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भारत के प्रथम वैश्विक नेता मानवेन्द्र नाथ रॉय
आजाद भारत के असली सितारे-31
मानवेन्द्र नाथ रॉय (21.3.1887- 25.1.1954) भारत के पहले वैश्विक नेता तो हैं ही, वे भारत के पहले साम्यवादी भी हैं। अवनी मुखर्जी और मोहम्मद अली जैसे नेताओं के साथ मिलकर उन्होंने ताशकंद में 1920 में ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखी थी। वे सोवियत संघ के बाहर मैक्सिको में भी पहली कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक थे। उन्हें दुनिया एमएन रॉय के नाम से जानती है। उनकी जीवन-यात्रा और वैचारिक-यात्रा हैरान कर देने वाली विविधताओं से भरी है। प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ होने के साथ ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। जमानत मिलने पर वे फरार होकर मैक्सिको चले गये और वहाँ सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। वे मैक्सिको के प्रथम राष्ट्रपति के गैर आधिकारिक सलाहकार थे। लेनिन को उनके बारे में पता चला तो उन्होंने सोवियत संघ में उन्हें आमंत्रित किया। जब एमएन रॉय रूस पहुँचे तो लेनिन यह देखकर हैरान रह गये कि साम्यवाद की इतनी गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति महज 30 साल का है। लेनिन ने उन्हें पूरब में भावी लाल क्रान्ति का जनक बताया था। दशकों तक वे लेनिन के निकट सहयोगी रहे। वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की काँग्रेस के प्रतिनिधिमण्डल में भी शामिल थे।
एमएन रॉय उन चंद लोगों में से थे जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी और रूस की संधि के जल्द ही टूटने की घोषणा कर दी थी जो बाद में सही साबित हुई। एमएन रॉय ने यह भी कहा था कि आने वाले समय में दुनिया के मुल्क सोवियत संघ और अमेरिका के बीच झूलते नज़र आयेंगे। उन्हें शीत युद्ध का पहले ही आभास हो गया था।
इस तरह एमएन रॉय आधुनिक भारत के असाधारण प्रतिभाशाली राजनीति-विचारक और क्रान्तिकारी थे। विश्व भर में साम्यवाद के शैशव और उभार से उनका सीधा रिश्ता था। एमएन रॉय महान दार्शनिक, चिन्तक, लेखक और नव- मानववाद के सिद्धान्तकार थे।
एमएन रॉय का जन्म पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के अरबेलिया नामक गाँव में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य था और उनके पिता नाम था दीनबन्धु भट्टाचार्य। उनके पिता एक स्कूल में अध्यापक थे। नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य प्रारम्भ से ही क्रान्तिकारी विचारों के थे। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के दौरान ही वे ‘श्रीमद्भगवद्गीता’, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का ‘आनन्दमठ’, अरविन्द घोष का ‘भवानी मन्दिर’ जैसी पुस्तकों का अध्ययन कर चुके थे। उनके जीवन पर स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, विपिनचन्द्र पाल, विनायक दामोदर सावरकर और स्वामी दयानन्द सरस्वती का भी गहरा प्रभाव पड़ा। वे मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने से पहले ही क्रान्तिकारी आन्दोलन में कूद पड़े। 1905 में बंग-भंग के विरुद्ध होने वाले आन्दोलन में भी उन्होंने बढ़ -चढ़ कर हिस्सा लिया था।
उन दिनों यतीन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन) सशस्त्र क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतन्त्र कराने के लिए कृत संकल्प थे। नरेन्द्रनाथ भी उनके सहयोगी हो गये। 1907 में वे पहली बार कलकत्ता में राजनैतिक डकैती के अपराध में पकड़े गये और उन्हें जेल की सजा हुई। यहीं से उनका संघर्षमय जीवन शुरू हुआ और यतीन्द्रनाथ मुखर्जी का साथ देने के आरोप में उन्हें जेल जाना पड़ा। वे 1910 से 1915 तक जेल में रहे। 1915 में जेल से छूटने के बाद एक क्रान्तिकारी कार्यक्रम की योजना बनाई गयी और उसके लिए ‘युगान्तर पार्टी’ नाम से एक क्रान्तिकारी संगठन बनाया गया। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नरेन्द्रनाथ को सर्वप्रथम विदेश भेजा गया। वे 1915 में चार्ल्स ए. मार्टिन के छद्म नाम से जावा पहुँचे।
यहाँ पर अपने उद्देश्य में असफल रहने के बाद वे फादर मार्टिन के नाम से पेरिस रवाना हो गये। इसी दौरान भारत में उनके परम मित्र क्रान्तिकारी यतीन्द्रनाथ मुखर्जी की पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गयी और अन्य क्रान्तिकारियों को जेल में डाल दिया गया। यह समाचार पाने के बाद एमएन रॉय ने भारत लौटने का विचार त्याग दिया और वे 1916 में अमेरिका पहुँचे। वहाँ पर अपनी संभावित गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने अपना नाम मानवेन्द्रनाथ रॉय रख लिया। कुछ समय उन्होंने न्यूयार्क पब्लिक पुस्तकालय में मार्क्स के विचारों का अध्ययन किया। यहीं पर उनकी भेंट ब्रिटेन के साम्यवादी नेताओं से हुई। यहीं उनकी मुलाकात प्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला लाजपत राय और रजनी पाम दत्त से भी हुई। इन्हीं दिनों उन्होंने मैक्सिको में मैक्सिन साम्यवादी दल की स्थापना की। अमेरिका में उनकी भेंट अमेरिकी लड़की मिस ऐपलिन हैन्ट से हुई और उन्होंने 1916 में उनसे विवाह कर लिया। 1926 में उनका विवाह-विच्छेद हो भी गया। इसके बाद उन्होंने मिस ऐलेन गोड्सचाक से दूसरा विवाह किया जो आजीवन चला।
मार्क्सवादी सिद्धान्तों का अध्ययन करके एमएन रॉय अमेरिका से सोवियत संघ चले गये। वहाँ पर उन्होंने कॉमरेड लेनिन के साथ रहकर मार्क्सवाद के व्यावहारिक रूप को निकट से देखा। वे वहाँ पर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से जुड़े और गहरे प्रभावित हुए। उन्हें थर्ड इंटरनेशनल में आमंत्रित किया गया और उन्हें अध्यक्ष मण्डल में स्थान दिया गया। उन्होंने ताशकन्द में प्रथम ‘भारतीय साम्यवादी दल’ की स्थापना 1920 में की और उनकी आस्था मार्क्सवाद में बढ़ती गयी। 1922 में उन्हें मध्य एशिया में साम्यवादी दल की नीतियों का प्रसार करने के लिए बनाई गयी ‘सेन्ट्रल एशियाटिक ब्यूरो’ का सदस्य बनाया गया और वे साम्यवादी कार्यक्रम को प्रसारित करने में जुट गये। 1921 से 1928 के बीच उन्होंने ‘वेंगार्ड ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस’ तथा ‘मासेज’ जैसे पत्रों का सम्पादन किया। 1927 ई. में चीनी क्रान्ति के समय उन्हें चीन भेजा गया किन्तु उनके स्वतन्त्र विचारों से चीनी नेता सहमत न हो सके और मतभेद उत्पन्न हो गया। वैचारिक मतभेद के कारण सोवियत नेता भी इनसे नाराज हो गये फलत: उन्हें स्तालिन के राजनीतिक कोप का शिकार बनना पड़ा। जर्मनी में उन्हें विष देने की चेष्टा भी हुई पर सौभाग्य से वे बच गये।
वास्तव में चीन और सोवियत संघ के अनुभवों से धीरे-धीरे मार्क्सवाद के प्रति उनकी आस्था घटने लगी थी। उन्हें लगा कि मार्क्सवाद में व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए कोई जगह नहीं है। कुछ दिन बाद लेनिन से भी उनके मतभेद हो गये और अंतत: उन्हें 1928 में सोवियत संघ छोड़ना पड़ा। इधर देश में उनकी क्रान्तिकारी गतिविधि के कारण उनकी अनुपस्थिति में ही कानपुर षड्यंत्र केश में मुकदमा चलाया गया। ब्रिटिश सरकार के गुप्तचरों की उनपर कड़ी नजर थी। फिर भी 14 वर्ष के लम्बे विदेशी प्रवास के बाद 1930 में डॉ. महमूद के नाम से वे बम्बई लौटने में सफल हो गये। 1930 में भारत लौटने के बाद उन्होंने मार्क्सवाद पर तरह-तरह के आपेक्ष किए। उन्होंने आरोप लगाया किया कि मार्क्सवाद मानवीय स्वतन्त्रता का शोषक है। यह राज्य को साध्य और व्यक्ति को साधन मानकर व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात करता है। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक दर्शन को उन्होंने मानव-प्रगति में बाधक बताया। उन्होंने वर्ग-संघर्ष तथा इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या को भी गलत बताया। इस दौरान उनकी दूसरी पत्नी मिस ऐलेन गोड्सचाक भी उनके साथ भारत आ गयीं थीं। ऐलेन ने जीवन पर्यन्त रॉय का साथ निभाया। वह समस्त राजनीतिक गतिविधियों में उनका पूरा साथ देने लगीं।
भारत आने के बाद 1931 में पं. जवाहरलाल नेहरू के आमन्त्रण पर एमएन रॉय काँग्रेस के कराँची अधिवेशन में गुप्त रूप से शामिल हुए। वहाँ पुलिस ने उन्हें पहचान लिया। उन्हें 11 साल की सज़ा हुई जिसे बाद में घटाकर सात साल कर दिया गया। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने भी ब्रिटिश सरकार से उनकी रिहाई की अपील की थी। आइंस्टीन उनके लेख ‘फिलॉसफी ऑफ़ मॉडर्न साइंस’ से बेहद प्रभावित थे।
रिहाई के बाद एमएन रॉय काँग्रेस में शामिल हो गये। उन्होंने गाँधी टोपी पहनी और चरखा कातने लगे। पर गाँधी का प्रभाव उनपर ज़्यादा दिनों तक नहीं रहा। वे महात्मा गाँधी के व्यक्तिगत गुणों और नेतृत्व की क्षमता के प्रशंसक तो थे किन्तु शीघ्र ही गाँधीवाद पर से उनका विश्वास उठने लगा। उनके अनुसार गाँधीवाद देश को पीछे ले जाने वाला था। उन्होंने महात्मा गाँधी की राजनीतिक गतिविधियों को ढोंग कहना शुरू कर दिया। उनकी दृष्टि में गाँधीवाद को जनता के साँस्कृतिक पिछड़ेपन के कारण सम्मान मिला था। वे मानते थे कि महात्मा गाँधी के नेतृत्व ने अनजाने में जनसाधारण की तर्कसम्मत क्रान्ति की आग को ठंडा करने की भूमिका निभाई।
इसी दौरान उन्होंने बम्बई से ‘इंडिपेन्डेंट इंडिया’ नामक समाचार पत्र निकाला और इसके माध्यम से भारत की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष शुरू कर दिया। 1939 में गाँधी जी की नीतियों से दु:खी होकर उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के भीतर ही एक ‘लीग ऑफ रेडिकल काँग्रेसमेन’ की स्थापना की। 1940 में उन्होंने अपने समर्थकों सहित काँग्रेस छोड़ दी और एक नये दल ‘रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी’ की स्थापना की। इस तरह उनके मन में मार्क्सवाद और काँग्रेस के प्रति जो लगाव था, वह धीरे-धीरे कम होता गया और अन्त में वे एक ‘रेडिकल डेमोक्रेट’ बन गये किन्तु इन सबके बावजूद हमेशा उनकी सहानुभूति सर्वहारा वर्ग के साथ बनी रही।
द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के समय एमएन रॉय ने काँग्रेस की युद्ध में शामिल न होने की नीति का विरोध किया और कहा कि भारतीयों को इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ देना चाहिए ताकि विश्व में लोकतन्त्र विरोधी ताकतों को आगे बढ़ने से रोका जा सके। उनके इस विचार का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और उन्हें भारत विरोधी कहा जाने लगा। इसके कारण उन्हें काफी उलझन भी हुई।
1944 में एमएन रॉय ने ‘भारतीय मजदूर संघ’ की स्थापना की ताकि देश के मजदूरों को संगठित किया जा सके। 1946 में उनकी विचारधारा में फिर से नया मोड़ आया और उन्होंने अपने दल ‘रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी’ को भंग कर दिया। अब वे अपने नये दर्शन को स्थापित करने में जुट गये जिसे आगे चलकर नव-मानवतावाद कहा गया। अपने नये दर्शन में एमएन रॉय ने एक ऐसे समाजवाद की अवधारणा पेश की जिसमें व्यक्ति की समानता व स्वतन्त्रता की रक्षा का प्रस्ताव था। उन्होंने दल विहीन प्रजातन्त्र की स्थापना के बारे में सोचना शुरू कर दिया और अपना बाकी जीवन ‘भारतीय नव-जागरण संस्था’ की सेवा में अर्पित कर दिया। वे अपने अन्तिम दिनों में सक्रिय राजनीति से अवकाश ग्रहण करके देहरादून में रहने लगे और वहीं 25 जनवरी, 1954 को उनका निधन हुआ।
इस तरह एमएन रॉय की भौतिक-यात्रा और राजनीतिक-यात्रा, दोनो ही अनेक उतार-चढ़ावों से परिपूर्ण है। अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में वे एक क्रान्तिकारी स्वभाव के थे परन्तु अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव में एक उदारवादी विचारक बन गये। उनके विचारों के प्रारम्भिक और अन्तिम चरण के बीच गहरी व चौड़ी खाई है।
जीवन के अन्तिम चरण में उन्होंने सोवियत संघ और चीन के साम्यवाद की अच्छी बातों से शिक्षा ग्रहण करके और उसमें गाँधी की उदारवादी विचारधारा को जोड़कर जिस मौलिक या नव -मानवतावाद (रेडिकल ह्युमनिज्म) को स्थापित किया उसपर आज भी गौर करने की जरूरत है। नव-मानवतावाद को लेकर निश्चित रूप से एमएन रॉय की विचारधारा लगातार बदलती रही। किन्तु, यही एक ईमानदार, जीवन्त, संघर्षशील और अध्ययनशील व्यक्ति की पहचान है। उल्लेखनीय है कि विचारधारा के परिवर्तन के इस पूरे दौर में हमेशा उनका चिन्तन स्वतन्त्रता के पक्ष में रहा, चाहे वह मानवीय स्वतन्त्रता हो या राष्ट्रीय। नव-मानववाद के रूप में उनके जीवन के अन्तिम दिनों का चिन्तन हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है।
उन्होंने सोवियत संघ और चीन जैसे साम्यवादी देशों में, जहाँ मार्क्सवाद पर आधारित शासन प्रणाली का विकास हुआ, उसका हिस्सा बनकर उन्होंने उसका प्रत्यक्ष अध्ययन किया और अपना निष्कर्ष निकाला। उन्होंने स्वीकार किया कि इस व्यवस्था में व्यक्ति, राज्य की प्रगति का साधन मात्र माना जाता है और इस प्रकार व्यक्ति की निजी स्वतन्त्रता गौण बन जाती है। जबकि एमएन रॉय की दृष्टि में सामाजिक तथा राजनीतिक दर्शन का केन्द्र व्यक्ति है। वे सदैव उन अधिनायकवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे जो मनुष्य को उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित करती है। परन्तु व्यक्ति की स्वतन्त्रता को भी वे असीमित न मानकर उसे सामाजिक हित द्वारा मर्यादित मानते हैं। समाज में रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वतन्त्रता के साथ-साथ दूसरों की स्वतन्त्रता का भी सम्मान करना होगा।
एमएन रॉय मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीयतावाद के भी प्रबल समर्थक हैं। रॉय के दर्शन में भौतिकवाद, निरीश्वरवाद, व्यक्ति की स्वतन्त्रता, लोकतन्त्र, अंतरराष्ट्रीयता और मानवतावाद का विशेष महत्त्व है। उनका विचार है कि वर्तमान युग में मानव समाज के समक्ष सबसे बड़ी समस्या विभिन्न राष्ट्रों के नागरिकों में संकुचित राष्ट्रीयता की तीव्र भावना है, जो उन्हें सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए सोचने तथा प्रयास करने से रोकती है। प्रत्येक देश के नेता दूसरे देशों के हित की चिन्ता किए बगैर केवल अपने देश की प्रगति के लिए ही प्रयास करते हैं, जो गलत है। आज विश्व में जो संघर्ष, निर्धनता, बेरोजगारी तथा पारस्परिक अविश्वास है, उसका मुख्य कारण यह संकुचित राष्ट्रीयता की भावना ही है। विश्व में एकता और शान्ति तभी स्थापित हो सकती है, जब हम केवल अपने देश के हित की दृष्टि से नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण की दृष्टि से सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समस्याओं पर विचार करें। वे मानते हैं कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में संकुचित राष्ट्रवाद के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि इसके अनुसार आचरण करना अंतत: मानव जाति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
उन्होंने अपने दर्शन को ‘नव मानवतावाद’ अथवा ‘वैज्ञानिक मानवतावाद’ इसलिए कहा क्योंकि वह मनुष्य के स्वरूप तथा विकास के सम्बन्ध में विज्ञान द्वारा उपलब्ध नवीन ज्ञान पर आधारित है।
एमएन रॉय के इस विज्ञानसम्मत नव मानवतावाद में ईश्वर अथवा किसी अन्य दैवी शक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। मनुष्य के लिए यह समझ लेना बहुत आवश्यक है कि वह स्वयं ही अपने सुख-दु:ख के लिए उत्तरदायी है और वही अपने भाग्य का निर्माता है। इस संसार में मनुष्य के जीवन की कहानी उसके शरीर के साथ ही समाप्त हो जाती है, अत: मोक्ष की परम्परागत अवधारणा मिथ्या एवं भ्रामक है।
नास्तिक होते हुए भी एमएन रॉय व्यक्ति तथा समाज के लिए नैतिक मूल्यों का महत्व स्वीकार करते हैं, किन्तु उनके अनुसार नैतिकता का स्रोत ईश्वर अथवा कोई अन्य इंद्रियातीत सत्ता नहीं है। सच्ची नैतिकता अंत:प्रेरित होती है और बौद्धिक प्राणी होने के कारण मनुष्य किसी तथाकथित दैवी शक्ति का आधार लिए बिना स्वयं अपने जीवन में ऐसी नैतिकता का विकास कर सकता है। वे मार्क्सवादियों के इस मत को भी स्वीकार नहीं करते कि सामाजिक तथा राजनीतिक क्रान्ति के लिए सत्य, ईमानदारी, निष्ठा आदि सद्गुणों का परित्याग किया जा सकता है। उनके अनुसार मनुष्य की स्वतन्त्रता सर्वोच्च मूल्य है और यह स्वतन्त्रता ही समस्त मूल्यों का स्रोत है। स्वतन्त्रता के पश्चात् ज्ञान तथा सत्य का स्थान है और ये दोनों भी मनुष्य के नैतिक जीवन के लिए आवश्यक हैं। असत्य, छल, कपट आदि अनैतिक उपायों के द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की जा सकती।
मानवेन्द्र नाथ रॉय ने 1922 में लिखना शुरू किया था। लगातार दुनिया भर की यात्राएँ करते हुए तथा राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए भी उन्होंने जो लेखन किया है उसे देखकर आश्चर्य होता है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-
‘इण्डिया इन ट्रान्जिशन’, ‘इण्डियाज प्रॉब्लम्स एण्ड देयर सॉल्यूशन’, ‘वन इयर ऑफ नॉन-को-ऑपरेशन’, ‘दि फ्यूचर ऑफ इण्डियन पॉलिटिक्स, ‘मैटीरियलिज्म’, ‘रीजन, रोमांटिसिज्म एण्ड रिवोल्यूशन’, ‘न्यू ओरिएंटेशन’, ‘आवर प्राब्लम्स’, ‘बियाण्ड कम्युनिज्म टू ह्यूमेनिज्म’, ‘रैडिकल ह्यूमनिस्ट’, ‘दी वे टु ड्यूरेबल पीस, ‘न्यू ह्यूमेनिज्म एण्ड पॉलिटिक्स’, ‘दि कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ फ्री इण्डिया’, ‘दि प्रॉब्लम्स ऑफ फ्रीडम’, ‘नेशनलिज्म एण्ड डेमोक्रेसी’, ‘प्लानिंग इन न्यू इण्डिया’, ‘नेशनल गवर्नमेंट एण्ड पीपुल्स गवर्नमेंट’, ‘दि हिस्टॉरिकल रोल ऑफ इस्लाम’, ‘माई एक्सपीरियन्सेज इन चायना’, ‘प्लेंटी एण्ड पॉवर्टी’, ‘पॉलिटिक्स, पॉवर एण्ड पार्टीज’, ‘रिवोल्यूशन एण्ड काउंटर रिवोल्यूशन इन चाइना’।
इस प्रकार मानवेन्द्रनाथ रॉय ने देश- विदेश की राजनीतिक घटनाओं पर अनेक लेख व पुस्तकें लिखीं, जिनमें तत्कालीन राजनीति का विस्तृत विश्लेषण है। एक भारतीय राजनीतिक विचारक होने के साथ-साथ उन्हें पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में भी सम्मानजनक स्थान प्राप्त है।
ऐसा माना जाता है कि भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने में एमएन रॉय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अमेरिकी इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्टिन के मुताबिक़ भारतीय संविधान में जो समाजवाद को महत्व मिला है, वह एमएन रॉय की देन है।
जन्मदिन के अवसर पर हम मानवेन्द्र नाथ रॉय के चमत्कृत करने वाले व्यक्तित्व का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
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