लिए लुकाठी हाथ

कूड़ादान

 

 सुबह घंटी बजी। सुबह का समय घंटियों का होता है। मंदिर में बजने वाली घंटियों की बात नहीं कर रहा हूं, क्योंकि मंदिरों के मामले पेचीदा होने लगे हैं और न्यायालय तक पहुचंने लगे हैं। मैं सुबह-सुबह भिन्न-भिन्न समय पर, भिन्न-भिन्न कामों के लिए बजने वाली घंटियों की बात कर रहा हूं। सुबह दूधवाला, कूड़ेवाला, सब्जीवाला, कामवाली आदि हमारे सेवार्थ आते हैं और घंटिया बजाते हैं। हम द्वारपाल बने इनके लिए द्वार खोलते रहते हैं। सबका समय लगभग निश्चित है। इतना निश्चित कि अपने समय पर कामवाली घंटी न बजाए तो दिल डूबने लगता है। बड़ी खराब आदतें डाल दी हैं इन घंटियों ने। कूड़े वाले द्वारा टाईम पर घंटी बजाते ही हम कूड़ादान उठाते हैं, दरवाजा खेलते हैं, उसे थमाते हैं और दरवाजा बंद कर देते हैं। प्रजातंत्र में भी तो चुनाव की घंटी बजते ही ऐसे ही कूड़े का दान दिया जाता है।

 एक दिन, कूड़ेदान के समय पर घंटी बजी तो मैंने आदतन दानार्थ कचरा उठाया, द्वार खोला, कचरा पकड़ाया और दरवाजा बंद कर दिया। हमें कूड़ादान करने से मतलब होता है, किसको दान कर रहे हैं उससे क्या लेना? हमें तो इससे मतलब है कि अपने घर का कचरा बाहर गया, कहां गया और कौन ले गया, इससे क्या मतलब! उस दिन तत्काल दूसरी घंटी बजी। अब ‘ये कौन आ मरा’ टाईप भावना से मैंने पुनः द्वार खोला। मेरे सामने मेरे कॉलेज का भूतपूर्व सहकर्मी भाटिया खड़ा था। भाटिया के हाथ में मेरे द्वारा दान किया कचरा था और वह हाथ में कचरा लिए, रुपए के भयंकर अवमूल्यन-सा गिरा, लज्जित खड़ा था। भाटिया कॉलेज में पढ़ाता है और दीमागी कचरा साफ करता है, पर मैंने…। मैं कॉलेज से सेवानिवृत हो चुका हूं पर मेरे कुछ मित्र अभी भी शिक्षक बन देश की ‘सेवा’ कर रहे हैं। यह वैसी वाली सेवा नहीं है जैसी सेवा हमारे देशसेवक मंत्री-संत्री अथवा देश के चौकीदार बन करते हैं।

 मैं कॉलेज से निवृत्त हो चुका हूं पर बड़ी बात है कि मेरे कुछ सहयोगियों ने मुझे अपनी मित्रता से निवृत्त नहीं किया है। मुझे कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए वर्षों हो गए इसके बावजूद वे मेरे मित्र बने हुए हैं। अन्यथा होता तो ये है कि संस्थान से सेवानिवृत्त होते ही, बहुत देर से जल रहे दीये की धीमी पड़ती लौ जैसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध अंततः वीरगति को प्राप्त होते हैं। मुझे अच्छा लगता है कि संवादहीनता के दौर में भाटिया जैसे दुर्लभ प्राणी मेरी जिंदगी में हैं। पर उस दिन तो मैंने घंटीकाल के कारण उसका कचरा कर दिया था।

मैं किसी हारे नेता की खिसियानी हंसी हंसते हुए भाटिया को अंदर लाया। भाटिया बतरसी है अतः मैंने बतरस का आनंद लेने के लिए पूछा- और कॉलेज में क्या चल रहा है?’’

 भाटिया गिरते सेंसेक्स के कारण किसी निवेशक-सा उदास हो गया और बोला- पढ़ाई के इलावा सब चल रहा है। स्टूडेंट भावशून्य आपकी ओर ऐसे देखता है जैसे चुनौती दे रहा हो- पढ़ा के तो दिखा। कॉलेज ‘सांकृतिक सप्ताह’ के नामपर अय्याशी का अवसर बन गए हैं। डरपोक प्रिंसिपल कबूतर-सा आँख बंद किये कमरे में एक बार देखी फाइलों में पुनः सर गड़ाये व्यस्त दिखने की नौटंकी करता है। पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस होता है और उस दिन ट्विटर, दूरदर्शन पर भाषणों द्वारा गुरुओं का वंदन किया जाता है। पर गुरु कहता है- हमारा वंदन न करें, हमारा क्रंदन सुनें। ये क्रंदन केवल शिक्षक दिवस के लिए नहीं है। ये क्रंदन तो पिछले अनेक वर्षो से हो रहा है। बस अंतर इतना है कि पहले सहनीय था अब असहनीय हो चला है।

मैंने कहा- तू कबीर नहीं है, भाटिया है, काहे उदास होता है। कबीर ने गुरु को गोविंद से श्रेष्ठ बताया है।

भाटिया ने चाय के साथ बिस्कुट को ऐसे कुतरा जैसे आजकल शिक्षा कुतरी जा रही है। बोला- गुरुदेव! एक समय था जब खेलने-कूदने वाले खराब होते थे और पढ़ने वाले नवाब होते थे। आजकल नवाब बनने के लिए खेलना कूदना पड़ता है। पहले खेल के मैदान, मैदानों में होते थे, आजकल संसद के गलियारों, न्यायालय, मंदिर-मस्जिद, मॉल-शॉल, साहित्य-वाहित्य, अफतर-दफतर, कंक्रीट के जंगल में- जहाँ, तहाँ और वहाँ, खेल चालू हैं। जो जितना ‘दंगई खेल’ खेलता है उतना ही जीतता है। जीतने वाले को नवाब कहते हैं। नवाब कभी हारा नहीं करते। आजकल के नवाब तो पूरा खेल खरीद लेते हैं। एक बार नवाब बन जाएँ तो बिना खेले जीत सकते हैं। आप मुझे कह रहे थे कि तू कबीर नहीं है, काहे उदास होता है। ये कबीरों का जमाना भी नहीं है। शिक्षा प्रोडेक्ट बन गयी है। जब नैतिकताएं प्रोडेक्ट बन गई हैं तो शिक्षा ….। आजकल शिक्षा नहीं दी जाती प्रक्षिशित किया जाता है। या तो शिक्षा का व्यापार करें या फिर अपने पर हँसें। संवेदनशील कमजोर होता है, वह दूसरे पर नहीं अपने पर हंसने की हिम्मत रखता है। दर्द जितना बड़ा होता है उसकी मजबूरी उतना ही उसे अपने पर हँसने को मजबूर करती है। आप अपने ‘मनुष्य’ होने पर हँस रहे होते हैं कि आप मनुष्य का अनमोल जन्म पाए जीव हैं पर अनमोल सुख लग्जरी कार में बैठा कुत्ता उठा रहा है।

चलिए, छोड़िए ये रोना, जितना रोएँगें, उतने आँसू सूखेंगें। शिक्षा पर हमने बहुत कचरा फैलाया है। ये हम पढ़े-लिखों का कचरा है। न जाने इसके कूड़ेदान का कब स्वच्छता अभियान आंरभ होगा। 11 बजे की क्लास है, चलूँ दीवारों को पढ़ा आऊँ

मैंने हँसकर कहा, “मेरी शुभकामना, तुम्हें कान वाली एक दीवार तो मिली।”

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प्रेम जनमेजय

लेखक प्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं ‘व्यंग्य यात्रा ’ के संपादक हैं। सम्पर्क +919811154440, premjanmejai@gmail.com
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