एक बार फिर महिला दिवस का उत्सव अपने चरम पर है। किन्तु यह महिला दिवस का उत्सव आसानी से हासिल नहीं किया गया था, बल्कि यह लम्बे संघर्षों और बलिदानों का परिणाम रहा है, जिसके परिणामस्वरूप आज महिला प्रतिनिधितत्व और महिलाओं का आत्मबल दोनों बढ़ा है। इस परिपेक्ष्य में 1848 के न्यूयार्क का ‘सेनेका फाल्स घोषणा’ को महत्वपूर्ण माना जाता है जिसमें पहली बार विवाह कानूनों, रोजगार के अवसरों और संपत्ति कानूनों में महिलाओं के साथ असमान व्यवहारों की आलोचना की गई और महिला अधिकारों के लिए प्रस्ताव पारित किए गए। इसके बाद उनके आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों को लेकर पूरे यूरोप और अमेरिका में लम्बे समय तक महिला आन्दोलनों का दौर चला। इन आन्दोलनों ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर महिला अधिकारों के प्रति लोगों को जागरूक होने की प्रेरणा दी।
इस बार महिला दिवस कुछ मायनों में खास है, जिसमें से एक है बीजिंग घोषणा पत्र 1995 का 25 साल पूरा होना, जिसमें 189 देशों ने महिला सशक्तिरण की दिशा में लैंगिक समानता हेतु दुनिया के सामने सबसे स्पष्ट और मजबूत खाका प्रस्तुत किया था। और दूसरा है “बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ” का नारा देने वाली सरकार द्वारा संभवत: पहली बार सभी केंद्रीय संस्थानों में महिला दिवस मनाने का आदेश जारी किया गया है और अनिवार्य रूप से इसे मनाने की बात कही गयी है। परिणामस्वरूप अधिकांश संस्थाएं इस पत्र को ध्यान में रखकर उत्सवरुपी माहौल में डूब गया है। तीसरा, महिलाओं को सेना में पहली बार स्थायी कमीशन और कमांड पोस्ट देने की बात देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित की गई। लेकिन इस पूरे उत्सव के बीच एक बात विचारनीय है कि क्या ऐसे पत्रों अथवा उत्सवों से महिला दिवस की सार्थकता सिद्ध हो पायेगी?
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीबी के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस प्रकार भारत भर में प्रत्येक घंटे दो महिलाएं बलात्कारियों के हाथों की बली चढ़ जाती हैं। जबकि कई सारे मामले ऐसे हैं, जिनकी रिपोर्ट दर्ज ही नहीं हो पाती। विश्व स्वास्थ संगठन के एक अध्ययन के मुताबिक, भारत में प्रत्येक 54वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है। वहीं महिलाओं के विकास के लिए बना केंद्र, सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन के अनुसार, ‘भारत में प्रतिदिन 42 महिलाएं बलात्कार का शिकार बनती हैं। इसका अर्थ है कि प्रत्येक 35वें मिनट में एक औरत के साथ बलात्कार होता है। इतना ही नहीं, हर रोज़ 6 मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार किया जा रहा है। आंकड़ों की माने तो मासूमों के साथ होने वाले इस अपराध में 82 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। NCRB के 2016 के आंकड़ों के अनुसार रोज़ाना 106 महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा था। इस जघन्य अपराध में शामिल होने वाले अपराधियों में से 94.6 % अपराधी कोई और नहीं बल्कि भाई, पिता, संबंधी या फिर जान पहचान वाले रहे हैं ।
2 मार्च 2020 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक सार्वजानिक स्थानों पर भी महिलाएं आज भी असुरक्षित हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक भीड़भाड़ वाली ट्रेनें और रेलवे परिसर भी महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है। सूचना के अधिकार कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ द्वारा प्राप्त जानकारी के तहत ट्रेनों और रेलवे परिसर में तीन साल में दुष्कर्म के 165 मामले सामने आए हैं।
सिर्फ महिला हिंसा और अपराध के बढ़ते आकड़े ही ध्यान देने की बात नहीं है, बल्कि अपराधियों द्वारा बेखौफ होकर अपराधों को अंजाम देना भी चिंतनीय है। यहां खुंखार से खुंखार अपराधियों को जमानत पर रिहा कर दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर पीडि़ता और उसके परिवार के लोग न्याय की आस में या तो दम तोड़ देते हैं या फिर लड़ाई छोड़ देते हैं। सात साल से ज्यादा हो गया है जब एक बेटी की माँ अपनी बेटी के लिए इंसाफ की गुहार लगा रही है। आज भी वो इस इंतजार में है कि उसकी बेटी को इंसाफ मिलेगा और सभी दोषियों को फांसी हो जायेगी। लेकिन वो दिन कब आएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। आये दिन बढती हिंसा की घटना और असुरक्षित माहौल के बीच महिलाएं सशक्तिकरण की ओर कितना अग्रसर हो पाएंगी, वो एक सवाल बन गया है।
भारतीय परिपेक्ष्य में महिला अधिकारों और सशक्तिकरण की बात करें तो सावित्रीबाई फूले का संघर्ष और बाबा साहब द्वारा दिये गये संवैधानिक अधिकार सबसे महत्वपूर्ण हैं। किन्तु आजादी के इतने दिन बाद भी संवैधानिक अधिकारों से महिलायें भी अक्सर वंचित कर दी जा रही हैं। अधिकांश पुरूषों की मर्दवादी सोच और गलत नजरिया महिलाओं को चरित्रहीन और नरक का द्वार ही साबित करने में लगी होती है। शायद यही कारण है कि महिला सूचक गलियां तो समाज में हर तरफ व्याप्त हैं किन्तु महिला सूचक पद नहीं है। पद है तो सिर्फ पुरुष सूचक।
बड़े से बड़े पद पर सुशोभित व्यक्ति भी महिलाओं को कम आंकने या उन पर अभद्र टिप्पणी करने में नहीं चूकते हैं। हाल ही में भारत के सौलिसिटर जनरल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में यह तर्क दिया गया था कि महिला ऑफिसर को कमांडेंट इसलिए नहीं बना सकते क्योंकि पुरूष सैनिक उनके आदेशों का पालन नहीं करेंगे। महिलाओं को स्थायी कमीशन को भी देने से इसलिए मना किया जा रहा था, क्योंकि उन्हें मानसिक और शारीरिक तौर पर कमजोर समझा जाता है। भारतीय सेना में महिला ऑफिसर की सेना में उपलब्धियों और भूमिकाओं को लेकर उनकी क्षमताओं पर संदेह पैदा करना न सिर्फ महिलाओं का बल्कि सेना का भी अपमान होगा। ये सारी बातें सिर्फ सेना तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सभी क्षेत्रों में कमोबेश यही हाल है। यही कारण है कि शाहीन बाग में भी आन्दोलन कर रही महिलाओं को कई तरह के फतबे और शंका से गुजरना पड़ रहा है।
महिलाओं को हमारा समाज हमेशा ही हीन दृष्टि से देखता आया है। उसे अबला, कमजोर का टैग लगा दिया गया। जन्म से लेकर मृत्यु तक उन्हें पुरूषों पर निर्भर बना दिया गया। उनकी पहचान पुरूषों की पहचान से ही जोड़ कर रखा गया। जबतक पुरूषों का सरनेम महिलाओं के नाम के आगे नहीं लग जाता तबतक महिलाओं की पहचान पूरी नहीं मानी जाती। आज भी रात में सड़कों पर चलने के लिए “मेरी रातें, मेरी सड़कें” जैसी मुहिम चलानी पड़ती है। हमारा हमसफर कौन होगा, यह भी अधिकांश घर के पुरूषों द्वारा ही तय किया जाता है।
वर्तमान परिदृश्य को देखने पर एक बात तो स्पष्ट है कि सामाजिक सोच के साथ-साथ महिला सम्बन्धित नीतियों को भी बदलना जरूरी है। कार्य स्थल पर महिलाओं के सम्बन्ध में कई नियम-कानून बनाये गये हैं, उन्हें कई तरह की सुविधायें उपलब्ध कराने की बात कही गयी है, किन्तु उसका कितना पालन किया जाता है, यह जानने की कोशिश किसी के द्वारा नहीं की जाती। कामकाजी महिलाओं के लिए ही चाइल्ड केयर लीव की व्यवस्था की जाती है, जिसके कारण महिलायें ही अपने भविष्य को छोड़कर बच्चों के देखभाल के लिए बाध्य की जाती हैं। अगर यह सुविधा पुरूषों को भी होती तो आपसी सहमति से पति-पत्नी बच्चों की देखभाल कर सकते थें। निर्भया कांड के बाद कई महिला हितैषी कानून बने लेकिन उसका पालन आजतक नहीं किया जा रहा, जिसका व्यावहारिक तौर पर लागू होना अति आवश्यक है।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा राशन कार्ड महिलाओं के नाम पर बनाना, मुझे लगता है महिला सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिसके कारण महिलायें पुरूषों की हिंसा से भी एक हद तक मुक्ति पा सकती हैं। लेकिन सबसे जरूरी है, महिलाओं के प्रति अपनी सोच और नजरिया बदलना। उन्हें मान-सम्मान देना और हर गलत कार्य के लिए उन्हें कटघरे में न खड़ा करना। बेटे-बेटी की समान परवरिश करना। टीवी धारावाहिकों में भी महिलाओं को अधिकांशत: या तो फूहड़ तरीके से पेश किया जाता है या फिर डायन, चुडै़ल और भूत के रूप में प्रस्तुत कर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया जाता है। इन सभी मुद्दों पर सही निर्णय लेना बेहद आवश्यक हो गया है, और ऐसे निर्णय के बाद ही मुझे लगता है महिलायें विमर्श से निकलकर समाज में बराबरी का हक प्राप्त कर पायेंगी, और महिला दिवस की सार्थकता सिद्ध हो पायेगी।
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