भारतीय जनता पार्टी का स्थापना दिवस
- प्रेमकुमार मणि
6 अप्रैल भारतीय जनता पार्टी का स्थापना दिवस है। 1980 में इसी रोज इसकी स्थापना की गयी थी। दरअसल भारतीय जनता पार्टी एक पुरानी दक्षिणपंथी पार्टी भारतीय जनसंघ का पुनरावतार है। दूसरी दफा जन्मी हुई पार्टी। इस रूप में यह शब्दशः द्विज (ट्वाइस बोर्न) पार्टी है।
पहले मातृ – पार्टी के उद्भव की परिस्थितियों और मिजाज को जान लेना चाहिए। उससे पुत्री पार्टी का मिजाज जानने में सहूलियत होगी। भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को हुई थी, और इसके संस्थापक अध्यक्ष महान शिक्षाविद, स्वतन्त्रता सेनानी और हिन्दू महासभा नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरत बाद वैचारिक स्तर पर दलों के पृथक संगठन बनने आरम्भ हो गए थे। हालांकि वैचारिक फोरम और मंचों का बनना स्वतन्त्रता संघर्ष के दरम्यान ही हो गया था। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, आरएसएस, साम्यवादी दल, काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी), फॉरवर्ड ब्लॉक आदि 1940 के पहले ही बन चुके थे। 1948 में काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी ) से जुड़े हुए समाजवादी जन, जो काँग्रेस में ही थे अलग हो गए। इनलोगों ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी बना ली। इनके बारह लोग संविधान सभा के सदस्य थे। उन लोगों ने इकट्ठे धारासभा से इस्तीफा कर दिया। उपचुनाव में कोई भी पुनः चुन कर नहीं आ सका। काँग्रेस के भीतर दक्षिणपंथियों का बोलबाला था, हालाकि गाँधीजी के हस्तक्षेप से समाजवादी तबियत के जवाहरलाल नेहरू प्रधानमन्त्री थे। आचार्य नरेन्द्रदेव ने अपने लेख ” हमने काँग्रेस क्यों छोड़ी ? ” में उन स्थितियों का विवेचन किया है और यह स्वीकार किया है कि नेहरू के साथ हमारी हमदर्दी है, लेकिन काँग्रेस के साथ होने का अब कोई मतलब इसलिए नहीं रह गया है कि नेहरू दक्षिणपंथियों के दबाव में कुछ भी समाजवादी कदम नहीं उठा सकते; और हम समाजवादी उद्देश्यों को छोड़ नहीं सकते। यह बात सही भी थी। तब काँग्रेस के भीतर दक्षिणपंथियों के मुखर और दबंग नेता सरदार पटेल थे। डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथी लोग, जिन्होंने सरकार में ओहदे पा लिए थे, तो मौन साधे रहे; लेकिन कन्हैया माणिकलाल मुंशी, डॉ रघुवीर, द्वारिकाप्रसाद मिश्रा जैसे नेता,
जो पटेल के नेतृत्व में सक्रिय थे, 1950 में उनके निधन के बाद अचानक खुद को अनाथ महसूस करने लगे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गाँधीजी की हत्या के बाद कुछ समय केलिए प्रतिबंध लगा हुआ था।
हिन्दी क्षेत्र में हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व मालवीय जी कर रहे थे, जो काँग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे। मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय स्थापित कर बता दिया था कि उनके हिन्दुत्व का एजेंडा कुछ अलग है। मालवीय जी हिन्दुओं के बीच ज्ञान- क्रांति लाने और छुआछुत ख़त्म करने केलिए प्रयत्नशील रहे थे। उनकी मृत्यु के बाद हिन्दुत्व का यह सुधारवादी पक्ष हमेशा केलिए सो गया।
इसके बाद जो परिस्थितियाँ बनीं, उसमे इस पूरी विचारधारा का संघनन आरम्भ हुआ। महाराष्ट्रीय हिन्दुत्व जिसका प्रतिनिधित्व आरएसएस कर रहा था और शेष हिन्दुत्व जिसका नेतृत्व हिंदूमहासभा के रूप में श्यामाप्रसाद मुखर्जी कर रहे थे, एक साथ हुए। इसी का संघटन 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ के रूप में हुआ।
इसलिए यह केवल मिथ है कि जनसंघ कि स्थापना आरएसएस से जुड़े लोगों की है। वास्तविकता है कि इसकी स्थापना में उनके बनिस्पत कोंग्रेसियों के एक बड़े समूह का अधिक हाथ था। यह अलग बात है कि वे अपना कोई वैचारिक वर्चस्व नहीं बना सके। दरअसल उनकी कोई विचारधारा थी भी नहीं। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में काँग्रेस के इस समूह को 1936 में ही चिन्हित किया था।
भारतीय जनसंघ को दूसरी दफा एक वैचारिक आवेग देने की कोशिश इसके एक अल्पकालिक अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय ने की। उन्होंने उन वैचारिक आवेगों से पार्टी को जोड़ने की कोशिश की जिनका प्रतिनिधित्व मालवीय जी करते थे। दीनदयाल आरएसएस से जुड़े थे, लेकिन उनके संस्कारों पर मालवीय जी का प्रभाव परिलक्षित होता है। यह शायद उन पर हिंदी क्षेत्र के होने का प्रभाव था। एकात्म मानववाद के उनके फलसफे पर संघ का प्रभाव कम दिख पड़ता है। लेकिन दीनदयाल जी कुल चौआलिस रोज ही अध्यक्ष रह सके। उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। संदिग्ध स्थितियों में मुगलसराय रेलवे स्टेशन के पास उनकी लाश मिली। उनकी हत्या के लिए पार्टी के पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने अपनी पार्टी के शीर्ष नेता पर ऊँगली उठायी। सब जानते हैं कि वह नेता कौन था। एक दूसरे की हत्या, पैर खींचना, अपमानित करना इस पार्टी का पुराना चरित्र रहा है। फिलहाल आडवाणीजी इसके उदाहरण हैं।
अटल-आडवाणी के नेतृत्व में 1970 के दशक में यह पार्टी काम करती रही। 1977 में विशेष तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। उस वक़्त की परिस्थितियों और जनता पार्टी के कोहराम से सब लोग परिचित हैं। पार्टी में पूर्व जनसंघी सदस्यों के आरएसएस से जुड़ाव के प्रश्न पर अन्तरकलह हुआ। इसे दोहरी सदस्यता का मुद्दा कहा जाता है। कोई भी जनता पार्टी सदस्य, क्या आरएसएस का भी सदस्य रह सकता है ? यही सवाल था। यह सवाल उन सोशलिस्टों ने उठाया था जो स्वतन्त्रता आंदोलन के समय काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और काँग्रेस के सदस्य एक साथ हुआ करते थे और इसका औचित्य भी बतलाते थे। उस वक़्त इस विचारणा का नेतृत्व मधु लिमये और रघु ठाकुर कर रहे थे।
रस्साकशी होते जनता पार्टी की सरकार गिर गयी। मध्यावधि चुनाव हुए और काँग्रेस की वापसी हुई। जनता पार्टी बिखर गयी। चुनाव के तुरन्त बाद 6 अप्रैल 1980 को पुराने जनसंघियों का जुटान हुआ और नयी पार्टी बनी – भारतीय जनता पार्टी। दरअसल जनता पार्टी में केवल ‘भारतीय’ जोड़ लिया गया था। अटल बिहारी वाजपेयी संस्थापक अध्यक्ष बने। सोशलिस्टों के साथ रहने का कुछ प्रभाव शेष रह गया था। इसलिए इस नयी पार्टी ने गाँधीवादी समाजवाद की विचारधारा भी घोषित की। हालांकि कुछ ही समय बाद उसपर चुप्पी साध ली गयी। आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने आरएसएस के द्वारा प्रतिपादित हिन्दुत्व को अपनी विचारधारा बना लिया। श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल के फोटो जरूर रह गए, लेकिन उनकी विचारणाओं का दफन कर दिया गया।
1984 का लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी का पहला चुनाव था। इस में पार्टी की बुरी तरह पराजय हुई। इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी परिस्थितियों के कारण उसे मात्र दो सीटें मिल सकीं। पार्टी में नैराश्य का एक भाव आया। गाँधीवादी समाजवाद का चोगा फेंक कर पार्टी एक बार फिर धुर सांप्रदायिक राजनीति की ओर लौटी। पंजाब में भिंडरावाले की सांप्रदायिक राजनीति को जाने -अनजाने इसने आत्मसात किया। संघ के एक दस्ते विश्व हिन्दू परिषद ने रामजन्मभूमि मामले को लेकर आंदोलन आरम्भ किया और पूरी पार्टी प्राणपण से इसमें शामिल हो गयी। अटल पीछे पड़े और आडवाणी आगे हो गए।
1989 के चुनाव में उसने 85 सीटें हासिल कर ली। उसके बाद उसका ग्राफ बढ़ता गया। 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस कर देने के बाद पांच राज्यों में उसकी सरकारें बर्खास्त कर दी गयीं। लेकिन 1996 में तेरह रोज केलिए ही सही, इन की सरकार बन गयी। हालांकि, विश्वास मत हासिल करने के पूर्व ही सरकार को अपेक्षित समर्थन के अभाव में इस्तीफा करना पड़ा, जैसे 1979 में चरण सिंह को करना पड़ा था। 1998 में फिर से लोकसभा के चुनाव हुए और भाजपा के नेतृत्व में फिर से केंद्र में सरकार बनी। इस बार फिर तेरह महीने में सरकार गिर गयी। 1999 में पार्टी फिर से सरकार बनाने में सफल हुई। यह सरकार 2004 के चुनाव तक चली।
2004 के चुनाव में भाजपा को झटका लगा। कई कारण थे। पार्टी आत्मविश्वास से इतनी लबरेज थी कि उसने तय समय से छह महीने पूर्व ही चुनाव करा लिए। पार्टी सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं हासिल कर सकी। हालांकि काँग्रेस ( 145) से उसे मात्र सात सीटें कम थी। लेकिन वामदलों और सोशलिस्ट दलों के सहयोग से काँग्रेस के नेतृत्व में नयी सरकार बनी। यह भाजपा की हार थी।
2009 तक अटल बिहारी बुरी तरह अस्वस्थ होकर सामाजिक -राजनैतिक जीवन से सदा केलिए विदा हो गए। आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने लोकसभा चुनाव लड़ा। इस बार 2004 के 138 से भी बहुत कम, उसे मात्र 116 सीटें मिली। आडवाणी अब इससे बेहतर शायद नहीं कर सकते हैं, यह पार्टी ने मान लिया। इसके साथ ही भाजपा में आडवाणी -युग का अन्त हो गया।
2014 तक नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एक नयी भाजपा का उदय हुआ। मोदी ने हिन्दुत्व के तुरुप को चालाकी से छुपा कर उस जाति के तुरुप को आगे किया, जिसे हिंदी पट्टी में लोहियावादी सोशलिस्ट इन दिनों काफी इस्तेमाल कर रहे थे। मोदी ने खुद को चायवाला और पिछड़ी जात-जमात के निरीह नायक के तौर पर पेश किया। परिवारवाद और भ्रष्टाचार में लिप्त हो गयी सोशलिस्ट पार्टियाँ अब राजनैतिक दल से अधिक एक कम्पनी की तरह काम कर रही थीं। इन पार्टियों में आंतरिक जनतन्त्र का पूरी तरह सफाया हो गया, नतीजतन ये सब वैचारिक बांझपन की भी शिकार हो गयीं। इस कारण भाजपा के इस नए तेवर को ये झेल नहीं सकीं और बुरी तरह पिटती चली गयी। काँग्रेस भी इसी बीमारी की शिकार हुई और उसका भी सोशलिस्टों वाला ही हाल हुआ। अलबत्ता मार्क्सवादी दल अपने विचारों की अप्रासंगिकता के कारण ख़त्म होने लगे। 2014 में पहली बार भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र में पहुंची। 2019 के चुनाव में उसने अपनी ताकत और बढाई। अब कई पुराने सोशलिस्ट या तो उनकी झालर बन चुके या फिर विपक्ष में होकर भी दुम हिलाने के लिए मजबूर हैं।
स्पष्टतया उसने अपना असली एजेंडा अब सामने ला लिया है। इसके साथ ही भारत में एक नए राजनैतिक दौर की शुरुआत हो चुकी है। बहुत संभव है निकट भविष्य में एक राजनैतिक संघनन हो। काँग्रेस, समाजवादियों और कम्युनिस्टों के अलग -अलग काम करने का अब कोई औचित्य नहीं है। भाजपा की कोशिश है विपक्षी दल एकजुट नहीं हों। विपक्षी दलों में कोई ऐसा राजनैतिक चेहरा नहीं है, जो मुल्क की राजनैतिक -आर्थिक स्थितियों से सुपरिचित हो और जो भाजपा की राजनैतिक चुनौती को कबूल कर सकने में सक्षम हो।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं|
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