एतिहासिक
दास्तान-ए-दंगल सिंह (39)
पुलवामा हमले के बाद आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ उभरे आक्रामक राष्ट्रवाद के माहौल में बार-बार 1971 के युद्ध की स्मृतियाँ ताजा हो जा रही हैं। भारत ने एकजुट होकर पाकिस्तान से एक निर्णायक युद्ध लड़ा था। बांग्लादेश के उदय से हमारी पूर्वी सीमा सदा के लिए सुरक्षित हो गई। साथ ही 93000 पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण करवाकर और पश्चिमी सीमा पर बहुत बड़े भूभाग पर कब्जा करके हमारी सेना ने पाकिस्तान का मानमर्दन कर दिया था। बाद में शिमला समझौता होने पर युद्धबंदी और जमीन हमने लौटा दी। उस युद्ध के बाद से लगातार भारत दोस्ती और अमन का प्रयास करता रहा, पर पाकिस्तान हमारी पीठ में छुरा घोंपता रहा। आत्मसमर्पण के अपमान को सेना भूल नहीं पाई है और भारत को लगातार जख्म देने के मिशन में लगी है। दशकों से हम पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से त्रस्त हैं। पुलवामा हमले के बाद हमने आतंकवाद के खिलाफ सीधी लड़ाई शुरू कर दी है। अब पाकिस्तान की जनता और सरकार को तय करना है कि वह किसके साथ है। सेना तो युद्ध लड़ ही रही है। अब यदि युद्ध हो ही जाए तो इतिहास दुहराते हुए पाकिस्तान के तीन टुकड़े करके उसका स्थाई इलाज कर दिया जाए।
1971 का युद्ध इंदिरा जी की इच्छाशक्ति और कूटनीति के अद्भुत समन्वय का उदाहरण है। पाकिस्तान सरकार के अत्याचार से त्रस्त पूर्वी पाकिस्तान की बांग्लाभाषी जनता संघर्ष शुरू कर चुकी थी। एक साल पहले से ही पूर्वी पाकिस्तान से अशांति और हिंसा की खबरें आ रही थीं। मुक्ति वाहिनी के नाम से युवाओं की सेना पाकिस्तान से गुरिल्ला युद्ध लड़ रही थी। पाकिस्तानी सेना पुरुषों की हत्या और औरतों से बलात्कार करके मानवता को कलंकित कर रही थी। सम्पूर्ण भारत की जनता की हमदर्दी पीड़ित बंगाली समुदाय के साथ थी। बांग्लादेश के मुक्तिसंग्राम को भारत का समर्थन था। पाकिस्तान की दोनों सीमाओं पर तनाव बढ़ रहा था। दोनों ओर फौजी जमावड़ा बढ़ रहा था। किसी भी पल युद्ध छिड़ जाने की आशंका से वातावरण में अजीब सी बेचैनी थी।
तब दंगल सिंह नौवीं के छात्र थे। गाँव के एक दर्जन इसकुलिया यारों के साथ स्कूल जाते। दो किलोमीटर दूर स्कूल सभी पैदल ही जाते थे। सारी राह गपशप के केंद्र में पाकिस्तान से तनाव का मुद्दा ही होता था। स्कूल से वापसी के समय अखबार कुर्सेला पहुँचता था। अखबार बाँचते हुए गाँव लौटते। बाबूजी के डर से अखबार को सावधानी से खोलते-समेटते थे। तह टूटी किताब या अखबार देखते ही बाबूजी गुर्रा उठते थे। हर दिन अखबार में पूर्वी पाकिस्तान से जुड़ी खबरें प्रमुखता से छपती थीं। वायुसेना के चूनापुर हवाई अड्डे से लड़ाकू विमान बेहद नीची उड़ान भरते हुए हमारे गाँवों के ऊपर से गुजरते थे। युद्ध शुरू होने के एक पखवाड़े पहले से ही फाइटर प्लेन अभ्यास उड़ानों पर रोज दो-चार बार हमारे ऊपर से तेज कानफाड़ू आवाज के साथ गुजरते थे। विमानों की गड़गड़ाहट के साथ युद्ध की आशंका प्रबल होती जाती थी। सुबह, दोपहर और शाम में आकाशवाणी से प्रसारित राष्ट्रीय समाचार सुनने के लिए लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी। हर खासोआम में युद्ध की चर्चा प्रमुख हो गई थी। एक विश्वास सबको बराबर था कि पाकिस्तान एक हफ्ता भी नहीं टिकेगा। भुरकुस हो जाएगा। और हुआ भी वैसा ही।
पाकिस्तान द्वारा हवाई हमला करने के बाद 3 दिसम्बर 71 को दोनों सीमाओं पर जोरदार लड़ाई शुरू हो गई। तीनों सेनाओं के बेहतर तालमेल से न्यूनतम नुकसान सहते हुए भारत ने पाकिस्तान की कमर तोड़ दी। बांग्लादेश को आजाद कराया, पाकिस्तान में लाहौर के पास तक घुसकर हजारों वर्गमील क्षेत्र पर कब्जा किया और विश्व के इतिहास में कीर्तिमान स्थापित करते हुए 93000 पाकिस्तानी सैनिकों का सरेंडर करवाकर हमने राष्ट्र का गौरव बढ़ाया था। स्मृतिपटल पर जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने सरेंडर करते जनरल नियाजी की वह तसवीर स्थाई रूप से अंकित है जो 17 दिसंबर के अखबारों में छपी थी। उस समय यह बात बहुत चर्चित हुई थी कि दोनों जनरल आजादी के पहले सैनिक अकादमी में बैचमेट और अच्छे दोस्त भी रहे थे। सरेंडर के बाद जनरल अरोड़ा के इस कथन की भी खूब चर्चा हुई थी कि “नियाजी, इतनी फौज और असलहों के साथ मैं दुश्मन से हजार वर्षों तक लड़ लेता।” 3 दिसंबर को शुरू हुआ युद्ध 16 दिसंबर को बांग्लादेश के उदय और पाकिस्तान की पराजय के साथ खत्म हुआ। युद्ध की भूमिका बनने से लेकर युद्ध के बाद तक देश में अद्भुत एकता देखी गई थी। पक्ष और विपक्ष ने एक स्वर से इंदिरा जी के नेतृत्व को सलाम कहा था।
1972 के जनवरी माह से पाकिस्तानी युद्धबंदियों को बांग्लादेश से ढोकर दिल्ली के आसपास बनाई गई अस्थायी जेलों में पहुँचाने का सिलसिला शुरू हुआ था। प्रतिदिन दोपहर एक लंबी रेलगाड़ी कटिहार- बरौनी रूट से कैदी सैनिकों को लेकर जाती थी। कुर्सेला स्टेशन पर वह गाड़ी लगभग तीन घंटे ठहरती थी। कैदियों को यहाँ खाना खिलाया जाता था। खाना खुद कैदी ही पकाते थे और बाँटते भी थे। आमजन के लिए यह रेलगाड़ी एक कौतुक का कारण था, किन्तु हम किशोरों के लिए तो मानो उत्सव ही हो। यह गौरवपूर्ण तमाशा देखने के लिए हमारी मंडली ने एक हफ्ता से ज्यादा दिनों तक स्कूल से बंक मारा था। पूरी गाड़ी में लगभग डेढ़ हजार खुले कैदियों को ढोरों की तरह घेरकर हमारे मात्र दो दर्जन हथियारबंद सैनिक रोज दिल्ली तक पहुँचा रहे थे। गाड़ी रोज लगभग 11 बजे कुर्सेला स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर एक पर रुकती। भारतीय सैनिक अगली, पिछली और बीच की अपनी बोगियों से उतरते और गाड़ी को चारों ओर से लगभग एक दर्जन की संख्या में घेर लेते। गाड़ी से 10-12 फीट अलग फोल्डिंग स्टूल पर बैठने के पहले सामने एलएमजी फिट कर देते। यह दृश्य देखकर मन राष्ट्रगौरव से आप्लावित हो जाता था। कल्पना में भारत की जो छवि उभरती उसके सामने पाकिस्तान पिद्दी जैसा महसूस होता था। यह विचार लगातार दृढ़तर होता जा रहा था कि 93000 की सेना के साथ आत्मसमर्पण करने वाला देश निश्चय ही कायर होगा।
बंदी पाकिस्तानी सैनिक गाड़ी के अंदर और बाहर स्वतंत्र विचरण करते हुए पूरा अनुशासन बरतते थे। उनके बीच हाथों में हंटर लिये ऊँचे रैंक के दो-चार अफसर घूमते-फिरते निगरानी करते दिखाई देते थे। प्लेटफार्म पर ईंट और गारे से बने बड़े-बड़े चूल्हे जलाए जाते। बड़ी-बड़ी देगों में चने की दाल पकाई जाती थी। दाल सिद्ध होने के दरम्यान लोहे के विशालकाय कठौतनुमा ट्रे में ढेर सारा आटा गूँधा जाता। आटे को गूँधने के लिए दो कैदी ट्रे में ऐसे चलते जैसे दलदल में आदमी चलता है। बड़ी-बड़ी लोइयों की थाली के आकार की रोटियाँ हथेलियों के सहारे थापी जातीं और चूल्हे पर लोहे की चादरों से बने तवों पर सेंकी जाती थीं। रोटी-दाल पक जाने के बाद सारे कैदी अपनी थाली लिये आते और सभी को दो-दो रोटियाँ और एक-एक डब्बू दाल परोसी जाती थी। न किसी को कम न ज्यादा।
तमाशा देखने वाले हम जैसे लोगों को हमारे सैनिक गाड़ी से दूर रहने की चेतावनी देते रहते थे। पाकिस्तानी युद्धबंदी चुपचाप अपने क्रियाकलापों में लगे रहते। कोई अफरातफरी या हल्ला-हंगामा नहीं। प्रतिदिन होने वाले इस तमाशे में एक दिन विचित्रता देखने को मिली। उस दिन हमने देखा कि कुछ बोगियों में दर्जनों भीमकाय बंदियों को जंजीरों से बांधकर रखा गया था। वे बँधे बंदी हमें देखते देखकर बाघ की तरह गुर्राते थे। उनकी कद-काठी देखकर हमारे मन में सिहरन-सी होती थी। लगता जैसे वे जंजीर तोड़कर हमपर हमला कर देंगे। अपने सैनिकों ने हमें बताया कि ये युद्धबंदी पाकिस्तान के बलूच रेजिमेंट के हैं। इनमें आत्मसमर्पण करने के फैसले के खिलाफ गहरा गुस्सा है। इनके आत्मसम्मान को बहुत चोट लगी है। अपमान की कड़वी घूँट पीते राक्षस की आकृति वाले उन बलूच सैनिकों का गुस्सा देखना हमारे लिए एक अनोखा अनुभव था। युद्धबंदियों को ढोने का यह सिलसिला कई हफ्तों तक चलता रहा था।
कुछ दिनों के बाद फौजियों को समर्पित ऑल इंडिया रेडियो के संध्याकालीन फिल्मी गीतों के प्रसारण में एक अभियान शुरू किया गया था। गीतों के बीच एक-एक युद्धबंदी अपनी पहचान बताते हुए अपने परिजनों को अपनी खैरियत बताता था। निश्चय ही यह प्रसारण पाकिस्तान में भी होता होगा, तभी तो रोज कई दर्जन बंदी अपनी खबर अपनों को सुनाते थे। वे इस बात को जोर देकर कहते थे कि उन्हें कोई तकलीफ नहीं है। छः महीने के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हुआ। यह समझौता मेरी समझ से केवल पाकिस्तान के पक्ष में ही हुआ था। हमने उनके 93000 युद्धबंदी और 5600 वर्गमील जीती हुई जमीन लौटा दी। सबसे बड़ी विडम्बना यह कि हमारे 54 बंदी सैनिक हम नहीं लौटा सके। इस युद्ध से एक और बड़ा नुकसान यह हुआ कि संघर्ष के दौरान शरणार्थी बनकर आए एक करोड़ बांग्लादेशी नागरिक स्थाई रूप से भारत में ही बस गए। शिमला समझौते में भारतीय हित के विपरीत परिणामों को देखकर पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि इसके लिए इंदिरा जी पर भारी अंतर्राष्ट्रीय दबाव रहा होगा। उल्लेखनीय है कि शिमला समझौते के लिए आए जुल्फिकार अली भुट्टो अपने साथ बेटी बेनजीर भुट्टो को भी लाए थे। समझौते के बाद यह बात खूब चली थी कि इंदिरा जी अपने बेटे संजय गांधी की शादी बेनजीर से कराने वाली हैं।
कुल मिलाकर भारत के बंटवारे से लेकर पुलवामा हमले तक के घटनाक्रम के सम्बंध में मेरी कुछ ऐसी धारणाएँ बन गई हैं,जो लाख तर्कों के बावजूद नहीं बदलती। पाकिस्तान के रूप में एक स्थाई दुश्मन के उदय और कश्मीर की अन्तहीन समस्या की जिम्मेदारी मैं कुछ नामचीन हस्तियों पर डालता हूँ। एक तो आम जनता की भावनाओं के विपरीत दो-एक लोगों ने अपनी बपौती समझकर देश के टुकड़े कर दिये। बाँटा भी तो राफसाफ नहीं। हिंदुस्तान में पाकिस्तान के समर्थक और पाकिस्तान में हिंदुस्तान के समर्थक बचे रह गए। जिस प्रकार अन्य रियासतों को भारत में बेलाग और बेलौस मिलाया गया, वैसे कश्मीर को नहीं। धारा 370 और 35a लागू करके और इस मुद्दे को यूएनओ में उठाकर कश्मीर को एक स्थाई नासूर बना दिया गया। पार्टीशन में हजारों लोग मरे, लाखों विस्थापित हुए और बाद में अबतक किस्तों में लोग मर ही रहे हैं। विकास की बात छोड़कर लगातार 72 वर्षों से दोनों देश विनाश के उद्यम में संलिप्त हैं। बार-बार जख्म खाने के बाद भी हम यह नहीं मान पाए हैं कि पाकिस्तान हमारा दोस्त नहीं हो सकता। क्योंकि पाकिस्तान की बुनियाद ही भारत से दुश्मनी पर टिकी है। इतिहास से सीख न लेकर पाकिस्तान लगातार हिंसा के सहारे भारत के विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर रहा है। आतंकियों को पाल-पोसकर भारत के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ रहा है। सम्पूर्ण दुनिया की अमनपसंद जनता और भारत के लोगों में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा है। भारतवासी आरपार की लड़ाई के मूड में हैं। अवसर एकबार फिर अनुकूल है। बलूचिस्तान और सिंध के लोग तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की तरह असंतुष्ट हैं और मुक्ति चाहते हैं। इस अवसर को भुनाते हुए इस आतंकिस्तान के तीन टुकड़े करके समस्या को सदा के लिए निपटा देना चाहिए।
मध्यमवर्गीय किसान परिवार में जन्मे लेखक जयप्रकाश आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और हिन्दी के प्राध्यापक हैं|
सम्पर्क- +919431250382,
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