सादा जीवन उच्च विचार : देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
आजाद भारत के असली सितारे: 28
गाँधी जी के सम्पर्क में आने के बाद जिनके जीवन की दिशा पूरी तरह बदल गयी उनमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (3.12.1884 -28.2। .1963) अन्यतम हैं। राजेन्द्र प्रसाद का जन्म एक संपन्न जमींदार परिवार में हुआ था। कलकत्ता विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रेसींडेंसी कॉलेज के वे गोल्ड मेडलिस्ट थे। लॉ के डॉक्टोरेट थे। सफल वकील थे। किन्तु चम्पारण में जब वे गाँधी जी के सम्पर्क में आए तो सबकुछ छोड़कर उन्हीं के होकर रह गये। गाँधी जी पर उनका इतना विश्वास था कि चौरी चौरा कांड के समय जब गाँधी जी ने आन्दोलन वापस ले लिया और उनके इस निर्णय का किसी ने भी समर्थन नहीं किया तब भी राजेन्द्र प्रसाद गाँधीजी के निर्णय के साथ खड़े थे।
15 जनवरी 1934 को जब बिहार में विनाशकारी भूकंप आया उस समय राजेन्द्र प्रसाद जेल में थे। दो दिन बाद रिहा होते ही वे धन जुटाने और राहत के कार्यों में लग गये। वायसराय की तरफ से भी इस आपदा के लिए धन एकत्रित किया गया था। राजेन्द्र प्रसाद ने वायसराय से तीन गुना ज्यादा यानी, तीस लाख अस्सी हजार रूपए एकत्र किए थे। राष्ट्रपति बनने के बाद वे अपने वेतन का आधा ही लेते थे बाकी देशहित के लिए छोड़ देते थे। उनका कहना था कि इतने से ही उनका काम चल जाता है। उनके परिवार के किसी भी सदस्य या सम्बन्धी ने उनके पद का कोई लाभ नहीं उठाया। वे अकेले ऐसे राष्ट्रपति थे जो पद से हटने के बाद पटना के सदाकत आश्रम में स्थित एक खपड़ैल के मकान में रहने लगे। अपने अन्तिम दिनों में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बाहर कहीं अपना इलाज कराना भी मुनासिब नहीं समझा और वहीं 28 फरवरी 1963 को उन्होंने अन्तिम साँस ली। गाँधी जी को अपना आदर्श मानने वाले उनके सच्चे अनुयायी राजेन्द्र प्रसाद का जीवन सादगी, सच्चाई, ईमानदारी और विनम्रता की मिसाल था।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम महादेव सहाय और माता का नाम कमलेश्वरी देवी था। उनके दादा हथुआ रियासत में दीवान थे। उनकी अपनी जमींदारी भी थी जिसकी देखभाल उनके पिता करते थे। राजेन्द्र प्रसाद अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे।
पाँच वर्ष की आयु में राजेन्द्र प्रसाद की शिक्षा फारसी से शुरू हुई। एक मौलवी उन्हें फारसी पढ़ाने लगे। बाद में उन्हें हिन्दी और अंकगणित सिखाई गयी। मात्र 13 साल की उम्र में राजेन्द्र प्रसाद का विवाह राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं आयी। आगे की शिक्षा के लिए वे जिला स्कूल छपरा गये। उसके बाद 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवेश की परीक्षा दी जिसमें उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। 1902 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध और शिक्षा के लिए मशहूर प्रेसीडेंसी कॉलेज (संप्रति प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी) में प्रवेश लिया। उन्हें तीस रूपए मासिक छात्रवृत्ति भी मिलने लगी। वे प्रेसीडेंसी कॉलेज के हिन्दू छात्रावास में रहते थे।
छात्रावास के द्वार पर उनकी प्रतिमा आज भी लगी हुई है। इस दौरान वे सामाजिक कार्यों से भी जुड़े रहे। स्वदेशी आन्दोलन का प्रचार भी उन दिनों जोरों पर था। लोग विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर रहे थे। राजेन्द्र बाबू ने उन्हीं दिनों विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके स्वदेशी अपनाना शुरू कर दिया था। उन्होंने कलकत्ता में ‘बिहारी क्लब’ भी बनाया जिसके द्वारा उन्होंने बिहार की स्थिति सुधारने और वहाँ के छात्रों की मदद करने का कार्य किया। बाद के वर्षों में यह क्लब कल्याणकारी कार्यों का एक प्रतिष्ठित मंच बना। इन सबके द्वारा राजेन्द्र प्रसाद के सार्वजनिक जीवन का प्रशिक्षण होता रहा। राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1907 में अर्थशास्त्र में एम.ए. किया।
1910 में राजेन्द्र प्रसाद की भेंट गोपालकृष्ण गोखले से हुई। गोखले उन दिनों ऐसे होनहार छात्रों की तलाश में थे जो उनके द्वारा हाल ही में स्थापित सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी से जुड़कर देश की सेवा में सहयोग कर सकें। उस समय के प्रसिद्ध बैरिस्टर परमेश्वरी लाल ने राजेन्द्र प्रसाद का नाम उन्हें सुझाया और उनसे मिलाया भी। गोपालकृष्ण गोखले से मिलने के बाद राजेन्द्र प्रसाद आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिये बेचैन हो उठे। मगर उनके ऊपर परिवार की भी जिम्मेदारी थी। 15-20 दिन तक काफी सोचने-विचारने के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई महेन्द्र प्रसाद, जो उनके साथ ही रहते थे, को पत्र लिखा। पत्र देने की हिम्मत न होने के कारण उस पत्र को उन्होंने अपने बड़े भाई के बिस्तर के नीचे रख दिया। खत पढ़कर उनके बड़े भाई रोने लगे। वे सोचने लगे कि उनको क्या जवाब दें। बड़े भाई से सहमति मिलने पर ही राजेन्द्र प्रसाद स्वतंत्रता आन्दोलन में उतरे। इसी समय उन्होंने अपनी पत्नी राजवंशी देवी को भी भोजपुरी में पत्र लिखकर देश सेवा करने की अनुमति माँगी।
1912 में पटना उच्च न्यायालय की स्थापना हुई तो राजेन्द्र प्रसाद पटना उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। धीरे धीरे एक वकील के रूप में उन्हें अच्छी ख्याति मिलने लगी। 1915 में स्वर्ण पदक के साथ उन्होंने एलएलएम की परीक्षा पास की और उसके बाद लॉ में ही डॉक्टोरेट किया। दिसम्बर 1916 में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। इसमें राजेन्द्र प्रसाद शामिल हुए और उन्हें इसी अधिवेशन में लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत ऱॉय और दादा भाई नौरोजी जैसे महान देशभक्तों का भाषण सुनने को मिला। यहीं पहली बार गाँधी जी से भी उनकी भेंट हुई लेकिन संकोच के कारण उनसे कोई बातचीत न हो सकी।
1917 में बिहार के चम्पारण जिले में गाँधी जी ने अपना पहला सार्वजनिक प्रयोग किया था। वहाँ नील की खेती करने वाले किसानों को अंग्रेजों के शोषण और अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने सत्याग्रह आन्दोलन चलाया। चम्पारण पहुँचने के पहले ही वे तार द्वारा राजेन्द्र प्रसाद को सूचित और आमंत्रित कर चुके थे। पटना में उतरने के बाद गाँधी जी राजेन्द्र प्रसाद के ही घर ठहरे भी थे किन्तु संयोग से राजेन्द्र प्रसाद उस दिन अपने घर नहीं थे और उनके नौकर ने गाँधी जी को मुवक्किल समझकर उनकी समुचित देखभाल नहीं की थी जिसका अफसोस राजेन्द्र प्रसाद को जीवनभर रहा।
राजेन्द्र प्रसाद अपने स्वयंसेवकों के साथ चंपारण में गाँधी जी से मिले। जिस दिन राजेन्द्र प्रसाद की चम्पारण में गाँधी जी से पहली मुलाकात हुई थी उस रात गाँधी जी ने जगकर वाइसरॉय और भारतीय नेताओं को पत्र लिखे थे और कचहरी में पेश करने के लिए अपना बयान भी लिखा। उन्होंने केवल एक बार रुक कर राजेन्द्र प्रसाद और उनके साथियों से पूछा कि यदि उन्हें जेल भेज दिया गया तो वे क्या करेंगे। एक स्वयंसेवक ने हँसते हुए कहा कि तब उनका काम भी खत्म हो जायेगा और वे सब अपने घर चले जायेंगे। इस बात ने राजेन्द्र प्रसाद के दिल को छू लिया। वे सोचने लगे कि यह आदमी इस प्रान्त का निवासी नहीं है किन्तु यहाँ के किसानों के अधिकारों के लिये जेल जाने को भी तैयार है और हमारे जैसे ‘बिहारी’ घर चले जाने के बारे में सोच रहे हैं। वहाँ जो भी लोग थे उनमें से किसी ने भी कभी जेल जाने के बारे में नहीं सोचा था। अगली सुबह तक गाँधी जी के नि:स्वार्थ उदाहरण ने राजेन्द्र प्रसाद का दिल जीत लिया था और वे उनके साथ जेल जाने को तैयार थे।
चम्पारण की कचहरी में गाँधी जी का जज से जिरह एक ऐतिहासिक घटना है। गाँधी जी का निर्भीकता के साथ सत्य और न्याय पर अड़े रहने के कारणजज बहुत प्रभावित हुआ और मुक़दमा वापस ले लिया गया। अबगाँधी जी पूछताछ के लिए स्वतंत्र थे। यह सत्याग्रह की पहली विजय थी। राजेन्द्र प्रसाद चम्पारन आन्दोलन के दौरान गाँधीजी के वफ़ादार साथी बन गये। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप बिहार और उड़ीसा की सरकारों ने अंत में उनके द्वारा पेश की गयी रिपोर्टों के आधार पर एक अधिनियम पास करके चम्पारन के किसानों को वर्षों के अन्याय से छुटकारा दिलाया। राजेन्द्र प्रसाद अब हर तरह से गाँधी जी के अनुयायी बन चुके थे। वे याद करते हैं, ‘’हमारे सारे दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया था। हम नये विचार, नया साहस और नया कार्यक्रम लेकर घर लौटे। ‘’
इन दिनों राजेन्द्र प्रसाद के भीतर हो रहे परिवर्तनों के बारे में अनुपम मिश्र ने लिखा है, “गाँधी- रंग में रँगें राजेन्द्र बाबू फिर बिना किसी पद की इच्छा के देशभर घूमते रहे और सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में जितनी तरह की समस्याएँ आती हैं, उनके हल के लिए अपने पूरे मन के साथ तन अर्पित करते रहे और जहाँ जरूरत दिखी वहाँ धन भी जुटाते रहे ( satyagrah.scroll.in, 28.2.2020)
गाँधीजी के साथ निकटता के कारण उनके विचारों में एक क्रान्ति आ गयी। वे गाँधीजी के समाज-सुधार और मनुष्यता के विकास के कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। उन्होंने महसूस किया कि, “विदेशी ताकतों का हम पर राज करने का मूल कारण हमारी कमज़ोरी और सामाजिक ढाँचे में दरारें हैं। ” लेकिन समाज के बदलने से पहले हमें अपने को बदलने का साहस होना चाहिए। राजेन्द्र प्रसाद ने स्वीकार किया, “मैं ब्राह्मण के अलावा किसी का छुआ भोजन नहीं खाता था। ” गाँधीजी ने उन्हें समझाया कि जब वे साथ-साथ एक ध्येय के लिए कार्य करते हैं तो उन सबकी केवल एक जाति होती है अर्थात वे सब साथी कार्यकर्ता हैं। “
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सादगी की ओर तेजी से बढ़ने लगे। नौकरों की संख्या घटाकर एक कर दी। वे स्मरण करते हैं, “सच तो यह है कि हम सब कुछ स्वयं ही करते थे। यहाँ तक कि अपने कमरे में झाड़ू लगाना, रसोईघर साफ़ करना, अपना बर्तन माँजना-धोना, अपना सामान उठाना और अब गाड़ी में भी तीसरे दर्जे में यात्रा करना अपमानजनक नहीं लगता था। ” बिहार के लोगों ने प्रतिज्ञा की कि वे अस्पृश्यता जैसी कुरीति को हरिजनों के कल्याण के लिए कार्य करके मिटाएंगे। दक्षिण भारत को उन्होंने “अस्पृश्यता का गढ़” कहा। राजेन्द्र प्रसाद वहाँ सी. राजगोपालचारी के साथ गये और बहुत प्रयास किया कि मंदिरों के द्वार हरिजनों के लिये खोल दिये जायँ। उन्हें कुछ सफलता भी मिली। उन्होंने गाँव के कुँए का हरिजनों द्वारा उपयोग करने के अधिकार की लड़ाई भी लड़ी।
जनवरी सन् 1934 में बिहार में भूकम्प से भयंकर तबाही हुई थी। उस समय वे जेल में थे। दो दिन बाद जेल से रिहा हुए। राजेन्द्र प्रसाद अपनी अस्वस्थता के बावजूद राहत कार्य में जुट गये। , जिनके घर नष्ट हो गये थे, उन लोगों के लिये उन्होंनेभोजन, कपड़े और दवाइयाँ इकट्ठी की। भूकम्प के पश्चात् बिहार में बाढ़ और मलेरिया का प्रकोप हुआ, जिससे जनता की तकलीफें और भी बढ़ गयीं। इस दौरान राजेन्द्र प्रसाद ने समाज सेवा का एक आदर्श उपस्थित किया। इसी तरह पंजाब और सिंध में भी उन्होंने राहत कार्यों की मिसाल पेश की थी।
मार्च 1919 में ब्रिटिश सरकार ने रौलट एक्ट पास किया। इसके द्वारा जज राजनीतिक मुक़दमों को जूरी के बिना सुन सकते थे और संदेहास्पद राजनीतिक लोगों को बिना किसी प्रक्रिया के जेल में डाला जा सकता था। इसके विरोध में गाँधीजी ने पूरे देश में 6 अप्रैल 1919 को हड़ताल बुलाई। राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में “सारा काम ठप्प हो गया। यहाँ तक की गाँवों में भी किसानों ने हल एक ओर रख दिये”। लेकिन सरकार का अत्याचार बढ़ता ही गया। अमृतसर के जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को एक विरोध सभा हुई जिसे दबाने और सबक सिखाने के लिए जो नरसंहार हुआ उससे सभी परिचित हैं।
गांधी जी द्वारा छेड़े गये असहयोग आन्दोलन को सफल बनाने में राजेन्द्र प्रसाद ने अपने को पूरी तरह समर्पित कर दिया। पटना के निकट उन्होंने 1921 में एक नेशनल कॉलेज खोला। हज़ारों छात्र और प्रोफ़ेसर जिन्होंने सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार किया था यहाँ आ गये। फिर इस कॉलेज को गंगा के किनारे सदाकत आश्रम में ले जाया गया। अगले 25 वर्षों के लिये यही राजेन्द्र प्रसाद जी का घर था।
इस दौरान राजेन्द्र प्रसाद दूर-दूर की यात्राएँ करते, सार्वजनिक सभाएँ बुलाते और धन इकट्ठा करते रहे। उन्होंने लिखा है, “मुझे अब रोज़ सभाओं में बोलना पड़ता था इसलिए मेरा स्वाभाविक संकोच दूर हो गया।” उनके नेतृत्व में गाँवों में सेवा समितियों और पंचायतों का गठन हुआ। लोगों से अनुरोध किया गया कि विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करें, खादी पहनें और चर्खा कातना आरम्भ करें।
सरकार ने इसके उत्तर में अपना दमन चक्र चलाया। लाला लाजपत रॉय, जवाहरलाल नेहरू, देशबंधु चितरंजन दास, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे प्रमुख नेताओं के साथ हज़ारों लोग गिरफ्तार कर लिए गये। यह पूरा आन्दोलन अहिंसक था। लेकिन फ़रवरी सन् 1922 में चौरी चौरा में अचानक हिंसक घटना होने पर गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया। उन्हें लगा कि हिंसा न्यायसंगत नहीं है और राजनीतिक सफलता को कुछ समय के लिये स्थगित किया जाना ही अच्छा है जिससे नैतिक असफलता से बचा जा सके। कई नेताओं ने आन्दोलन को स्थगित करने के लिये गाँधी जी की कड़ी आलोचना की लेकिन राजेन्द्र प्रसाद ने दृढ़ता के साथ गाँधी जी का साथ दिया।
नमक सत्याग्रह का आरम्भ गाँधी जी ने 1931 में समुद्र तट की ओर यात्रा करके दांडी में नमक क़ानून का उलंघन करके किया। नमक की ज़रूरत हवा और पानी की तरह सब को है। उन्होंने महसूस किया कि नमक पर कर लगाना अमानुषिक कार्य था। यह पूरे राष्ट्र को सक्रिय होने का संकेत था। बिहार में नमक सत्याग्रह का आरम्भ राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में हुआ जिसमें कई स्वयंसेवक गम्भीर रूप से घायल हुए। राजेन्द्र प्रसाद अपने कई साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिए गये।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 1934 में बंबई में हुए काँग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। उन्होंने गाँधी जी की सलाह से अपने अध्यक्षीय भाषण को अन्तिम रूप दिया था। इसके बाद जब1939 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने गाँधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए काँग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था उस समय भी वे अध्यक्ष चुने गये थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन ने महसूस किया कि अब भारत के साथ और अधिक समय चिपके रहना कठिन है। ब्रिटिश प्रधानमन्त्री क्लिमेंट रिचर्ड एटली ने घोषणा की कि वे भारतीय नेताओं के साथ देश के विधान और सत्ता परिवर्तन के बारे में विचार-विमर्श करेंगे। स्वाधीनता निकट ही दिखाई दे रही थी। 1946 में केन्द्रीय और प्राँतीय विधान मंडलों के चुनाव और एक अंतरिम राष्ट्रीय सरकार बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया था। इसी वर्ष जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बारह मंत्रियों के साथ एक अंतरिम सरकार बनी। राजेन्द्र प्रसाद कृषि और खाद्य मन्त्री नियुक्त हुए। यह काम उन्हें पसन्द था और वे तुरन्त काम में जुट गये।
देश में इस समय खाद्य पदार्थों की बहुत कमी थी और उन्होंने खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने के लिये एक योजना भी बनाई किन्तु इन्हीं दिनों जिन्ना ने ‘डायरेक्ट ऐक्सन डे’ का नारा दे दिया। कलकत्ता में 72 घंटे में 20 हजार से अधिक लोग मारे गये, 30 हजार से अधिक घायल हुए और कई लाख बेघर हो गये। पूर्वी बंगाल के नोआखाली जिले में हिन्दुओं का व्यापक कत्लेआम हुआ। राजेन्द्र प्रसाद ने जवाहर लाल नेहरू के साथ दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करते हुए, लोगों से अपना मानसिक संतुलन एवं विवेक बनाए रखने की अपील की। इन्हीं परिस्थितियों में 15 अगस्त,1947 को आज़ादी मिली। राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेताओं का अखण्ड भारत का सपना पूरा न हो सका।
भारत के स्वतन्त्र होने के बाद संविधान लागू होने पर उन्हें देश का पहला राष्ट्रपति चुना गया। राष्ट्रपति बनने पर भी उनका राष्ट्र के प्रति समर्पित जीवन चलता रहा। उन्होंने भारत की जनता के साथ अपना निजी सम्पर्क बनाए रखा। वे आमतौर पर रेलगाड़ी द्वारा यात्राएँ करते थे और छोटे-छोटे स्टेशनों पर रुककर सामान्य लोगों से मिलते रहते थे। राष्ट्रपति के रूप में भी उनकी सादगी यथावत बनी रही। उनकी सादगी और ईमानदारी के बारे में कई तरह के प्रसंगों की चर्चा होती हैं। उन्हीं में से एक प्रसंग है तुलसी के बारे में।
राष्ट्रपति का एक पुराना नौकर था, तुलसी। एक दिन सुबह कमरे की झाड़-पोंछ करते हुए उससे राजेन्द्र प्रसाद के डेस्क से एक हाथी-दाँत की कलम नीचे ज़मीन पर गिर गयी। कलम टूट गयी और स्याही कालीन पर फैल गयी। राजेन्द्र प्रसाद बहुत गुस्सा हुए। यह कलम किसी की भेंट थी और उन्हें बहुत ही पसन्द थी। तुलसी इसके पहले भी कई बार लापरवाही कर चुका था। उन्होंने अपना गुस्सा दिखाने के लिये तुरन्त तुलसी को अपनी निजी सेवा से हटा दिया।
उस दिन वे बहुत व्यस्त रहे। कई प्रतिष्ठित व्यक्ति और विदेशी पदाधिकारी उनसे मिलने आये। मगर सारा दिन काम करते हुए उनके दिल में एक काँटा सा चुभता रहा। उन्हें लगता रहा कि उन्होंने तुलसी के साथ अन्याय किया है। जैसे ही मिलने वालों से अवकाश मिला, राजेन्द्र प्रसाद ने तुलसी को अपने कमरे में बुलाया। पुराना सेवक अपनी ग़लती पर डरता हुआ कमरे के भीतर आया। उसने देखा कि राष्ट्रपति सिर झुकाये और हाथ जोड़े उसके सामने खड़े हैं। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “तुलसी मुझे माफ कर दो। ” तुलसी इतना चकित हुआ कि उससे कुछ बोला ही नहीं गया। राष्ट्रपति ने फिर नम्र स्वर में दोहराया, “तुलसी, तुम क्षमा नहीं करोगे क्या?” इस बार सेवक और स्वामी दोनों की आँखों में आँसू आ गये।
राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने कभी भी अपने संवैधानिक अधिकारों में प्रधान मन्त्री या काँग्रेस को दखलंदाजी करने का मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से कार्य करते रहे। हिन्दू अधिनियम पारित करते समय उन्होंने काफी कड़ा रुख अपनाया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कई ऐसे दृष्टान्त छोड़े जो बाद में उनके परवर्तियों के लिए उदाहरण बन गये।
भारत का संविधान लागू होने से एक दिन पहले अर्थात् 25 जनवरी 1950 को उनकी बड़ी और सर्वाधिक प्रिय बहन भगवती देवी का निधन हो गया, लेकिन वे भारतीय गणराज्य की स्थापना की रस्म के बाद ही दाह संस्कार में भाग लेने गये। 12 वर्ष तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने के पश्चात उन्होंने 1962 में अवकाश लिया और उसके बाद सदाकत आश्रम में रहने चले गये। अवकाश लेने के बाद 1962 में राष्ट्र ने उन्हें ‘भारत रत्न’ के सर्वोच्च सम्मान से विभूषित किया किन्तु देश की जनता सम्मान में उन्हें ‘राजेन्द्र बाबू’ या ‘देशरत्न’ कहना अधिक पसंद करती है।
सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था – “उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है। गाँधी जी के निकटतम शिष्यों में उनका वही स्थान है जो ईसा मसीह के निकट सेंट जॉन का था। “
यह भी पढ़ें – महात्मा के महात्मा : श्रीमद् राजचन्द्र और महात्मा गाँधी
राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि शिक्षा जनता की मातृभाषा में होनी चाहिए। हिन्दी के प्रति उनमें अगाध प्रेम था। ‘भारत मित्र’, ‘भारतोदय’, ‘कमला’ आदिहिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख छपते रहते थे। 1912 ई. में जब अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ तब वे स्वागत समिति के प्रधान मन्त्री थे। इसी तरह 1920 ई. में जब अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 10वाँ अधिवेशन पटना में हुआ तब भी वे प्रधान मन्त्री थे। 1926 ई. में वे बिहार प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के और 1927 ई. में उत्तर प्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति चुने गये थे। उन्होंने हिन्दी के ‘देश’ और अंग्रेजी के ‘पटना लॉ वीकली’ समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।
खेद का विषय है कि जहाँ औसत दर्जे के नेताओं के नाम पर देश में अनेक शिक्षण संस्थाएँ मौजूद हैं वहाँ देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के नाम पर देश या विदेश में कहीं भी कोई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्था नहीं है। उनके जन्मदिन को भी किसी विशिष्ट स्मारक के रूप में स्मरण नहीं किया जाता है।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की कई महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें ‘आत्मकथा’, ‘चम्पारण में सत्याग्रह’, ‘इंडिया डिवाइडेड’, ‘महात्मा गाँधी एंड बिहार’, ‘द यूनिटी ऑफ इंडिया’, ‘ऐट द फीट ऑफ महात्मा गाँधी’, ‘संस्कृत और संस्कृति’, ‘भारतीय शिक्षा’, ‘गाँधी जी की देन’, ‘साहित्य, शिक्षा और संस्कृति’, ‘खादी का अर्थशास्त्र’ और ‘असमंजस’ प्रमुख हैं।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पोती डॉ. तारा सिन्हा ने ‘युग पुरुष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद’ के नाम से जीवनी लिखी है जिसे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पर लिखी गयी सर्वाधिक प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है।
सादगी की प्रतिमूर्ति इस महापुरुष की पुण्यतिथि पर हम उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।