मुद्दा

आन्दोलन की राह पर भारत के किसान

 

आज भारतीय किसान उद्वेलित है, आन्दोलन की राह पर है। भारत को गाँवों का देश माना जाता रहा है और गाँवों में अधिकांश आबादी का कृषि कार्य से जुड़े रहने के कारण भारत को कृषि प्रधान देश भी समझा जाता है। भारत की लगभग 60% आबादी आज भी कृषि पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आजीविका के लिए निर्भर है। दिन-रात मेहनत करने के बावजूद भारत का किसान आजादी के 70 वर्षों बाद भी गरीब का गरीब ही बना हुआ है। खेती की उपज का अलाभकारी मूल्य, अपर्याप्त सिंचाई की सुविधा और वर्षा पर निर्भरता एवं कर्ज की मार से परेशान किसानों ने पिछले 2-3 दशकों में मुक्ति के लिए आत्महत्या की राह अपना रखी है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, 1995 से 2015 के बीच, यानी 20 वर्षों में देश में तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। ये आँकड़े बेहद चिन्ताजनक और विचलित करने वाले हैं।  किसान संगठन तो मानते हैं कि असल में किसानों की आत्महत्या की संख्या इससे काफी ज्यादा है, क्योकि बड़ी संख्या में मामले सरकारी रिकार्ड या पुलिस थाने में दर्ज ही नहीं हो पाते।

किसानों की दशा सुधारने के लिए सरकार दर सरकार बड़े-बड़े वादे किए जाने के बावजूद हालात में कोई परिवर्तन न आने पर किसानों के सब्र का बाँध टूट जाना स्वाभाविक है। भारतीय किसान का संगठित न होना और चुनावों के नतीजों को प्रभावित न कर पाना भी, हर सरकार द्वारा उसकी उपेक्षा किए जाने और सब्जबाग दिखाकर ही काम पूरा समझने का सबब रहा है। पर अब देश के किसान ने समझ लिया है कि उसे उसका वाजिब हक संगठित होकर खुद ही हासिल करना होगा। यही वजह है कि पिछले वर्ष कई बार बड़ी संख्या में किसान अपनी माँगों के लिए सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए देश भर में सड़कों पर उतरे।

पिछले वर्ष 30 नवम्बर को दिल्ली में ‘किसान मुक्ति मार्च’ में देश भर से आए एक लाख किसानों ने भाग लिया। इस मार्च का आयोजन ‘ऑल इण्डिया किसान संघर्ष समन्वय समिति’ ने किया, जो 200 से अधिक किसान संगठनों का मंच है। किसानों की परेशानी इतनी बड़ी है और इनमें इतनी ज्यादा बेचैनी है कि पिछले कुछ महीनों में ही किसानों ने सरकार पर दबाव बनाने के लिए दिल्ली में ही तीन बार बड़ी संख्या में जूटकर प्रदर्शन किया है।

राजधानी दिल्ली में 30 नवम्बर के किसानों के मार्च में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों एवं कई अन्य  सामाजिक संगठनों का समर्थन और सहयोग मिलना इस बात की ताकीद करता है कि अपने लगातार आन्दोलनों से किसान अपनी समस्याओं की ओर देश का ध्यान आकर्षित करने में सफल हो रहे हैं। दिल्ली में देश भर से आए किसानों के प्रदर्शन के अलावा देश के कई राज्यों जैसे महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश, ओडिशा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु के किसानों ने भी अपनी मांगों को मनवाने के लिए अपने-अपने राज्यों में आन्दोलन-प्रदर्शन किया है। इसी क्रम में मध्यप्रदेश के मन्दसौर में किसानों के शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस द्वारा गोली चालन में 6 किसानों को अपनी जान भी गँवानी पड़ी।

वर्तमान केन्द्र सरकार के दौरान किसानों की स्थिति और बिगड़ी है। मौजूदा सरकार के स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार कृषि उपज की लागत पर पचास फीसदी मुनाफा जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के वायदे से मुकरने से किसान खासा नाराज है। उनको इस बात से हैरानी है कि जिस सरकार ने कुछ कार्पोरेट घरानों के लाखों करोड़ के कर्ज बेहिचक माफ किए हैं, जिसके रहते बैंकों के बड़े  कर्जदार भी देश छोड़कर चंपत हो जाते हैं, वह सरकार लाखों किसानों की आत्महत्या के बावजूद उनकी समस्याओं के निपटारे के प्रति पूरी तरह उदासीन है या महज जुबानी खानापुरी कर रही है।

अब जब किसानों ने अपना एक मजबूत संगठन बनाने में सफलता पा ली है और अपनी समस्याओं की ओर देश का ध्यान खींचने में सफल रहे हैं, तो अपने आन्दोलन को मुकाम तक पहुँचाने और सरकार को कृषि संबंधी समस्याओं के निपटारे के लिए विवश करने के लिए उन्होंने संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की है, जिसमें किसानों के कर्ज और कृषि उत्पाद को लेकर पेश किए दो प्राइवेट मेम्बर्स के बिल पारित किए जाएँ। दिल्ली में आयोजित इस ऐतिहासिक किसान मुक्ति मार्च के अवसर पर किसानों की प्रतिनिधि सभा ने भारतीय किसानों का घोषणा-पत्र भी अंगीकृत और जारी किया

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मधुरेश कुमार

लेखक जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समनवय (NAPM) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं। सम्पर्क- kmadhuresh@gmail.com
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