दास्तान-ए-दंगल सिंह (49)
- पवन कुमार सिंह
एमए पास करने और रिसर्च के लिए रजिस्ट्रेशन कराने के बाद पुनः पीजी होस्टल के रिसर्च विंग में वापस आने तक वहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह लचर-पचर हो गयी थी। होस्टल के कॉमन रूम के ऊपर एक मुख्य दरवाजे के भीतर शोधछात्रों के लिए कुल पाँच कमरे आवंटित थे।उस खंड को रिसर्च विंग कहते थे। पूर्व से दो सीनियर क्रमशः श्री दिग्विजय सिंह उर्फ मुन्ना भाई (इतिहास) और श्री प्रभात कुमार राय (जूलॉजी, सम्प्रति प्रोफेसर, पीजी टीएमबीयू) वहाँ रह रहे थे। अधीक्षक से मौखिक अनुमति लेकर तीन खाली कमरों में मैं, मोहन मिश्र (संस्कृत, सम्प्रति प्रोफेसर, पीजी टीएमबीयू) और राज किशोर सिंह (जूलॉजी, रिटायर्ड प्रिन्सिपल, केंद्रीय विद्यालय) ने डेरा डाल दिया। हम वहाँ रहने तो लगे पर प्रशासनिक कुव्यवस्था के कारण हमारा नामांकन नहीं हो सका था। उधर पंचम और षष्ठ वर्ष के अधिकांश छात्रों की भी वही स्थिति थी। सबसे बड़ी गड़बड़ी यह थी कि पड़ोसी मुहल्ले साहेबगंज के लगभग एक दर्जन दबंग युवकों (नकली छात्रों) ने दर्जनों कमरों पर कब्जा कर रखा था और विश्वविद्यालय प्रशासन मूक दर्शक बना हुआ था। उन अवैध कब्जाधारियों के कारण होस्टल में असामाजिक तत्वों का मजमा लगने लगा था और अकादमिक माहौल चौपट होकर रह गया था। होस्टल की आंतरिक व्यवस्था भी चरमरा गई थी। मेस बन्द था सिविल और इलेक्ट्रिकल मेंटेनेंस का भी बुरा हाल था। जैसे-तैसे समय काटते हुए अधिवासियों का धैर्य जवाब देने लगा था। आंदोलन की सुगबुगाहट तेज होने लगी थी। हमारे जूनियर दयानन्द राय (सम्प्रति प्रोफेसर, इतिहास, टीएनबी कॉलेज), अरुणजय कुमार राय (सम्प्रति अध्यापक, हिंदी, सेंट जोसेफ्स स्कूल कहलगाँव), विनोद कुमार चौधरी (सम्प्रति प्राचार्य, प्रोपेल इंटरनेशनल स्कूल घोघा), शंभुदेव मिश्र ( सम्प्रति प्राध्यापक ग्रामीण अर्थशास्त्र, शेखपुरा), जयकिशोर कुमार (स्वर्गीय) कुमार मोती उर्फ वेदानंद (सम्प्रति प्रोफेसर अंग्रेजी, जेपी यूनिवर्सिटी छपरा) प्रवीण कुमार राय (सम्प्रति अध्यापक, हिंदी, बाँका) आदि विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ गोलबंद होकर नेतृत्व करने के अनुरोध के साथ रिसर्च विंग में हमसे मिले। विचारोपरांत निर्णय लिया गया कि पहले डीएसडब्ल्यू को ज्ञापन देकर अल्टीमेटम दिया जाए। फिर समयावधि बीत जाने पर चरणबद्ध आंदोलन किया जाए।
हमने अपने अधिवास को विधिवत मान्यता देने और अवैध लड़कों को निकाल-बाहर करने के आशय का सामूहिक ज्ञापन डीएसडब्ल्यू महोदय को दिया। एक सप्ताह के अल्टीमेटम के साथ धरना और अनशन की चेतावनी भी दी गयी। ज्ञापन देने के बाद से हम लगातार विश्वविद्यालय की गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे। उधर कोई सुगबुगाहट नहीं हो रही थी। कोई भी अधिकारी बिल्ली के गले में घंटी बाँधने का साहस नहीं कर पा रहे थे। ऊहापोह की स्थिति में एक सप्ताह बीत गया। अगले दिन हम आधा दर्जन साथियों ने विश्वविद्यालय के मुख्य भवन की लॉबी में दरी बिछाकर अनशन और धरना शुरू कर दिया। हमने अपनी एकसूत्री माँग की दफ़्तियाँ भी लगा दी थीं। दिन भर तमाशबीनों की भीड़ जुटी रही। अधिकारीगण सिर झुकाए बगल से आते-जाते रहे, पर किसी ने हमसे बात करने की पहल नहीं की। शाम में कार्यालयों में ताले लग गये। अँधेरा घिर आया। निराशा के साथ हमारा आक्रोश बढ़ रहा था। देर रात बीतने तक होस्टल से कुछ अन्य साथी भी आ गये। उन्हीं के बीच से प्रस्ताव रखा गया कि अभी धरना और अनशन तोड़कर वापस चला जाए और फिर सुबह से बैठा जाए। धरनार्थियों में से भी कुछ की वही राय थी। किन्तु जेपी आन्दोलन के सिपाही दंगल सिंह को यह धोखाधड़ी बिल्कुल मंजूर नहीं हुई। हमारी घोषणा लगातार अनशन और धरना जारी रखने की थी, जबतक कि हमारी मांग पूरी न हो जाए। सो मैं अड़ गया फलतः पूरी ईमानदारी से रात भर हम वहीं डटे रहे। अगले दिन भी किसी अधिकारी ने हमारी खोज-खबर नहीं ली। राह देखते फिर शाम हो गयी। एक अंतर यह आया कि दर्जनों छात्र हमारे समर्थन में जुट आये और नारेबाजी करने लगे थे। तब अंधेरा होने के बाद डीएसडब्ल्यू और प्रॉक्टर महोदय हमसे वार्ता करने आये। मैंने सभी अनशनकारियों को हिदायत दे दी थी कि कोई ऊँची आवाज में बात नहीं करेगा। दो दिन से भूखे व्यक्ति की आवाज ऊँची होगी तो अविश्वास पैदा होगा। पर, हमारे साथी दयानन्द जी उस समय गरम मिजाज के थे जो आज भी शिक्षक नेता के रूप में गरम ही हैं। सो वार्ता के लिए आए अधिकारियों से बहस के दरम्यान वे गरमा गये और उनकी आवाज ऊँची हो गयी। मैं बैठा नहीं रह सका और बलपूर्वक कंधा दबाकर उन्हें बैठा दिया। खैर, वार्ता सफल रही और हमारी माँग मान ली गयी। एक सप्ताह के अंदर सभी वैध छात्रों का विधिवत नामांकन हो गया और अवैध कब्जाधारियों को पुलिस की सहायता से निकाल दिया गया।
विश्वविद्यालय की ओर से समस्या सुलझी, किन्तु साथ ही एक नयी समस्या पैदा हो गयी। होस्टल से निकाले गये लड़के बगल के मुहल्ले के थे और गुंडागर्दी करना उनका मुख्य काम था। अगले ही दिन से उन्होंने धमकी देना शुरू कर दिया कि होस्टल घुसकर लड़कों को पीटेंगे। विभिन्न माध्यमों से ऐसी खबरें मिल रही थीं, अतः अविश्वास का कोई कारण नहीं था। हिंसक झड़प की आशंका से ग्रस्त भाइयों ने भी इधर तैयारी आरम्भ कर दी थी। तीन मंजिले छत पर ईंट-पत्थर जमा करने से लेकर और न जाने क्या-क्या तैयारियाँ कर ली गयी थीं। उन गुंडों की धमकी खोखली नहीं थी। पूरी तैयारी के साथ तीन-चार दिनों के अंतराल पर दो बार होस्टल पर सूर्यास्त के समय हमला किया गया। उस समय अधिकांश लड़के बाजार निकल जाया करते थे इसीलिए हमला करने को वह समय चुना गया था। पर सावधानी बरतने के लिए लड़के होस्टल से शाम को कम निकलने लगे थे, अतः दोनों बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी। ऊँचाई और एकजुटता के कारण पलटवार कारगर रहा और चोट खाकर गुंडों को भागना पड़ा था। होस्टल के लड़कों ने दोनों बार खदेड़कर उन्हें मुहल्ला पहुँचा दिया था। फिर पुलिस आयी थी। होस्टल के कर्मचारियों के बयान पर केस दर्ज हुआ और कुछ की गिरफ्तारी हुई तब जाकर मामला शांत हुआ था। उस समय खालिस्तान आंदोलन, भिंडरावाले और स्वर्णमंदिर की याद ताजा थी, सो उस हिंसक झड़प के बाद कैम्पस में हमारे होस्टल को ‘अकालतख्त’ कहा जाने लगा था। पीजी होस्टल की खोई हुई हनक फिर से स्थापित हो गयी थी।
(क्रमशः)