काँग्रेस का नैरेटिव बनाम भाजपा का मैनेजमेंट
राजेंद्र तिवारी
पूरे देश की निगाहें 3 दिसंबर पर लगी हैं। इस तारीख को पाँच राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनावों के नतीजे आएंगे। ये नतीजे 2024 में होने वाले आम चुनावों की दिशा तय करने वाले होंगे। राजस्थान, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश में भाजपा और काँग्रेस आमने सामने हैं तो तेलंगाना में काँग्रेस का मुकाबला के चंद्रशेखर राव की पार्टी बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) व मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट व भाजपा से है। काँग्रेस इस चुनावों में विचारधारा के साथ-साथ बेरोजगारी, महँगाई , भ्रष्टाचार, गरीब-अमीर के बीच बढ़ती खाई और स्थानीय समस्याओं पर माहौलबंदी कर रही है। साथ ही, अपनी राज्य सरकारों की जनोन्मुखी योजनाओं को भी प्रस्तुत कर रही है। दूसरी ओर, भाजपा मोदी के चेहरे और अपनी चुनाव प्रबंधन क्षमता के बूते मैदान में है। अलबत्ता, उसके साथ हिंदुत्व का मुद्दा तो है ही। एक और बड़ा मुद्दा काँग्रेस उठा रही है और भाजपा इस मुद्दे की कोई मजबूत काट पेश करने में विफल दिखाई दे रही है। यह मुद्दा है जाति गणना का यानी पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी का। पाँचों राज्यों में दिलचस्प राजनीतिक माहौल दिखाई दे रहा है। नतीजों का ऊँट किस करवट बैठेगा, यह तो 3 दिसंबर को पता चलेगा। आइए, मौजूदा माहौल को समझने की कोशिश करते हैं।
इसलिए महत्वपूर्ण हैं ये पाँच राज्य
- 7 नवंबर से 25 नवंबर तक पाँच राज्यों की 679 विधानसभा सीटों के लिए मतदान होगा। ये विधानसभा सीटें 93 लोकसभा सीटों में फैली हुई हैं जो कुल 543 लोकसभा सीटों का तकरीबन 17 फीसद हैं। इन राज्यों में कुल 16 करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकेंगे जो देश के कुल मतदाताओं का लगभग 18 फीसद हैं।
- इन पाँच राज्यों में से एक दक्षिण, एक पूर्वोत्तर से, एक पश्चिम से है और दो मध्य में स्थित हैं। मोटे तौर पर यह भूगोल पूरे देश की राजनीतिक तस्वीर बताने वाला माना जा सकता है।
- 2018 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में काँग्रेस ने सरकार बनाई थी। तेलंगाना में बीआरएस को भारी बहुमत मिला था और मिजोरम में एनडीए के सहयोगी दल मिजो नेशनल फ्रंट ने सरकार बनाई थी।
- राजस्थान में काँग्रेस ने 30 फीसद वोटों के साथ100 सीटें और भाजपा ने 38.08 फीसद वोटों के साथ 73 सीटें जीती थीं। मध्य प्रदेश में काँग्रेस ने 40.89 फीसद वोट हासिल कर 114 सीटें जीती थीं और भाजपा को 41.02 फीसद वोटों के साथ 109 सीटें मिली थीं। छत्तीसगढ़ में काँग्रेस ने 90 में से 68 सीटें हासिल की थीं और इसका वोट प्रतिशत 43 रहा था जबकि भाजपा को 33 फीसद वोटों के साथ मात्र 15 सीटें मिली थीं। तेलंगाना में बीआरएस को 46.97 फीसद वोट मिले और119 में से 88 सीटें जबकि काँग्रेस को 28.43 फीसद वोट के साथ 19 सीटें और भाजपा को 6.98 फीसद वोट व एक सीट मिली थी। सात सीटें असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी ने जीतीं थी, जो बीआरएस के साथ थी। मिजोरम में एनडीए घटक मिजोनेशनल फ्रंट (37.70 फीसद वोट) ने40 में 26 सीटें और जेडपीएम (जोरम पीपुल्स मूवमेंट,22.9 फीसद वोट) ने 8 सीटें हासिल कीं जबकि काँग्रेस 30 फीसद वोट) को सिर्फ5 सीटें मिलीं।
- मध्य प्रदेश में काँग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा ने तोड़ लिया और उनके साथ 22 विधायक टूटे। इससे काँग्रेस की सरकार गिर गई और वहाँ पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में फिर से भाजपा की सरकार बनी। सिंधिया को राज्यसभा की सदस्यता मिली और केंद्रीय कैबिनेट में बर्थ। सरकार गिराने की कोशिश राजस्थान में भी हुई लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली और अशोक गहलौत अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे। इसके बाद भाजपा ने कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी तोड़-फोड़ के जरिये विपक्षी सरकार को गिराकर अपनी सरकार बनाई।
- मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में कुल 65 लोकसभा सीटें आती हैं। इनमें से 62 सीटें 2019 के आम चुनाव में भाजपा ने जीती थीं और सिर्फ तीन सीटें काँग्रेस जीत पाई थी। तेलंगाना में 17 लोस सीटें हैं जिनमें से चार भाजपा, तीन काँग्रेस,एक एआईएमआईएम और बाकी नौ सीटें बीआरएस ने जीती थीं। मणिपुर की एक मात्र सीट एमएनएफ ने जीती थी।
भाजपा : भोपाल से मोदी ने फूंका बिगुल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिका से लौटने के बाद 27 जून को इन विधानसभा चुनावों के लिए भोपाल से भाजपा की ओर बिगुल फूँक दिया था। उन्होंने काँग्रेस द्वारा कर्नाटक को दी गई गारंटियों का मजाक बनाया। उन्होंने कहा -आज मैं भी गारंटी देना चाहता हूं। अगर उनकी घोटाले की गारंटी है तो मोदी की भी एक गारंटी है हर घोटालेबाज पर कार्रवाई की गारंटी। लेकिन इस गारंटी की हवा बन भी न पाई थी कि जिस एनसीपी और उसके नेताओं पर प्रधानमंत्री ने 70 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप लगाया, उनको एक सप्ताह के भीतर महाराष्ट्र में न सिर्फ अपनी पार्टी की सरकार में शामिल कर लिया बल्कि अजित पवार को वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी के साथ उप मुख्यमंत्री बना दिया। दरअसल प्रधानमंत्री ने विपक्षी गठबंधन इंडिया के दलों को परिवारवाद और भ्रष्टाचार का पर्याय बताया लेकिन महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी की गारंटी की हवा निकाल दी। हालांकि इससे पहले 28 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद के नये भवन के उद्घाटन समारोह के जरिए हिंदू आधिपत्य का संदेश देने की कोशिश की थी लेकिन राष्ट्रपति द्रौपदी मुरमू को इस मौके पर न बुलाए जाने और विपक्षी गठबंधन इंडिया के बहिष्कार से यह पूरी कवायद विवादों में घिर गई। संसद का मानसून सत्र मणिपुर की हिंसा की भेंट चढ़ गया। मणिपुर की हिंसा को लेकर सरकार घेरे में ही रही। अविश्वास प्रस्ताव पर बहस में विपक्ष सत्ता पक्ष पर भारी पड़ता दिखाई दिया। दरअसल, भाजपा का कोई भी दांव कोई खास असरदार नहीं रहा। जी-20 शिखर सम्मेलन एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के तौर पर जरूर दर्ज किया गया लेकिन बड़े स्तर की ब्रांडिंग के बावजूद, दूसरे तमाम मुद्दों के चलते उसका भी कोई खास फायदा भाजपा को मिलता दिखाई नहीं दे रहा है। इसके बाद चाहें सनातन का मुद्दा हो या भारत बनाम इंडिया, कुछ भी नहीं चला। संसद का विशेष सत्र फुस्स हो गया और पाँच दिन की बजाय चार दिन में ही सत्र समाप्त करना पड़ा। इस सत्र में बड़े जोर-शोर से नारी शक्ति वंदन अधिनियम लाया गया लेकिन उसमें इतने किंतु-परंतु हैं कि उनका फायदा उठाकर विपक्ष ने महिला आरक्षण के साथ-साथ ओबीसी आरक्षण को मुद्दा बना दिया और फिर बिहार में जाति गणना के आंकड़ों की घोषणा ने सोने पर सुहागा का काम किया।
रोचक लड़ाई है राजस्थान में
राजस्थान में विधानसभा की 200 सीटों के लिए 25 नवंबर को मतदान है। इस राज्य में पिछले 30 साल से हर पाँच साल पर सरकार बदल देने की परिपाटी चली आ रही है। भाजपा इस परिपाटी, चुनाव प्रबंधन के अपने अभिनव प्रयोगों और नरेंद्र मोदी के चेहरे के जरिये जीत का दावा कर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे राज्य में भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा मानी जाती रही है, लेकिन इस बार भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उनके चेहरे पर चुनाव न लड़ने का फैसला किया। इसके चलते शुरुआत में पार्टी में खींचतान रही लेकिन अंत में भाजपा ने न सिर्फ वसुंधरा को उनकी परंपरागत सीट से टिकट दिया बल्कि उनके करीब तीन दर्जन समर्थकों को भी अपनी सूची में जगह दे दी। लेकिन अभी भी यह भ्रम बना हुआ है कि वसुंधरा पार्टी के सभी प्रत्याशियों के लिए काम करेंगी या सिर्फ अपने समर्थकों के लिए? अगर वसुंधरा राजे अपने को सीमित रखती हैं तो इसका असर पार्टी की संभावनाओं पर सकारात्मक तो नहीं ही रहेगा। भाजपा ने 7 सांसदों को भी मैदान में उतारा है। यह प्रयोग इस विधानसभा चुनाव के अलावा 2024 के आम चुनाव के मद्देनजर जनता की थाह लेने की भाजपा की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है। इसके चलते शुरुआती असंतोष दिखाई दे रहा है लेकिन अभी चुनाव की तिथि दूर है। इस गुणा-गणित के अलावा भाजपा हिंदुत्व का मुद्दा गरम करने की कोशिश में है। संसद में बसपा सांसद को अश्लील-अपशब्दों से नवाजने वाले अपने सांसद रमेश बिधूड़ी को टोंक जिले का प्रभारी बनाकर पार्टी ने अपनी रणनीति का स्पष्ट संकेत बहुत पहले ही दे दिया था। उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने उदयपुर में कन्हैयालाल का सिर काटकर की गई हत्या का मामला गरमाने का प्रयास किया। हालांकि इस जघन्य घटना के बाद राज्य की गहलोत सरकार द्वारा तेजी से की गई कार्रवाई की वजह से यह मामला तूल नहीं पकड़ पा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजस्थान को लेकर कितना सशंकित हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले 12 माह में उनके 12 दौरे राज्य में हो चुके हैं। काँग्रेस मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ रही है और भाजपा मोदी जी के चेहरे के साथ। काँग्रेस सरकार की सामाजिक सुरक्षा स्कीमों और 500 रुपए के सिलिंडर जैसी स्कीमों से एंटी इनकंबेंसी को थामने में मदद मिलने का दावा किया जा रहा है। काँग्रेस ने गुटबाजी को थामने की हरसंभव कोशिश की और अपना एकजुट चेहरा रखने में कामयाब होती दिखाई दे रही है। सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रियंका गांधी के साथ एक ही कार में यात्रा कर इस संदेश को पुख्ता करने की कोशिश भी की। लेकिन दोनों जानबूझकर कुछ ऐसा जरूर बोल देते हैं जिससे एका पर सवालिया निशान लग जाते हैं। कुल मिलाकर राजस्थान का सियासी परिदृश्य दिलचस्प बना हुआ है।
मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में भाजपा मुश्किल में
मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है और छत्तीसगढ़ में काँग्रेस की। मध्य प्रदेश में काँग्रेस में तोड़फोड़ के जरिये भाजपा सरकार बनने के बाद से ही पार्टी में अंदरूनी गुटबाजी रही है। चुनाव की तिथियाँ घोषित होने के काफी पहले से ही कहा जा रहा है कि राज्य में भाजपा कई गुटों में बँटी हुई है । जैसे शिवराज भाजपा, महाराज (सिंधिया) भाजपा और नाराज भाजपा आदि। सिंधिया को लेकर पार्टी के पुराने नेताओं-कार्यकर्ताओं में असंतोष सतह पर दिखाई देता रहा है। इस गुटबाजी के चलते विधायक-पूर्व विधायकों समेत भाजपा के दर्जनों राज्य-जिला स्तर के बड़े नेता काँग्रेस में शामिल हो गए। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी भी शामिल हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके मंत्रियों के खिलाफ 18-20 साल की एंटीइंकम्बेंसी है और शिवराज ने तमाम लोकलुभावन योजनाओं के जरिए इससे निपटने की भरपूर कोशिश की है – लाडली बहना से लेकर 450 रुपए के सिलिंडर तक। लेकिन उनको केंद्रीय नेतृत्व का समर्थन नहीं मिल पा रहा है। यह बात दीगर है कि अंत में केंद्रीय नेतृत्व को शिवराज और उनके लोगों को (राजस्थान की तरह) समायोजित ही करना पड़ा। लेकिन इसका संदेश राज्य में भाजपा की कमजोरी के तौर पर जनता में गया है। प्रधानमंत्री अपनी सभाओं में शिवराज की योजनाओं या उपलब्धियों का जिक्र तक नहीं करते हैं। यही नहीं, राज्य में अलग-अलग क्षेत्रों से तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत सात सांसदो और एक केंद्रीय महासचिव को चुनाव मैदान में उतारा गया है। रणनीति वही है कि ये सांसद अपने लोस क्षेत्र में अपनी विस सीट के साथ-साथ सभी सीटें निकाल लें तो भाजपा व प्रधानमंत्री मोदी की राह आसान हो जाएगी। यदि2024 में स्थितियाँ कठिन बनीं तो केंद्र में उनको चुनौती दे सकने वाले क्षत्रपों में शिवराज सबसे प्रमुख हैं। इसलिए शिवराज का कमजोर होना मोदी के पक्ष में होगा। स्थिति यह है कि तीनों केंद्रीय मंत्री- नरेंद्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल व फग्गन सिंह कुलस्ते और केंद्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, अपने-अपने इलाकों में खुद को मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में पेश कर रहे हैं। भाजपा की इस अंदरूनी उठापटक का फायदा काँग्रेस को मिल रहा है। काँग्रेस में गुटबाजी नहीं दिख रही, मुख्यमंत्री पद के लिए कमलनाथ का चेहरा और भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की गतिविधियों से पार्टी स्वत: लाभ की स्थिति में आ गई है।
छत्तीसगढ़ में काँग्रेस की स्पष्ट बढ़त मानी जा रही है। यहां काँग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने पिछले पाँच साल में अपने कामों के जरिये न सिर्फ भाजपा को कमजोर किया बल्कि मुद्दा विहीन भी कर दिया। भाजपा दिक्कत में है। भाजपा के बड़े आदिवासी नेता नंद कुमार साय काँग्रेस में चले गए, पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को केंद्रीय नेतृत्व महत्व नहीं दे रहा और पार्टी के पास जनता से जुड़े मुद्दे भी नहीं हैं। भूपेश बघेल ने तो अडानी का मुद्दा भी जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया कि मोदी जी राज्य के बड़े कारखाने अडानी को देना चाहते हैं। धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिशें परवान नहीं चढ़ रहीं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर भूपेश बघेल के कामों का असर है।
तेलंगाना और मिजोरम की कहानी
तीन माह पहले तक माना जा रहा था कि तेलंगाना में बीआरएस की राह साफ है और भाजपा को भी लगता था कि उसे अच्छी सफलता मिल सकती है। लेकिन काँग्रेस ने पूरी तस्वीर बदल दी। आज काँग्रेस बीआरएस को चुनौती देते हुए दिखाई दे रही है और भाजपा कहीं नहीं है। काँग्रेस की सभाओं में भीड़ और भाजपा व बीआरएस से काँग्रेस में बड़े स्तर पर पलायन कुछ नई कहानी लिखता हुआ दिखाई दे रहा है। कर्नाटक में काँग्रेस की सफलता का असर यहाँ के माहौल में भी देखा जा सकता है। शुरुआत में प्रधानमंत्री व गृह मंत्री तेलंगाना पर फोकस करते दिख रहे थे लेकिन अब वह फोकस दिखाई नहीं दे रहा है। दूसरी ओर काँग्रेस का शीर्ष नेतृत्व तेलंगाना को सफल मौके में तब्दील करने की हर संभव कोशिश करता हुआ नजर आ रहा है।
मिजोरम पूर्वोत्तर का एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण राज्य है। यहां मिजो नेशनल फ्रंट सत्ता में है जो एनडीए में शामिल है। काँग्रेस इस राज्य पर फोकस किए हुए है और राहुल गांधी तीन दिन वहां बिता कर आए हैं। तीन-चार दिन के लिए फिर जाने वाले हैं। राहुल को जिस तरह का समर्थन दिखाई दे रहा है, उससे लग रहा है कि मणिपुर हिंसा के बाद पूर्वोत्तर में राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं। मिजोरम के मुख्यमंत्री द्वारा प्रधानमंत्री मोदी के साथ मंच शेयर करने से मना करना इस बदलाव का मजबूत संकेत दे रहा है।
कुल मिलाकर, पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे 2024 के आम चुनाव की दिशा करने वाले साबित होंगे। भले इसे 2024 का सेमी फाइनल कहा जा रहा है लेकिन काँग्रेस के लिए ये चुनाव फाइनल ही हैं। काँग्रेस अगर इनमें भाजपा पर बढ़त बना लेती है तो 2024 के लिए विपक्षी गठबंधन में एक मजबूत एंकर के रूप में काँग्रेस स्थापित हो जाएगी। और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो इंडिया के लिए राह बहुत मुश्किल होना तय है। ये चुनाव तय करने वाले हैं कि क्या हिंदुत्व पर सामाजिक न्याय का मुद्दा भारी पड़ेगा? नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश में एक नारा बहुत चला था- मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम। देखना होगा कि क्या तीस साल बाद भी इस नारे में दम बचा हुआ है?
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