मैं इरफ़ान : जाने ऊँट किस करवट बैठेगा
- कुसुम लता
“हेलो भाइयों बहनों नमस्कार, मैं इरफ़ान मैं आज आपके साथ हूँ भी और नहीं भी, खैर…… मेरे शरीर के अन्दर कुछ अनवांटेड मेहमान बैठे हुए हैं उनसे वार्तालाप चल रहा है। देखते हैं किस करवट ऊँट बैठता है? जैसा भी होगा आपको इत्तला कर दी जाएगी….” सोशल मीडिया पर ये शब्द हिन्दी सिनेमा के एक बेहतरीन अभिनेता इरफ़ान खान के हैं। इरफ़ान के कहे अनुसार 29 अप्रैल, बुधवार की सुबह मीडिया के विभिन्न माध्यमों से यह इत्तला कर दी गयी कि ऊँट सही करवट नहीं बैठा है। इरफ़ान के अनवांटेड मेहमानों के साथ चल रहा संवाद हमेशा-हमेशा के लिए मौन हो गया है। इरफ़ान खान के सपने बचपन से ही बड़े थे।
इन सपनों ने ही उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का रास्ता दिखाया। यही से उन्हें पहली फिल्म मिली-सलाम बॉम्बे। उनका मानना था कि काम से ही नाम की पहचान होती है। इसलिये अपने नाम के आगे लगे साहबजादे शब्द को हटा दिया। ‘श्रीकांत’ धारावहिक से अपने अभिनय की शुरुआत की। धीरे-धीरे इनके हाथों में एक से बढ़कर एक फिल्म आने लगी। उनके प्रशंसकों की संख्या भी बढती गयी। उन्होंने वाचिक और आंगिक अभिनय को बहुत ही संजीदगी के साथ निभाया है। उनके द्वारा बोला गया एक-एक शब्द न केवल उनके शानदार अभिनय को दर्शाता है बल्कि शब्दों पर उनकी मजबूत पकड़ की ओर भी संकेत करता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की छाप उनके अभिनय पर दिखाई देती है।
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इस दिग्गज अभिनेता की फिल्मों की एक सबसे बड़ी खासियत यह है कि इनकी फिल्मों की कहानी अपने दौर के सिनेमाई ट्रेंड से बिलकुल अलग है। नये-नये विषयों पर फिल्मों में काम करके इन्होने अभिनय के क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। नायक की परम्परागत छवि से इनका अभिनय बिल्कुल अलग है। उनकी मुस्कुराहट, उनकी बड़ी-बड़ी आँखें, उनका संवाद अदायगी का तरीका वाकई काबिले तारीफ़ है। उन्होंने स्टीरियो टाइप किरदार कभी नहीं किये। लीक से हटकर काम करने वाले वे अपने समय के श्रेष्ठ अभिनेता थे। यही वजह है कि उनकी हर फिल्म एक नयी कहानी एक नयी सोच के साथ दर्शकों के सामने आती थी।
सलाम बॉम्बे, कारवाँ, द लंच बॉक्स, पान सिंह तोमर, बिल्लू बार्बर, हिन्दी मीडियम, डी-डे, नोक आउट, लाइफ इन ए मेट्रो, अंग्रेजी मीडियम जैसी नये-नये विषयों पर आधारित फिल्मों में अभिनय किया है। इतना ही नहीं ए माइटी हार्ट, लाइफ ऑफ़ पाई, स्लम डॉग मिलिनेयर, द अमेजिंग स्पाइडर मैंन जैसी हॉलीवुड फिल्मों में भी बेहतरीन अभिनय करके न केवल राष्ट्रीय अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त की है। इनके अभिनय के दम पर 2011 में भारत सरकार द्वारा इन्हें पद्म श्री सम्मान से नवाज़ा गया। 2012 में इन्हें 60वें राष्ट्रीय फिल्म समारोह में ‘पान सिंह तोमर’ के लिए श्रेष्ठ अभिनय का पुरस्कार दिया गया। 2017 ‘हिन्दी मीडियम’ फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला।
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‘पान सिंह तोमर’ में इरफ़ान ने सात बार राष्ट्रीय खलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले एथलीट से डाकू बने व्यक्ति के किरदार को जीवन्त किया है। सेना में रहते हुए पानसिंह ने एशियाई खलों में देश का प्रतिनिधित्व किया। उसकी जिन्दगी के कटु अनुभव किस प्रकार उसे डाकू बनने पर मजबूर करते हैं और कैसे वह डाकू बनकर इतना संघर्ष करते हुए अपने जीवन को जीता है। ‘पीकू’ फिल्म में राना पात्र के साधारण से किरदार को वे अभिनय क्षमता के साथ बड़े ही असाधारण तरीके से निभाते है कि यह आम किरदार फिल्म में खास नजर आने लगता है। यही इस कलाकार की असाधारण प्रतिभा है जो उसे अपने समय के बड़े-बड़े दिग्गज नायकों से अलगाती है। वे अपने हर छोटे बड़े किरदार को इस खास अंदाज में निभाते हैं कि वह रुपहले परदे पर जीवन्त हो उठता है।
‘द लंच बॉक्स’ में इरफ़ान एक ऐसे आदमी की भूमिका में नज़र आये जिसके घर में उसके सुख-दुःख बाँटने वाला, उससे संवाद करने वाला कोई नहीं है। खाने के डिब्बे के माध्यम से किस प्रकार दो लोगों में चिट्ठियों के आदान-प्रदान से प्रेम भाव उत्पन्न होता है। इस फिल्म में उनकी संवाद अदायगी और एक्सप्रेशन तो जबरदस्त है ही साथ में जहाँ वे खामोश दिखाई देते है वहाँ उनकी ख़ामोशी भी बहुत कुछ कहती दिखाई देती है। ’हिन्दी मीडियम’ फिल्म के द्वारा हंसी-मजाक के माध्यम से विद्यालयों की दाखिला प्रक्रिया पर भी व्यंग्य कसा गया है। हिन्दी मीडियम में इरफ़ान जिस तरह के रोचक किरदार को बड़ी सहजता से निभाते है वह काबिले तारीफ़ है।
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उनकी अन्तिम फिल्म ‘अंग्रेजी मीडियम’ में उन्होंने एक ऐसे भारतीय पिता की भूमिका निभाई जो अपनी बेटी के असम्भव सपने को भी सम्भव बनाने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। अदाकारी के साथ-साथ प्रभावशाली आवाज़ का जो अनोखा समन्वय इनमे दिखाई देता है वह हर किसी को नसीब नहीं होता है।
इरफ़ान के संवादों के साथ-साथ उनकी आँखें भी बहुत कुछ कहती थीं। जाते हुए वे अपनी बोलती आँखों से अपने सभी दर्शकों और चाहने वालों की आँखें सदा के लिए नम कर गये। इरफ़ान की ऑंखें मानो अपने आप में ही अभिनयशाला थी। मूक अभिनय में जिस तरह वे निःशब्द होकर भी आँखों से अनेक संवाद कर लिया करते थे। उनकी आँखें एक चलचित्र की भांति दिखाई देती थी। परन्तु इस असाध्य रोग ने उनकी इन बोलती आँखों को हमेशा-हमेशा के लिए मौन कर दिया। उनकी अभिनय क्षमता कमाल की थी। एक-एक किरदार के साथ न्याय करते हुए उन्होंने मानो खुद उस किरदार को जीकर देखा और परदे पर जीवन्त किया।
अपने अपनी फ़िल्मी दुनिया का आरम्भ उन्होंने जिस संघर्ष के साथ किया उस फ़िल्मी दुनिया का अन्त भी उसी संघर्ष के साथ हुआ। जब उन्हें पहली बार न्यूरोएँडोक्राइन कैंसर होने का पता लगा तो उन्होंने एक पत्र सोशल मीडिया के जरिये साझा किया। जिसमें उन्होंने जिक्र किया कि किस प्रकार उनके साथ उनकी योजनायें, आकांक्षाएँ, सपने और मंजिलें थी पर अचानक मानो टीसी ने कहा कि उतरने के लिए स्टेशन आ गया। लेकिन सकारात्मक सोच वाले इरफ़ान ने ऐसी स्थिति में भी न केवल अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखा बल्कि शारीरिक रूप से भी स्वस्थ होने का पूरा प्रयास किया। उन्होंने जीने-मरने का सोचे बिना आज़ादी को महसूस किया।
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अपने प्रशंसकों कि हर दुआ को उन्होंने उस पत्ती, टहनी, फूल के रूप में देखा जो उन्हें नयी दुनिया दिखाते हैं। इस दो साल के असाध्य रोग के दौरान ‘हिन्दी मीडियम’ जैसी फिल्म दर्शकों की झोली में डालना अपने आप में एक मिसाल है। उन्होंने इरफ़ान के संवादों के साथ-साथ उनकी आँखें भी बहुत कुछ कहती थीं। जाते हुए वे अपनी बोलती आँखों से अपने सभी दर्शकों और चाहने वालों की आँखें सदा के लिए नम कर गये। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र की चुनौतियों को बखूबी निभाया। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी ने कहा कि ‘’मैंने खोया नहीं है मैंने हर तरह से हासिल किया है।’’
जीवन के प्रति इरफ़ान का नजरिया बेहद सकारात्मक था। यही एक सच्चे रंगकर्मी की पहचान है कि अपने जीते जी उन्होंने जो दिया उससे कहीं अधिक वे जाने के बाद देकर गये है। उन्होंने सब जानते हुए भी एक हिम्मत नहीं हारी। एक आशावादी दृष्टिकोण के साथ उन्होंने जिन्दगी की जंग में अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन किया। लेकिन उनकी अन्तिम साँस के साथ एक बेमिसाल इंसान की अनेक ख्वाहिशें, सपने, योजनायें, आकांक्षाएँ अधूरी रह गयीं। ’’हैदर’ फिल्म का उनका एक संवाद उनके व्यक्तित्व से बहुत मेल खाता है-‘ मैं था.. मैं हूँ.. और मैं ही रहूँगा। ’एक दमदार शक्सियत का यूँ चले जाना कि फिर कभी लौटकर नहीं आयेंगे बेहद दुखदायी है। भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ अन्त में बस यही –
ऐसे भी कोई जाता है
जैसे तुम गये इरफ़ान
इन बोलती आँखो को
आज दे दिया विराम….
लेखिका दौलतराम महाविद्यालय के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं।
सम्पर्क- dr.kusum77@yahoo.com
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