बालिका जननांग का अंगच्छेदन (फिमेल जेनिटल म्यूटिलेशन – एफजीएफ) या सरल भाषा में कहें तो बालिकाओं का खतना एक मध्यकालीन अमानवीय प्रथा है जो धर्म के नाम पर कुछ मुसलिम समाजों में आज की 21वीं सदी में भी जारी है। किसी भी आधार पर इसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता अत: इस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस पर रोक लगाने की दिशा में एक प्रस्ताव भी पारित किया है। धर्म की आड़ में चलने वाली इस क्रूरता के पीछे है स्त्री की देह और उसकी यौनिकता पर नियंत्रण रखने की सामंती पुंसवादी मानसिकता। यह प्रथा साफ-साफ महिला और बाल अधिकारों का हनन है। भारत के दाऊदी बोहरा मुसलिम समाज और केरल के कुछ सुन्नी मुसलमानों में भी यह कुप्रथा प्रचलित है जो हमारे समतामूलक संविधान के लिए अपमान और शर्मिंदगी की बात है। संविधान द्वारा लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव प्रतिबंधित है किंतु फिर भी धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर हमारा दाऊदी बोहरा समाज इसके पक्ष में कुतर्क देने से बाज नहीं आता।
मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने बालिका खतना के मसले पर सुनवाई करते हुये विगत 9 जुलाई को टिप्पणी की कि धर्म के नाम पर स्त्री की दैहिक निजता और शरीर पर हमला अस्वीकार्य है। इसी के साथ अदालत ने कहा कि बालिका खतना पोक्सो कानून के तहत अपराध माना जाना चाहिए जिसके लिए महान्यायविद् के के वेणुगोपाल ने सात साल की सज़ा का उल्लेख करते हुये अदालत से समुचित दिशा निर्देश देने का भी अनुरोध किया।
ध्यातव्य है कि यौन अपराधों से संबंधित बाल संरक्षण अधिनियम (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट – पोक्सो) यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे अपराधों से बच्चों की सुरक्षा के लिए बनाया गया था। छोटी-छोटी बच्चियों के खतने को इसी कानून के तहत अदालत ने अपराध ठहराये जाने की अनुशंसा की है किंतु यह तर्क भी वाजिब है कि माँ-बाप की सहमति से होने वाले खतने को इस कानून के तहत क्या अपराध ठहराना जा सकता है. वैसे चाहे पोक्सो कानून के तहत बच्चियों के खतने को अपराध मानना विधिसंगत हो या न हो, किंतु मानवता की कसौटी यह क्रूर कृत्य निश्चय ही जघन्य अपराध है।
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अस्तु, खतना जैसे कृत्य को हम सामान्य अपराध की श्रेणी में नहीं रख सकते क्योंकि यह अपराध माँ-बाप और परिजनों की सहमति से एक धार्मिक प्रथा के तहत किया जाता है अत: इस धार्मिक-सामाजिक बुराई को दूर करने के लिए धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन चलाना पड़ेगा। खतना जैसी अमानवीय प्रथा के नाम पर पूरे के पूरे एक अल्पसंख्यक समाज को अपने राजनीतिक उत्साह में अपमानित करना और मात्र कानून बनाकर स्वयं को मुसलिम स्त्रियों का मसीहा दिखाना अल्पसंख्यक समाज में खतना को लेकर आमूलचूल बदलाव लाने की जगह इस समाज को ज्यादा प्रतिक्रियावादी ही बनायेगा। बच्चियों का खतना रोकने के लिए अलग से विशिष्ट कानून तो बनाया जाना चाहिए लेकिन मात्र कानून बनाकर बच्चियों के खतने को दंडात्मक अपराध घोषित करने से काम नहीं चलेगा।
भारतीय सेकुलरवाद की राजनीतिक परिभाषा में निहित तुष्टिकरण की गलत नीति के चलते इस प्रकार की स्त्री विरोधी धार्मिक परंपरा के खिलाफ सरकारें मुकम्मल कदम नहीं उठा पाती हैं। बालिकाओं का खतना रोकने की मांग समय-समय पर स्वयं दाऊदी बोहरा समाज के अंदर से भी कुछ प्रबुद्ध लोगों द्वारा उठाई जाती रही है, जैसे दाऊदी बोहरा समाज से ही आने वाली मसूमा रनाल्वी बकायदा इस कुप्रथा के खिलाफ मुहिम छेड़े हुये हैं। उन्होंने इस गलत परंपरा के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् में अब तक का पहला निवेदन भी भारत की ओर से प्रस्तुत किया है। लेकिन राजनीतिक नफे-नुकसान के गणित के चलते कोई भी राजनीतिक पार्टी और कोई भी सरकार इस स्त्री विरोधी प्रथा के खिलाफ कोई ईमानदार कदम आज तक नहीं उठा पाई है।
प्रधानमंत्री बहुधा मुसलिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता की बात बोलते रहते हैं। अभी हाल ही में उन्होंने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर मुसलिम पुरुषों की पार्टी होने का आरोप लगाया है किंतु दाऊदी बोहराओं के आध्यात्मिक गुरु सैय्यदाना से उनका दीर्घकालीन मेलजोल कोई छिपी बात नहीं है। केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री द्वारा इस प्रथा को खत्म करने के लिए कानून तक लाने का वादा किया गया था किंतु आज तक सरकार इस बावत कोई कानून नहीं ला पाई हैं। एक तरफ केरल के कुछ सुन्नी समुदायों में बालिका खतना के प्रचलन पर वहाँके स्थानीय भाजपाई नेता सत्तारूढ़ भाकपा (मार्क्सवादी) पर सवाल उठाते हैं किंतु दूसरी तरफ गुजरात और केंद्र की भाजपा सरकारें इस मुद्दे पर मौन साध लेती हैं।
धार्मिक अस्मिता और उससे जुड़ी परंपराओं का सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि धर्म के परदे में बच्चियों पर जा रही क्रूरता का हम मौन खड़े समर्थन या प्रोत्साहन करते रहें। और न ही एक धर्म विशेष के अनुयायियों को चिढ़ाने के लिए, उन्हें नीचा दिखाने के लिए उनके समाज की स्त्रियों का पक्षधर होने का दिखावा करना चाहिए। दूसरे धर्म और दूसरे समाज की स्त्री विरोधी कुप्रथाओं की आलोचना करना किंतु अपने समाज, अपने धर्म के पुंसवादी चरित्र पर बगुला भगत बने रहना चरित्रगत दोगलेपन का व्यंजक है। अस्तु, दाऊदी बोहरा समाज हो या केरल का सुन्नी समाज हो, उन्हें समझाने की जरूरत है कि उन्हें स्वयं आगे बढ़कर अपने धर्म और समाज में बच्चियों और स्त्रियों को लेकर सुधार की पहल करनी चाहिए।