दास्तान-ए-दंगल सिंह (92)
बड़हिया प्रकरण में कई ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें चाहकर भी भूल नहीं सकता हूँ। दर्जनों विद्यार्थियों व अभिभावकों ने अलग-अलग ढंग से कुलपति पर मेरा तबादला निरस्त करने का दबाव बनाया था। इनमें से एक छात्र का प्रयास बड़ा ही अनोखा और मर्मस्पर्शी था। झारखंड के गाँव बनियाडीह का रंजीत यादव हिंदी ऑनर्स का छात्र था। उसने कुलपति प्रो0 यादव को एक अंतरदेशीय पत्र लिखा था। उस पत्र में उसने मेरी प्रशंसा करते हुए चेतावनी दी थी कि यदि उसके गुरुजी को वापस नहीं लाया गया तो वह विश्वविद्यालय में आत्मदाह कर लेगा। संयोगवश वह पत्र कुलपति जी के हाथों में पहुँचने से पहले उनके सचिवालय के लोगों द्वारा पढ़ लिया गया था। यदि उनको मिल जाता तो कहना कठिन है कि वे उसका क्या करते! एक हितैषी ने वह पत्र मुझे भिजवा दिया था। मैंने उस गुरुभक्त को बुलाकर काफी समझाया तो वह शांत हुआ था। वह अंतरदेशीय पत्र मेरे पास संरक्षित है एक अमूल्य धरोहर की तरह।
इसके बिल्कुल विपरीत अनुभव का एक प्रसंग है। तबतक यह रहस्य लगभग जगजाहिर हो चुका था कि मेरा तबादला कैसे और किसने करवाया था। उस नराधम राजनेता से जुड़े एक स्थानीय जनप्रतिनिधि मेरे रिश्तेदार हैं। मेरी अनुपस्थिति में मेरे कुछ छात्र उनसे मिले और मुझे वापस लाने के लिए बात करने का अनुरोध करने लगे। सबकी बात सुन लेने के बाद उनका जवाब था, “यह तो तुमलोग कह रहे हो। पवन बाबू क्यों नहीं बोलने आये?” लड़कों में से एक ने जवाब दिया, “क्या अंकल, पवन सर आपको बोलेंगे तब आप उनका हित सोचेंगे? कम से कम हम छात्रों का और समाज का हित भी तो सोचिए!” यह बात छात्रों ने बतायी तो मुझे बचपन में सुनी एक कहावत याद आ गयी, ‘मोची गिर गया कुएँ में तो मेंढक ने कहा, बड़े संयोग से आये हो। मेरे जूते का भी नाप लेते जाओ।’ अज्ञात कारणों से मुझसे नाराज चल रहे एक स्वजातीय टुच्चे ने तो यह हवा उड़ाई थी कि उसी ने अपने आका से शिकायत करके मुझे बड़हिया भिजवाया है। पिंजरे में कैद योद्धा को कायरों की भीड़ कंकड़ मारती होगी तो कैसा महसूस होता होगा! कुछ-कुछ वैसा ही मुझे महसूस हुआ था।
रहिमन चुप ह्वै बैठिये, देख दिनन को फेर।
जब नीके दिन आइहें, बनत न लगिहैं देर।।
दैनिक रेलयात्रा करने वाले लोग आपसी सहयोग और सामंजस्य से कई प्रकार की सुविधाएँ विकसित कर लेते हैं। पहले चलने वाले साथी अगले स्टेशनों पर सवार होने वाले सहयात्रियों के लिए सीट सुरक्षित किये आते हैं। बोगी और कुप्पा सबकुछ निश्चित रहता है। भीड़-भाड़ का उनपर कोई असर नहीं होता। जहाँ चार यार इकट्ठे हुए कि घुटनों पर अखबार बिछाकर ताश की बाजी शुरू। फिर समय कैसे बीत जाए, पता नहीं। दैनिक यात्रियों का ‘बगलबच्चा’ बैग उनका यूनिफॉर्म होता है। यह बैग उन्हें एक-दूसरे से जोड़ता है, जिससे उनका एक अघोषित संघ बन जाता है। मुसीबत में परस्पर मदद की प्रेरणा का उत्स बन जाता है यह बैग। टीटी बाबू भी बैग और क्रियाकलाप देखकर दैनिक यात्रियों को पहचानते और तदनुसार बरतते हैं। लगातार नौ महीने यात्रा के दरम्यान एक बार भी टीटीई ने मुझसे टिकट नहीं मांगा था। सघन चेकिंग के दौरान भी नहीं।
आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है और अनुभव से मुश्किलें आसान होती जाती हैं। शुरुआती दिनों में भोर चार बजे हावड़ा-गया एक्सप्रेस में जेनेरल बोगी में चढ़ता था तो बैठने की जगह मिल जाती थी, किन्तु तीन घंटे की नींद की कटौती से परेशानी बनी रहती थी। दिनभर पलकों पर नींद का भार और मन में सुस्ती छायी रहती थी। कुछ दिनों के अनुभव से इस समस्या का हल निकल आया था। तब मैं कहलगाँव में जेनेरल बोगी में घुसने के बजाय स्लीपर क्लास में सवार होने लगा। उस ट्रेन में साहेबगंज जंक्शन से यात्री उतरने लगते हैं। हर अगले ठहराव पर और कुछ लोग उतर जाते हैं। मैं बोगी में घुसकर ऊपर वाले खाली बर्थ की खोज में लग जाता था। जैसे ही कोई खाली बर्थ मिलता, उसपर जाकर सो जाता। दो-चार दिनों के अभ्यास के बाद गहरी नींद आने लगी थी। लगभग ढाई घंटे के बाद किउल जंक्शन पर गाड़ी ठहरती थी। वहाँ बड़ी संख्या में यात्री उतरते थे, जिसके कारण काफी शोर और हलचल होने से मेरी नींद खुल जाती थी। इस तरह रोज मेरी नींद का कोटा पूरा होने लगा और यात्रा अपेक्षाकृत अधिक सुगम हो गयी थी।
साहेबगंज से जमालपुर जंक्शन के बीच चलने वाली लोकल ट्रेन का विस्तारीकरण किउल जंक्शन तक हो जाने से मेरी यात्रा का संघर्ष थोड़ा हल्का हुआ था। वापसी में केवल एक गाड़ी बदलने की जरूरत रह गयी थी। तीन बजे अपराह्न के पहले किउल पहुँच गया तो साढ़े छः से सात बजे शाम तक कहलगाँव आ जाता था। शाम का भूजा वाला नाश्ता जमालपुर से प्रस्थान करने के बाद करता था। इस लोकल ट्रेन की यात्रा के साथ एक बड़ा रोचक प्रसंग जुड़ा है। एक दिन संजय भारती के साथ ट्रेन में सवार हुआ। मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा और बैग से कोई किताब या पत्रिका निकालकर बैग को सामने ऊपर वाले रैक पर रख दिया। जमालपुर तक संजय जी के साथ गपशप व नाश्ता किया। अकेला हुआ तो पढ़ने में तल्लीन हो गया। समय और दूरी का पता नहीं चला। गाड़ी आकर कहलगाँव में रुकी तो सचेत हुआ और बायाँ हाथ उठाकर ऊपर से बैग लेना चाहा, पर यह क्या! उस हाथ ने उठने से इनकार कर दिया। बिल्कुल उठा ही नहीं। समय कम था। दाएँ हाथ में पकड़ी किताब के साथ ही बैग खींचा और गाड़ी से उतर गया।
प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर फिर से बाएँ हाथ की जाँच की। हाथ की पकड़ सहित अन्य गतिशीलता सही थी। केवल ऊपर नहीं उठ पा रहा था। मन में अनेक प्रकार की दुश्चिंताएँ लिये प्लेटफॉर्म से बाहर निकल आया और रवि जी की कैंटीन में लगी अपनी मोटरसाइकिल के पास पहुँचकर एक बार फिर से बाएँ हाथ की जाँच पड़ताल की। सबकुछ ठीक था सिवा इसके कि वह ऊपर नहीं उठ रहा था। दाएँ हाथ से सहारा देकर बाईं हथेली को बाइक के हैंडल पर जमाया और सवार हो गया। बैठे-बैठे पैर से धकेलकर बाइक घुमाई और स्टार्ट करके सीधे एनटीपीसी के अस्पताल चला गया। वहाँ से घर पर फोन किया कि कहलगाँव आ गया हूँ, थोड़ी देर में घर पहुँचूँगा। शाम के सात बजे से अधिक समय हो रहा था। अस्पताल बंद होने ही वाला था। ऑर्थोपेडिक सर्जन डॉ0 लोकेश महेन्द्र उठने की तैयारी कर रहे थे। उनका मुझसे अच्छा परिचय और संबंध था। साधिकार उनके पास गया और मरीज वाले टूल पर बैठ गया। डॉक्टर ने पूछा, “क्या हो गया सर?”
“मेरे बाएँ हाथ को लकवा मार गया है डॉ0 साहब।” मैंने चिंतातुर स्वर में जवाब दिया। वे मेरी बाईं तरफ ही बैठे थे। अपना हाथ बढ़ाकर मेरा हाथ पकड़ा और उलटी दिशा में बल लगाने को कहा। हथेली दबाकर और बारी-बारी से पाँचों उंगलियों की ताकत को आँका फिर मुस्कुरा उठे। राइटिंग पैड सामने से हटाते हुए बोले, “आपको दवा की नहीं, व्यायाम की जरूरत है। दरअसल कंधे में सात जोड़ी मांसपेशियाँ हैं जिनके सहारे हमारे हाथों में चौदह तरह की हरकतें हो पाती हैं। लगातार निष्क्रिय रहने से कुछ मांसपेशियाँ कमजोर व शिथिल हो जाती हैं। आपके साथ यही हुआ है। हाथों को चालू रखने के लिए कुछ काम किया करें। फिजियोथेरेपी के विशेषज्ञ से मिलकर हाथों का व्यायाम शुरू कर दें।” चिकित्सक की बातें सुनकर मेरे माथे से चिंता का बोझ उतर गया था। घर लौटकर सुधा को सारी कथा बतायी थी। हमें अब समझ में आया था कि भोर से रात तक महीनों यात्रा में रहने के कारण बागवानी सहित कोई अन्य प्रकार का शारीरिक श्रम नहीं कर पा रहा हूँ। यही असली समस्या है। अगली शाम से फिजियोथेरेपी शुरू की और हाथों से अधिक-से-अधिक काम करने लगा। तीन-चार दिन बाद वह तकलीफ दूर हो गयी थी।
बचपन से सुनते-सुनते और कुछ व्यक्तिगत अनुभवों से यह धारणा बन गयी थी कि बिहार के बेगूसराय और बड़हिया क्षेत्र में स्थानीय रेलयात्री बाहरी यात्रियों को परेशान करते हैं। आरक्षित सीटों का भी इस इलाके में कोई मतलब नहीं है। दरअसल यह एक भ्रांति थी जो कहलगाँव-बड़हिया यात्रा के अभ्यास में टूट गयी। हाल के दिनों में लखीसराय से बाढ़ के बीच के लोग अपने विषय में स्थापित इस धारणा को बदल डालने के लिए सतर्क और सचेष्ट हो गये हैं। खासकर पढ़े-लिखे सामान्यजन और उसमें भी शिक्षक समुदाय के प्रति यहाँ अतिरिक्त सम्मानजनक व्यवहार देखने को मिलता है। कुछ दिनों तक निरंतर यात्रा के बाद स्थानीय लोग हमें पहचानने लगे थे। किउल-बड़हिया के बीच किसी लोकल ट्रेन में सवार होने पर अधिक भीड़ में भी यदि किसी पहचानने वाले की नजर हमपर पड़ जाती तो वे अपनी सीट छोड़कर हमें आग्रहपूर्वक बैठा लेते थे। अलबत्ता वे हमें प्रोफेसर साहब नहीं, ‘मास्टर साहब’ कहकर संबोधित करते थे। बड़हिया बाजार के दुकानदार व गाँव के आमजन भी शिक्षक समुदाय की बहुत इज्जत करते हैं। बच्चों की शिक्षा के प्रति वे बहुत जागरूक और चिंतित रहते हैं। बीएनएम कॉलेज बड़हिया के खाली रहने का प्रमुख कारण यह है कि पूरब में लखीसराय और पश्चिम में मोकामा व बाढ़ में बड़े कॉलेज हैं जहाँ अधिकांश लड़के नामांकन करा लेते हैं। सम्पन्न परिवारों के बच्चे दिल्ली, बंगलोर जैसे बड़े शहरों में जाकर पढ़ते हैं। लोग लड़कियों को बाहर कम भेजते हैं। यही कारण है कि गाँव में स्थापित गैरसरकारी गर्ल्स कॉलेज में लड़कियों की भीड़ लगी रहती है। सरकारी अनुदान के बिना भी कॉलेज लड़कियों के लिए बस सेवा चलाता है।
(क्रमशः)