सामाजिक और राजनीतिक न्याय के लिए जन-संघर्षों की कहानियाँ अक्सर इतिहास के अँधेरे कोने में दबा दी जाती है और जो कुछ भी हमारे सामने प्रकट और प्रभावी रूप में आता है वह राजसत्ता के इर्द-गिर्द के लोगों की ही होती है, जिनका संघर्ष और त्याग सामान्यतया सत्ताप्रेरित ही रहा होता है। जनचेतना से लैश लोगों का बलिदान जन-मन में तो रह जाता है, लेकिन इतिहास की किताबों और बड़े विमर्शों से उन्हें दूर कर दिया जाता है और अगर ये कहानियाँ स्त्रियों के अथक योगदानों की हो तब तो इसे बहुत आसानी से पुरुषवादी तन्त्र द्वारा विस्मृत कर दिया जाता है।
तेलंगाना के विभिन्न वनीय और सुदूर क्षेत्रों में भ्रमण करते हुए हमने अनगिनत ऐसी कहानियों को जाना-सुना-पढ़ा जिसके संघर्षों की गाथा अब धुंधली होती जा रही है। ऐसी ही कुछ स्त्रियों को इस छोटे से लेखन के माध्यम से याद करने का प्रयास कर रहा हूँ जिन्होंने तेलंगाना में विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलनों में अपनी शानदार उपस्थिति तो दर्ज कराई लेकिन आज के राजनीतिक और सामाजिक विमर्शों से पूर्णतया अनुपस्थित हैं।
हिन्दी पट्टी के लिए तो इसमें से अधिकांश नाम अपरिचित ही होंगे। ये आन्दोलन निज़ाम और इसके रजाकार के विरुद्ध रहें हों, पृथक तेलंगाना के लिए आन्दोलन, दलित आन्दोलन, या भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम, या फिर स्वतन्त्रता के उपरांत राजकीय नीतियों से उपजे विभिन्न आन्दोलन, सबमें तेलंगाना की स्त्रियों ने अदम्य साहस के साथ भाग लिया और अपने विरोध के मुखर स्वर को यहाँ की हवाओं में प्रतिध्वनित होने के लिए छोड़ दिया ताकि आनेवाली पीढ़ियों में प्रतिरोध की चेतना जीवित रहे। वे कागज़ के पन्नों से भले गायब हो गये हों, लेकिन उनके संघर्षों की ऊष्मा अब भी उनके होने का बोध कराती है। उनकी वीरता और त्याग कभी पुरुषों से किसी अर्थ में कमतर नहीं थे, कई मामलों में उनसे भी श्रेष्ठ, लेकिन उनका मूल्याङ्कन उस रूप में कम ही किया गया।
मसलन, अगर बात करें तेलंगाना आन्दोलन की तो उसमे स्त्रियों का एक अलग ही जुझारू और साहसिक चरित्र उभरकर सामने आता है। तेलंगाना आन्दोलन मुख्य रूप से हैदराबाद के निज़ाम और उसके रजाकार की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध प्रारम्भ हुआ था, लेकिन जो कालांतर में भारतीय राज्य द्वारा होने वाले उत्पीडन के विरूद्ध भी किसी न किसी रूप में जारी रहा, क्योंकि स्वतन्त्रता के उपरान्त भी राज्य की सरकारें, नौकरशाही और क्षेत्रीय सामन्ती तन्त्र मिलकर इनका घनघोर शोषण कर रहे थे। निज़ाम और उसके रजाकारों की सामाजिक और आर्थिक नीतियों से त्रस्त होकर धीरे-धीरे यहाँ विरोध के स्वर मुखर होने लगे थे।
प्रारम्भ में यह आन्दोलन भाषायी और सांस्कृतिक मुद्दों पर ही केन्द्रित थी लेकिन बाद में इसमें बंधुआ मजदूरी, कम पारिश्रमिक, ‘वेत्ति’ (बिना पारिश्रमिक के मजदूरी) और अन्य प्रकार के शोषण के प्रश्न भी सम्मिलित होते चले गये। इस आन्दोलन में सैकड़ों की संख्या में महिलाओं का बलात्कार, उत्पीडन और हत्याएँ की गयी। उनके बारे में तेलंगाना के जन आन्दोलन से जुड़े एक वरिष्ठ जननेता पी. सुन्दरैय्या ने लिखा कि “इनके ऊपर रजाकार, या निज़ाम या फिर नेहरु की पुलिस के अत्याचार सबसे वीभत्स प्रकार के होते थे”। और ऐसे अत्याचारों की अनगिनत कहानियाँ आज भी लिखित-अलिखित रूप में मौजूद है।
जैसे गोंड समुदाय से आनेवाले महान योद्धा कुमरम भीम को वर्ष 1940 में निज़ाम के सिपाहियों ने जब अदिलाबाद के जंगलों में हत्या कर दी तो उनकी पत्नी सोम बाई ने विद्रोह का नेतृत्व उस स्थिति में संभाला, उस वक्त उनकी गोद में एक नवजात शिशु भी था। इसी तरह कई लंबाडा समुदाय की महिलाओं ने भी इस लड़ाई में अपनी जाने गंवाई। इनके अतिरिक्त चित्याला एलम्मा, प्रमिला ताई, ब्रिज रानी गौड़, मनिकोंडा सूर्यवथी, दयानी प्रियंवदा, सुगुमा रेगाला अचम्ब्बा, पंचादी निर्मला, चौधरी सम्पुर्नाम्मु, पुली रामनम्मा, मेदावारापू रामसीता, तमादु चन्द्रम्मा और अनगिनत महिलाओं ने विभिन्न रूपों में योगदान दिया। रमुलाम्मा अपने पति के साथ इस आन्दोलन में वर्ष 1946 में सम्मिलित हुई, लेकिन बीमारी की वजह से उसके पति ने वर्ष 1948 में आन्दोलन से अपने आप को बाहर कर लिया, लेकिन उसकी पत्नी उसके बाद भी आन्दोलन की जिम्मेवारियों को संभालती रही।
इसके अतिरिक्त अगर दलित आन्दोलन के सन्दर्भ में देखे तो इस आन्दोलन के इतिहास में 1986 में घटित कर्मछेडू की घटना का अपना अलग ही महत्व है। इसने दलित आन्दोलन को एक नयी दिशा और दशा प्रदान किया। और यह सब हुआ मात्र एक दलित महिला के साहसपूर्ण निर्णय के कारण। यह विवाद प्रारम्भ हुआ था तालाब में पानी लेने के प्रश्न पर, क्योंकि कुछ तथाकथित ऊँची जातियों ने उन्हें तालाब से पानी लेने से मना किया और संघर्ष बढ़ने पर सात दलितों की हत्या कर दी गयी और कई महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, लेकिन इतना सब होने के बाद भी सुवार्था नाम की एक दलित स्त्री ने घुटने टेकने से मना कर दिया और संघर्ष को जारी रखा और तब परिणामस्वरूप एक बृहद दलित सांगठनिक चेतना का निर्माण हुआ।
इसी प्रकार शराब विरोधी आन्दोलन तो मुख्यत स्त्रियों के द्वारा ही प्रारम्भ किया गया था। शराब और इससे स्त्रियों के जीवन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के विरुद्ध यह आन्दोलन नेलोर के एक सुदूरवर्ती गाँव से प्रस्फुटित हुआ लेकिन बाद में यह पुरे राज्य में फैलता चला गया। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी यहाँ की महिलाओं ने अत्यधिक बढ़-चढ़कर भाग लिया, लेकिन सरोजनी नायडू को छोड़कर शायद ही कोई अन्य नाम व्यापक रूप से चर्चा में आ पाए। एक पूरी श्रृंखला है जिसमे इस क्षेत्र की महिलाओं ने देश के लिए अपना सर्वस्व त्यागा था। जैसे वर्ष 1923 में जब कांग्रेस का काकीनाडा सम्मलेन होना था तो मात्र पन्द्रह साल की दुर्गाबाई देशमुख ने महिलाओं को पूरे राज्य में संगठित करने का कार्य किया था, लेकिन वो बहुत छोटी थी इस कारण इस सम्मलेन में स्वयं भाग नहीं ले पाई थी।
कई बार जब गाँधी यहाँ होते थे तो उनके भाषणों का अनुवाद दुर्गाबाई देशमुख ही करती थी जिससे उनके प्रभाव का भी पता चलता है। दुर्गाबाई, पोनाका कनाकम्मा, उनावा लक्ष्मीबाई अम्मा आदि ने इस धारणा को अच्छे से तोड़ा कि महिलाएँ इस स्वतन्त्रता संग्राम में पुरुषों से कमतर हैं। वर्ष 1922 में कांग्रेस की एक महिला शाखा का निर्माण किया गया था जिसने खादी को लोकप्रिय बनाने में अहम् भूमिका निभाई थी। इसी की एक सदस्या सुभम्मा वह पहली महिला थी जिसे ब्रिटिश सरकार द्वारा सश्रम कारावास दिया गया था। नमक सत्याग्रह में भी यहाँ की स्त्रियों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। वर्ष 1938 में सत्याग्रह आन्दोलन के समय ‘वन्दे-मातरम’ नारा हैदराबाद में एक बड़े आन्दोलन का वाहक बन गया था, लेकिन जब निज़ाम ने इसे प्रतिबंधित कर दिया तो छात्रों और महिलाओं ने बड़ी संख्या में इसे गाकर प्रतिबन्ध का जोरदार बहिष्कार किया।
तमाम विरोधों के बावजूद मुस्लिम महिलाओं ने भी वन्दे-मातरम गाकर आन्दोलन को मजबूत किया। 1942 के आन्दोलन में भी महिलाओं ने राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार किया जिसमे ज्ञानकुमारी हेडा, पद्मजा नायडू, ब्रिज्रानी, विमला देवी मेलकोटे, सुमित्रा प्रसाद, संगम लक्ष्मीबी, जम्नुनिषा बाजी, रजिया बेगम आदि थी। जम्नुनिषा बाजी के अनुसार आन्दोलन इतना मुखर था कि गाँधी से अधिक नेहरु की लोकप्रियता थी। और जब सुभाष बोस को पार्टी से हटाया गया तो महिलाओं में एक आक्रोश पनप गया था।
वर्ष 1925 में ‘आंध्र साध्वी संगम’ की स्थापना नदिम्पल्ली सुन्दराम्मा, गोएती मनिकय्मबा और टी. वरलाक्षम्मा के द्वारा की गयी और इन्होने स्वराज के मुद्दे पर राष्ट्रीय नेताओं की कार्यप्रणाली पर भी प्रश्न उठाये। इन सब के अतिरिक्त सैकड़ों ऐसी स्त्रियाँ और उनके त्याग के किस्से-कहानियाँ हैं जो अनाम हैं और जिनके बेमिशाल सामाजिक और राजनीतिक कार्य सुदूरवर्ती गाँवों और घने जंगलों में रहने वाले समुदायों तक ही सिमट कर रह गयी हैं। अपनी तमाम यात्राओं में हमने जाना कि इतिहास में दर्ज होने के लिए इतिहास का गिरेबान पकड़ना पड़ता है अन्यथा इतिहास आपके गले को दबोच कर आपका इतिहास मिटा देगा।
.
सहायक लेखक
चित्तरंजन सुबुद्धि
लेखक केंद्रीय विश्वविद्यालय तमिलनाडु के सामाजिक कार्य विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।
सम्पर्क- +919658639979, chittaranjan.subudhi@gmail.com
.