने का मंतव्य, मंद अवश्य पड़ जायेगा।
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