भीमा कोरेगांव: पेशवा पर जीत नहीं, दमन को हराने की कहानी
हाल में भीमा कोरेगांव (महाराष्ट्र) में दलित संगठनों द्वारा 1 जनवरी 2018 को कोरेगांव युद्ध 1818 (जो कि पेशवा बाजीराव द्वितीय और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुआ था) की 200वीं बरसी, ‘शौर्य दिवस’ के रूप में मनाई जा रही थी और उस पर हिंदूवादी संगठनों ने विरोध किया तथा हिंसा भी हुई. अब यह लगभग एक आन्दोलन का रूप ले चुका है. बहरहाल, दलित संगठन एवं समर्थकों का मानना है कि इस युद्ध में कंपनी की तरफ से दलित सैनिकों ने पेशवा के सैनिकों को हराया और इस जीत का जश्न ‘शौर्य दिवस’ के रूप में मनाया जाना चाहिए. हिन्दू संगठनों का का मानना है कि असल में युद्ध पेशवा और अंग्रेजों के बीच था और यह जश्न तो अंग्रेजों की जीत का था और भारत की हार का. ऐसे में कुछ सवाल महत्वपूर्ण हैं.
क्या ‘शौर्य दिवस’ अंग्रेजों की जीत या फिर पेशवा की हार का है?
मुझे ऐसा कतई नहीं लगता कि शौर्य-दिवस किसी भी रूप में दलित सेना के जीत का जश्न नहीं है बल्कि यह पेशवाई दमन की हार की कहानी है. विदित हो कि महाराष्ट्र में पेशवा के शासनकाल में दलित और पिछड़े जातियों के ऊपर अमानवीय व्यवहार किया जाता था और
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब युद्ध का ऐलान किया तो दलित सैनिक उस जातीय दमन के खिलाफ लड़ रहे थे. ये लड़ाई किसी पेशवा के खिलाफ नहीं बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ थी जिसमें सैकड़ों साल से रह रहे दलित-पिछड़े अब पेशवाई शासक को ही आक्रान्ता मानती थी. ये होना लाजिमी भी था, जब कोई अपने ‘देस’ का शासक ही जनमानस का उत्पीड़न करे तो उससे किसी भी प्रकार का लगाव होना असंभव है. पेशवा का शासनकाल मानवीय इतिहास के सबसे क्रूरतम काल के तौर पर देखा जा सकता है. इस शासनकाल में शूद्रों अथवा नीची जाति के लोगों को गले में थूकने के लिए हांडी लटकानी पड़ती थी क्योंकि जमीन पर थूकने से जमीन अपवित्र हो जाती थी. उन्हें कमर में झाड़ू लगाकर चलना होता था ताकि वो चलते जाएं और उनके पदचिन्हों पर झाड़ू लगती जाए. उन्हें कमर में घंटी बांधकर चलना होता था ताकि ब्राह्मण पेशवा सचेत हो जाएं और छुप जाएं और इन पर नजर न पड़े, वो अपवित्र होने से बच जाएं. वो चलते हुए ढोल पीटते जाते थे और ‘चंडाल आ गया, चंडाल आ गया’, कहकर चिल्लाते रहते थे. ऐसे उत्पीड़न के खिलाफ महज 500 महार (दलित) सैनिकों ने पेशवा के 50 हजार सैनिकों को धुल चटा दी थी. इस लड़ाई को उस व्यवस्था के खिलाफ रोष के क्यों नहीं देखना चाहिए. इसलिए कोरेगांव की लड़ाई पेशवा साम्राज्य के खिलाफ नहीं बल्कि पेशवा के सामाजिक उत्पीड़न और दमन के खिलाफ थी. ऐसे में ‘शौर्य-दिवस’ को अंग्रेज की जीत की तरह बिलकुल भी देखा नहीं जाना चाहिए.
क्या दलित सैनिक की जयचंद से तुलना की जा सकती है?
असल में यह सवाल ही नहीं है. जयचंद ने मुहम्मद गौरी का साथ पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए दिया था. जयचंद में साम्राज्य अथवा सत्ता पाने की लालसा और बदले की भावना थी. लेकिन कोरेगांव युद्ध में दलित सैनिकों का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से पेशवा के खिलाफ लड़ना साम्राज्य या सत्ता के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक दमन को खत्म करने और हराने के लिए था. यह युद्ध आत्मसम्मान और मानवीय गौरव को बचाने के लिए भी कहा जा सकता है. जयचंद और दलित सैनिकों की तुलना ही अतुलनीय है.
आजाद भारत में इस “शौर्य-दिवस” को मनाना उचित है?
यह सवाल दलित सैनिकों पर होने से पहले होलकर और सिंधिया साम्राज्य पर जाना चाहिए. होलकर और सिंधिया ने तो 1857 के विद्रोह में (जिसे सावरकर द्वारा भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा गया है) अंग्रेजों का साथ दिया था और आज इस राजवंश के लोग समाज में सम्मानित जिंदगी जी रहे हैं. असल में आजादी से पहले भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखा नहीं जा सकता. कई साम्राज्यों में बंटा हुआ था और एक साम्राज्य लगभग एक देश जैसा था. इसीलिए उस समय हर लड़ाई एक देश की दूसरे देश के साथ होती थी. असल में हम इतिहास के कुछ पन्ने अपने सहूलियत के साथ पलट रहे हैं. अब मगध साम्राज्य तो कई साम्राज्यों को जीत कर वहां शौर्य स्तम्भ बनवा दिया करते थे और जीत का जश्न भी मनाते थे. दिल्ली में इंडिया गेट भी प्रथम विश्व-युद्ध में ब्रिटिश सेना में काम कर रहे 70,000 भारतीय सैनिक के बलिदान एवं शौर्य की ही याद है.
असल में, कोरेगांव युद्ध को जब तक हम साम्राज्य या सत्ता के सन्दर्भ में देखेंगे हमें इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ेगा. इसे पेशवा के सामाजिक उत्पीड़न और दमन की नजर से देखना चाहिए. उस दमन की हार तो इस पूरे देश का शौर्य है. अपने लोगों के द्वारा अपने
दीखता, किसी की जीत नहीं दिखती बल्कि सब तरफ हार ही दिखती है. परन्तु, सामाजिक उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लड़ना और इसे हराना भी तो मानवता के लिए जरुरी है. ऐसे हजारों युद्ध हमारे पूर्वजों ने युद्ध के मैदान से बाहर भी लड़ा है.
भीमा कोरेगांव को सिर्फ एक नजर से देखना चाहिए कि यह मानव का मानव के द्वारा शोषण के खिलाफ संघर्ष था. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी भले ही सत्ता के लिए लड़ रही हो, परन्तु दलित सैनिक यह युद्ध अपने आत्म-सम्मान के लिए ही लड़ रहे थे.
डॉ. दीपक भास्कर
लेखक दौलतराम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) में राजनीति पढ़ाते हैं.
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