महाराष्ट्र

जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती असुरक्षा में बकरीपालन एक सुरक्षित आजीविका

 

“हमारे लिए बकरी पालना खेती करने से ज्यादा पुराता है, क्योंकि खेती में इतना मर-मर के भी काम करे तो भी पानी के कम ज्यादा होने से फसल का पूरा का पूरा नुकसान होता है, पर वही बकरी में नही।”, महिला किसान खंजीरा कराडे ने कहा। अपने आँगन के एक कोने में पशु शेड के अन्दर रखी बकरियों के अगल-बगल में झाड़ू मारते हुई दिखी। दोपहर का समय था और शेड खाली था, क्योंकि पशु जंगल में चरने गए थे। गढ़चिरौली जिले के अन्दर कुरखेडा तालुका से 15 कि. मी. दूर चिचेवाड़ा एक छोटा सा गाँव है, जहाँ खंजीरा जी रहती हैं।

चिचेवाड़ा वह गाँव है जहाँ पर आदिवासी समुदाय ज्यादा पैमाने पर है और लोगों की आजीविका जंगल पे निर्भर करती है। आम तौर पर अपने यहाँ खेती-बाड़ी एक संपत्ति के चश्मे के जरिये देखा जाता है। फिर चाहे उसमे अच्छा उत्पादन हो या न हो। खंजिरा जी के पास कुल 2.5 एकड़ खेती है और उसमे मुख्यतः धान की फसल वह लगाती हैं। चेहरे पर मायूसी और उदासी भावना से भरी हुयी वह आगे बताती हैं, “पर पहले के मुताबिक अब खेती में सिर्फ घर के खाने के लिए ही धान होते हैं।”

बकरीपालन की शुरुआत

खंजिरा जी के पास अभी फ़िलहाल 5 बकरियाँ हैं। कुछ साल पहले उन्होंने एक बकरी के जरिये शुरूआत की थी। आम्ही आमच्या आरोग्यासाठी संस्था की तरफ से ‘आदिवासियों की शाश्वत आजीविका’ कार्यक्रम के तहत उनको एक बकरी मिली थी जिसका 3 साल के लिए बीमा भी निकाला गया है। एक बकरी उनको ‘स्थानीय योगदान’ के तौर पर खरीदनी थी जिसे उन्होंने बाद में खरीद लिया। इसी तरह चिचेवाड़ा ग्राम में कुल 10 बकरी संस्था की तरफ से छोटे व्यवसाय की शुरूआत के लिए मदत के तौर पर गाँव के कुल 10 वंचित परिवार को दी गई। परिवार में चार लोग है जिनमे पति-पत्नी और दो बच्चे।

खंजिरा जी और उनके पति पुंडलिक जी का आगे जाके और बकरियाँ बढ़ाकर बकरी पालन को बढ़ावा देना चाहते हैं। आजीविका को सुरक्षित एवं जलवायु परिवर्तन के परिणाम को सहने की क्षमता बढ़ाने हेतु इस दम्पत्ति ने और इनके जैसे अन्य परिवार ने अपना कदम सूज-बुज के साथ आगे बढ़ाया है। आजीविका को सुरक्षित करने के लिए सिर्फ दो बकरियों के बलबूते पर नहीं रह सकते यह इस परिवार के साथ बात करते समय समझ आया और वह आगे इस मुद्दे पर बताते हैं की, “हम और बकरियाँ रखना चाहते हैं, हमारे पास मुर्गियाँ भी थी पर मरी आने से सब तबाह हो गयी, सरकारी योजना के जरिए खरीद भी ले पर 10 बकरी और 1 बकरे के कीमत सब्सिडी काट के भी जो रकम भरनी पड़ती है और उतना पैसा जुड़ाना मुश्किल है।”

आर्थिक रूप से बढ़ावा देने में समस्याएं

संस्था का यह 2 यूनिट वाला बकरीपालन व्यवधान कहीं न कहीं शुरूआत करने के लिए सफल जरुर माना जा सकता है। पर परिवार के आजिविका सुरक्षा और अर्थव्यवस्था व्यवस्थापन के लिए पूरी तरह से क़ाबिल नही हो सकता। इसके लिए परिवार ने छोटे स्तर पर शुरूआत करके उसको संख्या रूप से बढ़ावा देना चाहिए और उसके लिए सरकारी योजना का योगदान महत्वपूर्ण हो सकता है। योजना सही तरीके और जानकारी के साथ लोगों तक पहुँचना भी जरुरी है।

इसी सिलसिले से और परिवार को पैसों को जुटाने की समस्या को चलते सरकारी अफसर तालुका पशु संवर्धन आधिकारी डॉ. प्रसाद भामरे जी के साथ मुलाकात होने पर इसका हल निकल के आया। अपनी पेन और डायरी निकालकर डॉ. साहब समझाते है की,“10+1 (बकरी और बकरा) की योजना जिसपे सब्सिडी भी है यह देश के स्तर पर बनायीं गयी है, बड़ा यूनिट रखने का कारण यह है की आगे जा के पशु की मृत्यु दर के कारण 2-3 पशु नहीं भी रहे तो भी परिवार के पास पशु बचते है, किसान को लंबे समय तक निरंतर उत्पादन मिलता रहे यही सरकार का प्रयास हे, और इस योजना में उनको शेड, दवाई, वस्तु और बीमा भी मिलता है जो आगे जाके भांडवल के तौर पर फायदेमंद है।”

उन्होंने शुरूआत में होने वाले खर्चे के बारे में भी हल निकालने की तरकीबों के बारे में साझा किया। जिसमे किसान क्रेडिट कार्ड के जरिये कर्ज के रूप में वह रकम इस तरह के पशु पालन में मदद हो सकती है।

पुरे विश्व में घरेलु बकरी का इतिहास बहुत पुराना है। पलायन, व्यवसायिक कारोबार आदि के भूमिका में बकरी पाली जाती थी। भारत में मांस उत्पादन में बकरी प्रमुख रूप से जानी जाती है। उसके कम लागत, उच्च लाभ और ज्यादातर जोखिम न होने के कारण पिछले कई दशको से छोटे और बड़े व्यवसायों के रूप में प्रसिद्ध है। बकरीपालन कृषि क्षेत्र के साथ-साथ पशुपालन में कारीगर संबद्ध गतिविधि समझी जाती है। भारत में कुल 12 प्रकार की बकरी की प्रजाति पाई जाती है।

पशुधन और जलवायु परिवर्तन

पिछले कुछ सालों से जलवायु परिवर्तन (वातावरण बदल) ने पुरे विश्व में कहर करके रखा है। जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर इन सभी पर इसका असर देखने को मिला है। बढ़ते हुए रोगों की संख्या, मृत्यु दर, घास की कमी इन सभी पर जलवायु परिवर्तन के असर के कारण छोटे और सीमांत पशुपालक दुविधापूर्ण परिस्थिति से जुजते हुए दीखते है। ग्रीनहाउस गैस जो जलवायु परिवर्तन का कारण बनी है, सभी मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 14.5% पशुधन आपूर्ति शृंखला से आता है।

भले ही जलवायु परिवर्तन और पशुधन का बहुतही नजदीकी रिश्ता हो पर दूसरी ओर देखा जाये तो ग्रामीण समुदायोंका आजीविका का भी प्रश्न है। कृषि के मुकाबले पशुपालन में जलवायु परिवर्तन से आनेवाली जोखिम कम नज़र आती हुयी दिखाई देती है। कहीं न कहीं कृषि के साथ-साथ उसका भी आजीविका सुरक्षा में एक फायदेमंद योगदान रहा है। सुरक्षित आजीविका के दृष्टिकोण से देखा जाये तो हमें कम से कम जोखिम वाला स्रोत को देखना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन का तुलनात्मक असर अगर हम आज भी देख पाए तो वह ग्रामीण भागों में कृषि क्षेत्र पर ज्यादा मिलता है। जो कुछ जोखिम बकरीपालन में है, अगर उसको भी सही मायने से प्रबंधन किया जाये तो उसको भी हम शुन्य तक ले जा सकते हैं।

जलवायु परिवर्तन और पशुपालन जिसमे बकरीपालन का ज्यादा महत्व है क्योंकि अन्य पशुपालन के मुकाबले आदिवासियों की और वंचित समुदायों की क्षमता, संस्कृति और जोखिमों के चलते बकरीपालन इन सब बातों में सही तरीके से बैठ सकती है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पे आगे चर्चा करके डॉ. भामरे जी ने बताया की,“जिस तरीके से सब रिपोर्ट को देखें और मेरी समझ से भी पशुपालन के जरिये मिथेन वायु का उत्सर्जन होता है और हमारे देश में भी पशुपालन बड़े व्यावसायिक स्तर पर नहीं किया जाता पर अगर सिर्फ बकरीपालन की बात करें तो सच में यह पर्यावरण के ऊपर हानिकारक है क्योंकि बकरी का पालन किस तरीके से होता है यह उसपर भी निर्भर है।”

इनके मुताबिक सीमाबद्ध बकरीपालन किया जाये तो यह पर्यावरण के लिए उतना हानिकारक नहीं होगा। पशुपालन का खाद्य शृंखला में भी बड़ा योगदान रहा है और जीवन उसपे निर्भर है, ऐसा उनके अध्ययन से भी पता चलता है। यहाँ ज्यादा जंगल होने के कारण पारंपरिक पद्धति अपनाई जाती है, जैसा खंजिरा जी के यहाँ भी यही होता है, जिसमे रोज बकरी चराने से घर तक वापिस आने तक उसकी खुद की उर्जा और वह जंगल में जाने के कारण होनेवाला खाने के लिए पेड़ पौधों का और जमीन के ऊपर चलते समय होनेवाला नुकसान हमें भले ही आज छोटा लगे पर बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। इसके लिए बकरी टीकाकरण, बीमा और अच्छी देखभाल और इन सब पे ग्राम स्तर पे प्रशिक्षण एक बुनियादी ढांचा कहा जायेगा।

इन सब मुद्दों पर बारीकी से नज़र डालें और सही मायने पर शाश्वत आजिविका बनाने हेतु जंगल और जानवर के रिश्ते को आगे बरकरार रखना है तो जंगल का जानवरों के उद्देश से शाश्वत व्यवस्थापन और ग्राम स्तर पर नियम लागू  करके आज ही कल का भविष्य सुनिश्चित करना है

सन्दर्भ

https://academic.oup.com/mbe/article/26/12/2765/1538273

https://www.agrigoaexpert.res.in/icar/category/animals_husbandry/animal_production/goatry/breeds.php

https://prarang.in/meerut/posts/5435/Brief-description-of-goat-farming-business

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तन्मय वर्षानंत

लेखक आम्ही आमच्या आरोग्यासाठी संस्था, गढ़चिरौली के साथ आदिवासियों की शाश्वत आजीविका पर काम कर रहे हैं। सम्पर्क +919049838962, tanmay.arogyasathi@gmail.com
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