सी.पी.आई के राज्यसचिव का कोराना संक्रमण से असमय निधन
2 अगस्त को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बिहार राज्य सचिव सत्यनारायण सिंह का असमय निधन हो गया। 24 जुलाई को खगड़िया स्थित उनके गाँव कैथी में उनकी तबीयत बिगड़ी। उन्हें आनन-फानन में पटना लाकर रूबन हॉस्पीटल में भरती कराया गया। स्थिति बिगड़ने पर वे एम्स ले जाये गये। उनकी पत्नी, पुत्र अंकित, छोटे भाई सहित 19 सभी कोरोना संक्रमित हो चुके थे। इसी दरम्यान उन्हें प्लाज्मा भी चढ़ाया गया। लेकिन एक सप्ताह बाद 2 अगस्त की रात्रि 9 बजे में सत्यनारायण सिंह ने अन्तिम सांसे लीं। वे 76 वर्ष के थे। मात्र तीन दिनों बाद 5 अगस्त को उनके छोटे भाई सुनील सिंह का भी निधन हो गया। सत्यनारायण सिंह पिछले पाँच वर्षों से सी.पी.आई के बिहार राज्य सचिव थे।
पिछले तीन- चार महीनों से, जबसे, कोरोना का प्रकोप हुआ और महानगरों से हजारों मजदूरों की पैदल, गाँवो-कस्बों की ओर वापसी होने लगी, कम्युनिस्ट पार्टी का पूरा नेतृत्व बहुत दबाव में था। कम्युनिस्ट पार्टी को इस कठिन समय में क्या- क्या करना चाहिए, ऐसा सुझाव देने वालों की मानो बाढ़ सी आ गयी थी। स्वतन्त्र बुद्धिजीवियों ने भी हल्ला करना शुरू कर दिया कि क्या कर रहे लाल झंडा के लोग? जब उनकी जनता सड़कों पर मारी-मारी फिर रही है तो ये लोग कहाँ हैं? सड़कों पर उतर कर सरकार की ईंट से ईंट क्यों नहीं बजा दे रहे? इस अभूतपूर्व मानवीय त्रासदी के दौरान वाम आन्दोलन के साथियों को अपनी सीमाओं का अहसास तो था ही कुछ बड़ा, कुछ ठोस न कर पाने की असहायता का बोध भी कहीं गहरे था।
सत्यनारायण सिंह इस दौरान पूरे राज्य का दौरा कर जिला-जिला घूमते रहे। कार्यकर्ताओं से ऐसी भीषण अवस्था में भी सम्पर्क कायम करते रहे। लेकिन यही सक्रियता उनकी मौत का भी कारण पड़ी। उनकी मौत से न सिर्फ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बल्कि पूरे वाम आन्दोलन के लोग शोकसंतप्त थे। चौथम प्रखण्ड के उनके कैथी गाँव में तो दो दिनों तक चूल्हा नहीं जला।
पूरे बिहार में कम्युनिस्ट के कई कार्यकर्ता कोरोना संक्रमित होने के कारण काल के गाल मे समा गये। सत्यनारायण सिंह आम जनता के बीच सक्रिय रहते हुए, कोरोना संकट के दौरान भी लड़ते हुए मृत्यु का प्राप्त हुए इन्हीं वजहों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बिहार राज्य परिषद ने उन्हें शहीद का दर्जा प्रदान किया।
कम्युनिस्ट पार्टी में दो किस्म के कार्यकर्ता
कम्युनिस्ट पार्टी में दो किस्म के कार्यकर्ता व नेता माजूद रहते हैं। एक होते हैं जनता के बीच में जनसंगठनों के माध्यम से सीधे काम करने वाले कार्यकर्ता। आन्दोलनों को जमीनी स्तर पर संगठित करना, लोगों को अपने मुद्दों के इर्द-गिर्द गोलबन्द करना, जनता के बीच, उनके सुखः-दुख में शामिल रहना, भले ही वो किसी भी विचारधारा के हों, इनका प्रमुख कार्य रहता है। आम जनता के कार्यों के लिए प्रखण्ड, जिला से लेकर राज्य सचिवालय तक दौड़-धूप करना। ऐसे लोग पंचायत, जिला परिषद से लेकर विधायक व सांसद का चुनाव लड़ने के लिए मुफीद समझे जाते हैं।
दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी में ऐसे कार्यकर्ता व नेता भी होते हैं जिनकी सक्रियता में सीधे-सीधे तो जनता से जुड़ाव नहीं होता लेकिन पार्टी के सांगठनिक ढाँचे में अधिक व्यस्त रहा करते हैं। वैचारिक मामलों, प्रचारात्मक सामग्री को तैयार करना और संगठन सम्बन्धी मामलों की देखरेख करना आता है।
दोनों तरह के नेताओं में कभी-कभी तनाव की स्थिति भी बन जाती है। जनता से सीधे जुड़े रहने वाले कार्यकर्ताओं को लगता है कि महज पार्टी के दायरों में घूमते रहने वाला कार्यकर्ता या नेता जनता की नब्ज को समझ नहीं पाते। ये लोग अपनी एक कल्पित वैचारिक दुनिया में रहते हैं लिहाजा परिस्थिति का इन्हें ठीक से भान नहीं हो पाता। वहीं सांगठनिक दायरों के अन्दर काम करने वाले कार्यकर्ता की सीधे जनता से जुड़े रहने वाले कार्यकर्ताओं व नेताओं से ये शिकायत रहती है कि ये लोग पब्लिक ओपीनियन के दबाव में आ जाते हैं लिहाजा कम्युनिस्ट काम के प्रति थोड़े उदासीन हो जाते हैं। जनता में जाति, धर्म आदि को लेकर पूर्वाग्रह काम करता है लिहाजा जनता के मध्य लोकप्रियता हासिल होने के चक्कर में रैडिकल बातों को कहने से ये नेता व कार्यकर्तागण संकोच करते हैं। इस कारण जनता से सीधे जुड़े रहने वाले कार्यकर्ताओं पर एक पार्टी का अंकुश रहना चाहिए। यदि ये लोग चुनाव वगैरह जीत भी जाते हैं तो उनपर तोहमत लगती रहती है कि कम्युनिस्ट पार्टी का विधायक व सांसद रंग-ढ़ंग, चाल-ढ़ाल में बर्जुआ नेताओं जैसा ही होता है। जोखिम लेने की प्रवृत्ति का इन नेताओं में अभाव रहा करता है।
एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को हमेशा इस उलझन, इस डायलेमा से गुजरना पड़ता है। आपको जनता के बीच रहना भी है साथ ही जनदबाव, जो कई बार गलत चीजों के लिए भी हो सकता है, से खुद को महफूज रखना भी होता है। गाँवों में अपनी जाति, कुनबे व धर्म के दबाव को झेलना आसान नहीं होता।
सी.पी.आई के मरहूम राज्य सचिव कॉ. सत्यनारायण सिंह इन मामलों में बेहद दुर्लभ शक्सियत थे। जनता में लोकप्रिय रहने के अलावा पार्टी के कार्यों के प्रति भी उनमें वैसी ही प्रतिबद्धता व कुषलता थी। खगड़िया के लोगों के लिए जहाँ वे जननेता थे वहीं पार्टी के सांगठनिक और वैचारिक कार्यों को लेकर भी उतने ही गम्भीर थे। दानों किस्म के कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं क मध्य संतुलन स्थापित करने वाले अनूठे नेता थे सत्यनारायण सिंह।
हाल के दिनों में बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के कई बड़े नेताओं की मृत्यु हुई जिनमें बद्री नारायण लाल, खगेंद्र ठाकुर, यू.एन.मिश्र, जलालुद्दीन अंसारी, वासदेव सिंह, गया सिंह, विष्णुदेव सिंह, शिवशंकर शर्मा, कृष्णकांत सिंह प्रमुख हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का जिसे ‘ओल्ड गार्ड’ कहा जाता है, वह एक-एक कर पटल से ओझल होता जा रहा है। सत्यनारायण सिंह ने देश व समाज के एक बहुत कठिन दौर मे पार्टी की कमान संभाली थी।
प्रारम्भिक जीवन
सत्यनारायण सिंह का जन्म 1942 में रामनवमी के दिन खगड़िया जिले के चौथम प्रखण्ड के देवका कैथी गाँव में सम्पन्न हुआ। तब खगड़िया मुंगेर जिला में हुआ करता था। उनके पिता द्वारिका प्रसाद सिंह एक सम्भ्रान्त किसान थे। प्राथमिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में हुई थी। जिला स्कूल मुंगेर से शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे भागलपुर के प्रतिष्ठित टी.एन.बी कॉलेज के विद्यार्थी बने। स्नातकोत्तर इन्होंने दो विषयों अॅंग्रेजी एंव राजनीतिक अर्थशास्त्र में किया था। परिवार के लोगों को उम्मीद थी कि सत्यनारायण सिंह कोई हाकिम वगैरह बनेंगे लेकिन उन्होंने एक दूसरा व कठिन रास्ता चुना।
1967 में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे जगजीवन राम महाविद्यालय, जमालपुर में कॉलेज शिक्षक के रूप में काम करने लगे। जमालपुर में रेल कारखाना वगैरह होने के कारण शेष बिहार की तुलना में अधिक औद्यौगीकृत इलाका था। जमालपुर में ही उनकी भेंट मजदूर नेता बलराम सिंह से हुई। बलराम सिंह मजदूरों को संगठित किया करते थे। उनके व्यक्तित्व के प्रभाव में 1968 में सत्यनारायण सिंह ने नौकरी छोड़ दी। 1969 में सी.पी.आई में शामिल हुए। खगड़िया तब अलग जिला नहीं बना था। मुंगेर के एक सबडिवीजन के रूप में जाना जाता था। इसी वर्ष अपने गाँव कैथी के मुखिया चुने गये। 1978 के चुनाव में भी वे पुनः मुखिया चुने गये। तब प्रखण्ड प्रमुख का चुनाव अलग से नहीं होता था। मुखिया से ही प्रखण्ड प्रमुख भी चुने जाते थे। सत्यनारायण सिंह प्रखण्ड प्रमुख चुन लिए गये। इस पद पर वह 1990 तक रहे। बीच में कुछ समय के लिए वकालत भी करते रहे।
विधायक चुना जाना
1990 का विधानसभा चुनाव बिहार की राजनीति मे बेहद निर्णायक माना जाता है। इसी वर्ष लालू प्रसाद मुख्यमन्त्री बने। 1990 के चुनावों में वाम दलों का जनता दल के साथ तालमेल हुआ। लेकिन जनता दल का नेतृत्व चौथम सीट सत्यनारायण सिंह और सी.पी.आई को देने के लिए राजी नहीं हुआ। फलतः दोनों दलों ने यहाँ अपने-अपने उम्मीदवार उतारे। सी.पी.आई से सत्यनारायण सिंह और जनता दल के टिकट पर अरूण केसरी। सत्यनारायण सिंह बारह हजार वोटों से विजयी हुए। 1995 में जनता दल को मजबूर होकर सत्यनारायण सिंह को समर्थन करना पड़ा। इस दफे वे लगभग बत्तीस हजार वोटों से विजयी हुए। सत्यनारायण सिंह की लोकप्रियता में निरन्तर इजाफा होता चला गया। 2000 के चुनाव में सत्यनारायण सिंह ने पिछले दोनों चुनावों को जोड़कर जितने मत मिले थे इस दफे उससे भी अधिक वोट पाया। लेकिन फिर भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा। तमाम कम्युनिस्ट विरोधी शक्तियाँ उनके विरूद्ध गोलबन्द हो चुकी थी।
दिल्ली में बैठे बिहार के चुनावी विशेषज्ञों में ‘जाति’ को केन्द्रीय कारक मानने की प्रवृत्ति रही है। किसी विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र की ‘जाति’ की गणना के आधार पर वे चुनावी भविष्यवाणी करते हैं। बिहार में ये पुरानी समझ ठीक से काम नहीं करती इन्हीं वजहों से यहाँ को लेकर किए जाने वाले राजनीतिक आकलन अक्सर गलत भी साबित हो जाते हैं। पूरे चौथम विधानसभा क्षेत्र (अब बेलदौर विधानसभा क्षेत्र) में सत्यनारायण सिंह की जाति के मात्र डेढ़ से दो हजार वोट है। बिना दूसरी जातियों के वोटों के, ‘जाति’ के उभार काल माने जाने वाले समय में, जीत सम्भव नहीं थी।
सत्यनारायण सिंह की जीत की पृष्ठभूमि में थी आमलोगों के संघर्षों में उनका शामिल रहना। वे लोगों के बीच साग-रोटी, सत्तू-रोटी, मकई का भूंजा खाकर भी टिके रहते। ऐसे प्रतिनिधियों को जनता बखूबी पहचानती है और जाति के तय मानकों को तोड़ आगे आ जाती है। यदि लोगों के पास कोई बड़ा नैरेटिव न हो तो एकमात्र नैरेटिव ‘जाति’ ही बचती है। सत्यनारायण सिंह ने ‘जाति’ से बड़ा ‘जमीन’ का नैरेटिव अपने इलाके में खड़ा किया था। यही उनकी जीत का कारण था।
2009 से 2014 तक बिहार राज्य किसान सभा के महासचिव रहे और बड़े पैमाने पर भूमि आन्दोलन का नेतृत्व किया।
भूमि संघर्षों में अग्रणी
सत्यनारायण सिंह ने खुद को संघर्षों से जोड़़ दिया। खगड़िया के ‘फरकिया’ कहे जाने वाले इलाके में एक गाँव से दूसरे गाँव कई नदियों को पार कर जाना पड़ता था। खगड़िया में कई जिलों के जमींदार थे। बेगूसराय के भी कई बड़े जमींदारों की वहाँ जमींदारी चलती थी। इन लोगों ने हजारों एकड़़ जमीन पर कब्जा कर रखा था। खगड़िया की बहुसंख्य आबादी बेहद गरीब थी और इन जमींदारों की जमीन पर मजदूरी कर अपनी जीविका चलाती थी। सत्यनारायण सिंह ने इन जमींदारों के विरूद्ध बिगुल फूँक दिया। सत्यनारायण सिंह किसी की जमीन जर्बदस्ती दखल रखने का इरादा नहीं रखा करते थे कानून सम्मत ढ़ंग से सीलिंग की फाजिल जमीन पर कब्जा कर भूमिहीन किसानों के बीच उसे वितरित करने का काम करते। उन्होंने सैंकड़ों गरीबों भूमिहीनों को बसाया, पर्चा दिलाया।
इस कारण सत्यनारायण सिंह की जान पर खतरा मंडराने लगा, उन पर हिंसक हमले होने लगे। इन हमलों के सम्बन्ध में सत्यनारायण सिंह के निकट सहयोगी व कम्युनिस्ट नेता राजेंद्र राजन बताते हैं ‘‘कई बार वे बाल-बाल बच निकलते। मुझे कई बार खगड़िया, सूरज नारायण सिंह के साथ जाना पड़ता। पता चलता कि उन्हें जमींदार के गुण्डों ने घेर रखा है लेकिन गोलियों की बौछारों के बीच भी सत्यनारायण सिंह बच निकलते। वे अपने लाइसेंसी हथियार से इन हथियारबद्ध गुण्डों को मुकाबला किया करते। हमलोग उनको हिम्मत बंधाने जाते। सत्यनारायण सिंह कहा करते कि यदि पार्टी को मजबूत बनाना है तो संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं।’’
संघर्षों के माध्यम से उन्होंने पार्टी का संगठन खड़ा किया। राजेंद्र राजन आगे यह भी कहते हैं ‘‘1964 में जब कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ। खगड़िया जिला में उस वक्त अधिकांश महत्वपूर्ण लोग सी.पी.एम में चले गये। एकमात्र रामध्वज मालाकार सी.पी.आई में रह गये थे और उनका प्रभाव भी एक खास इलाके में सीमित था। लेकिन धीरे-धीरे सत्यनारायण सिंह ने गाँव-गाँव संगठन फैलाया। अलौली में भी, जहाँ के रामविलास पासवान हैं, संगठन बनाया। इन संघर्षों में उन्होंने जातिवाद के जहर पर भी अंकुश बनाए रखा।’’
उदारवादी खेमे लोग जो कम्युनिस्ट पार्टियों पर हमेशा इस बात की आलोचना किया करते हैं कि ये लोग हिंसा का सहारा लेते हैं, बंदूकों के बगैर इनकी राजनीति नहीं चलती। ऐसे लोग सामंती प्रभावों वाले इलाके की डायनेमिक्स को नहीं समझ पाते। खासकर जब मामला सम्पत्ति के बँटवारे का हो तो सांमती शक्तियाँ बेहद हिंसक ढ़ंग से प्रतिकार करती हैं। दुनिया भर का अनुभव भी यही बताता है कि सम्पत्तिशाली शक्तियाँ कभी भी अपनी सत्ता और सम्पत्ति इच्छा से नहीं छोड़तीं। ऐसी स्थिति में बगैर हथियारों के सुरक्षा कवच के जमीन बाँटना तो दूर जिंदा रह पाना मुश्किल होता है। अपनी कतारों की रक्षा करने के लिए हथियार कई बार आवश्यक हो जाता रहा है। अहिंसक संघर्ष सम्भव हो सके इसके लिए अपनी सुरक्षा कवच को सुदृढ़ करना अति आवश्यक होता है। बेगूसराय, जहानाबाद, समस्तीपुर और भोजपुर में हुए भूमि संघर्षों का अनुभव यही बताता है। बीसवीं षताब्दी के तीसरे दशक में पेरू के एक महत्वपूर्ण मार्क्सवादी चिन्तक जोसे कार्लास मरियातगी ने इस सम्बन्ध में एक अंर्तदृष्टिसम्पन्न टिप्पणी की थी ‘‘दुनिया के हर हिस्से के क्रान्तिकारियों को ये तय करना है कि वे हिंसा के शिकार होंगे या उसका उपयोग करेंगे। अगर कोई अपने जज्बे और बुद्धिमत्ता को बर्बर शक्ति के अधीन रखना नहीं चाहता तो उसे इस बात का संकल्प न चाहते हुए भी लेना चाहिए कि पशुबल को बुद्धिमानी व जज्बे के अधीन रखा जाए।’’
बिहार में सत्ताधारी दलों ने जितनी भूमि नहीं बाँटी होगी उससे सैंकड़ों गुणा अधिक कम्युनिस्ट पार्टियों ने भूमिहीनों के मध्य वितरित की। बिहार के विभिन्न इलाकों में बने कम्युनिस्ट नेताओं के नाम पर बने नगरों के नामों से इन क्षेत्रों को पहचाना जा सकता है। केंद्रीय मन्त्री रामविलास वासवान भी इसी इलाके से आते हैं लेकिन इनलोगों ने कभी भी इन पिछड़े, अतपिछड़े, दलित व महादलित तबके से आने वाले किसानों, खेतमजदूरों की सुध नहीं ली।
गरीबों में जो भी जमीन बाँटी जा सकी है उसकी बहुत बड़ी कीमत कम्युनिस्ट पार्टी को उठानी पड़ी है। इन भूमि संघर्षों में कई दर्जन साथी मारे गये। कॉ. बद्री नारायण सिंह भूमि संघर्ष में मारे गये तो उन्होंने उनके हत्यारों को खुली चुनौती दी। आज उसी शहीद बद्रीनारायण के पुत्र प्रभाकर सिंह आज खगड़िया जिला कम्युनिस्ट पार्टी का मन्त्री है। बकौल प्रभाकर सिंह ‘‘ 1981 अपराधियों ने मेरे पिता की दिनदहाड़े उनकी हत्या कर दी थी। मेरे पिता एक स्कूल शिक्षक थे। मैं तब पाँचवी क्लास में पढ़ता था। मेरी एक छोटी बहन मात्र छह महीने की थी और माँ का दूध पीती थी। हम दो भाई चार बहन थे। उसके बाद सत्यनारायण सिंह ही मेरे पिता, मेरे अभिभावक थे। उन्होंने हमारे रहने, खाने से लेकर सभी चीजों की चिन्ता की। जब मैं बड़ा हुआ तब मुझे अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल रही थी लेकिन सत्यनारायण सिंह ने समझाया कि नौकरी करोगे तो गरीब जनता की लड़़ाई कौन लड़ेगा।? ’’हत्याओं का ये सिलसिला आज भी जारी है। खगड़िया जिले में सी.पी.एम के एक प्रमुख नेता जगदीशचंद्र बसु की लॉकडाउन के दौरान ही हत्या कर दी गयी।
बेगूसराय के भगवान प्रसाद सिन्हा ने खगड़िया में भूमि आन्दोलन के महत्व के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है ‘‘कॉमरेड सत्यनारायण सिंह, कॉमरेड कृष्णकांत सिंह और बी.के आजाद एकसाथ तिकड़ी बनाते थे। खगड़िया, समस्तीपुर, बेगूसराय और सहरसा जिला को फर्क करने वाला फरकिया परगना बाहरी जमींदारों का उपनिवेष रहा है। बाहरी जमींदार मुख्यतः सामाजिक अधिक्रम के उपरी ढाँचे से आते थे जो मुगलिया सल्तनत, अॅंग्रेजों तथा स्वातन्त्रयोत्तर भारत के काँग्रेसी राज के जमाने में पूरे क्षेत्र के जमीन पर काबिज थे। उपर्युक्त तीनों किसान नेता भी उसी अधिक्रम से आते थे। लेकिन जमीन जोतने वालों सभी अति पिछड़े वर्ग, पिछड़े वर्ग और महादलित परिवार के थे। कम्युनिस्ट पार्टी का सबसे प्यार नारा होता था ‘जो जमीन को जोते बोये, वह जमीन का मालिक है।’ इसी नारे के साथ तीनों कम्युनिस्ट महायोद्धाओं ने किसानों के हक में बाहरी स्वजातीय जमींदारों के विरूद्ध संग्राम शुरू किया और जमींदारों को मार भगाया।’’ सी.पी.आई के पूर्व राज्यमन्त्री राजेंद्र कुमार सिंह के अनुसार ‘‘सत्यनारायण सिंह ने जमींदारों में दहशत कायम कर दिया था।’’
स्वामी सहजानंद सरस्वती से लगाव
भूमि संघर्षों की प्रेरणा उन्हें सबसे अधिक स्वाधीनता सेनानी व क्रान्तिकारी किसान नेता स्वमी सहजानंद सरस्वती के व्यक्तित्व से मिली। स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा स्थापित अखिल भारतीय किसान सभा के वे बिहार प्रदेश महासिचव भी रहे। स्वामी सहजानंद सरस्वती के महत्व व कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रति योगदान को वे बखूबी समझते थे। पिछले साल, 2019 में, स्वामी सहजानंद सरस्वती पर अमेरिकी प्रोफसेर वालटर हाउजर द्वारा लिखित पहली पी.एच.डी थीसिस के पुस्तकाकार छापने के बाद उसके लोकार्पण समारोह में स्वामी जी के महत्व को रेखांकित करते हुए सत्यनारायण सिंह ने कहा था ‘‘जमींदारी उन्मूलन का सबसे बड़ा श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है। स्वामी जी किसान आन्दोलन के प्रणेता थे। उन्होंने किसान आन्दोलन को दिशा दी और इसी आन्दोलन के कारण बिहार में कई किस्म के बदलाव सम्भव हुए। रेंट रिडक्शन के प्रश्न पर तो उन्होंने तत्कालीन सरकार को झुका डाला था। लेकिन स्वामी जी के देहाँत के कारण भूमि सुधार की गति धीमी हो गयी।’’ बिहार में भूमि समस्या को वे प्रधान सवाल मानते हुए सत्रूनारायण सिंह ने उसी वक्तव्य में आगे कहा ‘‘ जब कम्युनिस्ट नेता चंद्रशेखर सिंह रेवेन्यू मिनिस्टर थे, तो सदन के पटल पर कहा था, बिहार के अन्दर 18 लाख एकड़ सीलिंग से फाजिल जमीन है। चंद्रशेखर सिंह के समय लगभग एक लाख एकड़ जमीन बाँटी गयी। भूदान में साढ़े छह लाख एकड़ भूमि मिली जिसमें दो लाख एकड़ भूमि बाँटी गयी है लेकिन उसमें से एक लाख एकड़ पर अभी भी दखल नहीं है। सामाजिक न्याय की सरकारों ने भी तो इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया। डी. बंद्योपाध्याय ने कहा था यदि सीलिंग से फाजिल जमीन को 15 एकड़ व 30 एकड़ कर दिया जाए तो अब भी 18 लाख एकड़ जमीन सीलिंग से फाजिल निकलेगी। बंद्योपाध्याय के अनुसार साढ़े पाँच लाख परिवार ऐसे हैं जिनके पास बासगीत की जमीन नहीं है। बिहार में अर्ध सामंती अवशेष बचे हुए हैं। भूमि का सवाल भी वैसे ही पड़ा हुआ। एक वर्ग आघारित पार्टी ही भूमि को बांटने का काम कर सकती है। पटना में बहुत सारे लोगों का मूर्ति लगाया गया। लेकिन स्वामी स्हजानंद सरस्वती की एक भी मूर्ति मुख्य जगह पर नहीं लगायी गयी है। ’’
उन्हें इस बात का थोड़ा अफसोस भी था कि स्वामी जी के साहित्य को आमलोगों में ले जाने का जो कार्य वामदलों को करना चाहिए था उसमें कोताही बरती गयी। बल्कि अपने पार्टी के पुराने नेताओं इंद्रदीप सिन्हा जैसे लोगों से भी शिकायत रही कि जब ये लोग 10 महीने तक बिहार में मन्त्री पद पर रहे। कई महत्वूपर्ण पहलकदमियाँ किसानों-मजदूरों के पक्ष में उठायीं लेकिन स्वामी सहजानंद सरस्वती की विरासत को संस्थागत षक्ल देने सम्बन्धी कार्य न हो सका।
स्वामी सहजानंद सरस्वती सरस्वती की पुणयतिथि पर सत्यनारायण सिंह अवश्य जाते। इस वर्ष कोराना संकट के दौरान भी उनकी पुण्यतिथि, 26 जून, के अवसर पर बिहटा स्थित सीताराम आश्रम पहुँचने वाले सबसे पहले शख्स थे। 2011 में किसान सभा की स्थापना के पचहत्तरवें वर्ष के अवसर पर बड़ा किसान सम्मेलन कराया जिसमें 17 राज्यों के किसान यहाँ शामिल हुए थे।
मुश्किल वक्त में पार्टी की बागडोर
2015 में सत्यनारायण सिंह, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बिहार ईकाई के सचिव बने। इसके एक वर्ष पूर्व केन्द्र में नरेन्द्र मोदी सत्तासीन हो चके थे। पिछले छह-सात वर्ष भारत में बहुत उथल-पुथल भरा और हंगामेदार रहा। इसी वर्ष कन्हैया कुमार जवाहर लाल नेहरू छात्र संघ के अध्यक्ष बनते हैं। 2016 के फरवरी में कन्हैया पर देशद्रोही घोषित कर कलंकित किया जाने लगा। सत्यनारायण सिंह ने इस मुश्किल वक्त में बिहार कम्युनिस्ट पार्टी को नीचे तक संगठित कर कन्हैया को एक सामाजिक-राजनीतिक आधार तैयार करने का प्रयास किया। दक्षिणपन्थी शक्तियों द्वारा जिस ढ़ंग से कन्हैया को कलंकित कर उन्माद पैदा किया जा रहा था ऐसे में यह कोई सामान्य बात न थी। बिहार में बैठकें, रैलियाँ आयोजित कर उसके कन्हैया के व्यक्तित्व को एक ठोस जनतांत्रिक आधार देने का प्रयास किया। वैसे तो अगले तीन चार सालों मे कन्हैया देश भर में जाने लगे लेकिन बिहार में उनकी सक्रियता और कम्युनिस्ट पार्टी के आधार ने उन्हें एक ऐसा सियासी शक्सियत बना दिया जिससे बिहार में शासक वर्ग की धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ भी असहज महसूस करने लगी। 2019 लोकसभा चुनाव में कन्हैया कुमार को बेगूसराय से समर्थन न देने के पीछे यही असहज स्थितियाँ थी। सत्यनारायण सिंह के अडिग समर्थन के बगैर ये कार्य मुश्किल होता।
पिछले साल 5 अगस्त को कश्मीर की स्वायत्ता व पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त करने, नागरिकता संशोधन पिछले कानून के खिलाफ होने वाले विरोध प्रदर्शनों का संचालन करते रहे। खुद अग्रिम मोर्चे पर खड़े रहकर नेतृत्व प्रदान करते।
आगामी चुनाव में बिहार में सत्यनारायण सिंह वाम-जनतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की व्यापक एकता सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए प्रयासरत थे। गैरसंसदीय संघर्ष को संसदीय दावपेंच के मातहत करने के पक्षधर वे नहीं थे। कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रति हमेशा ये शिकायत रहती है कि पूरे पाँच वर्ष तो कम्युनिस्ट पार्टियाँ शोषित वर्गों के मुद्दों को लेकर आवाज उठाती है और चुनावों के वक्त इन वर्गों से उदासीन राजनीतिक दलों के साथ संश्रय कर लेती है। इससे उसे न तो राजनीतिक लाभ होता है और संघर्षों से बनी प्रतिष्ठा भी धूमिल होती है। लेकिन सत्यनारायण सिंह को संघर्षो की बदौलत वामपन्थ की स्वतन्त्र दावेदारी की आकांक्षा को चुनावी तात्कालिताओं से तालमेल बिठाने का मुश्किल काम भी करना पड़ता। इस मामले में वे सतर्क थे। आगामी चुनाव में उनकी इस कोशिशों को गौर से देखा जा रहा था।
उनके पाँच वर्ष का दौर बिहार तथा पूर देश में वामपन्थी शक्तियों के निरन्तर सड़क पर संघर्ष करने का दौर रहा है। सत्यनारायण सिंह ने छोटी-छोटी सभाओं, सेमिनारों, स्मृति आयोजनों सबमें उपस्थित रहने का प्रयास किया करते। केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान, प्रगतिशील लेखक संघ, इस्कफ, ऐप्सो सरीखे संगठनों को जब आवश्यकता होती मदद करने को तत्पर रहा करते। 2018 के जुलाई में में प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित कार्ल मार्क्स की 200 वीं तथा राहुल सांस्कृत्यान की 125 वीं वर्षगाँठ के लिए संसाधन जुटाने में उन्होंने अथक प्रयास किया।
उनकी चिन्ता के केन्द्र मे हमेशा कम्युनिस्ट पार्टी का सांगठनिक विस्तार बना रहता। संभावित कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं से निजी दिलचस्पी लेकर उन्हें सांगठनिक रूप से जोड़ने का प्रयास करते। वे अक्सर कहा करते ‘‘कम्युनिस्ट पार्टी का दिन कभी नहीं घटेगा।’’
पार्टी के अन्दर अवसरवादी प्रवृत्तियों से संघर्ष
सत्यनारायण सिंह पार्टी के अन्दर किसी भी विचलन व अवसरवादी प्रवृत्तियों को विरूद्ध संघर्ष के लिए भी जाने जाते रहे हैं। राजेंद्र राजन ने ‘ लाइव जनशक्ति’ पर दिए अपने वक्तव्य में कहा है ‘‘सत्यनारायण सिंह सिर्फ वर्गशत्रुओं से ही नहीं बल्कि पार्टी के भीतर के अवसरवादी तत्वों से भी निर्मम संघर्ष चलाते। ऐसे लोगों को जब वे कुछ बोल देते तो बुरा मान जाया करते कि वे उन्हें अपमानित किया जा रहा है। लेकिन उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत कटुता को हावी होने नहीं दिया। जिस कॉमरेड को कुछ दिनों पूर्व डांट पिलायी होती तो बाद में उसके इलाज के लिए भी वैसे ही उनके लिए तत्पर रहा करते। जिन नेताओं का वे सम्मान करते उनकी खुलेआम आलोचना किया करते। कार्यशैली को बेहतर बनाने की हमेशा कोशिश करते। पार्टी के भीतर ऐसे लोग उनको लेकर तरह-तरह की बातें भी बनाते।’’
लेकिन बाद में सभी पार्टी को आगे बढ़ाने की उनकी चिन्ता को समझते। सत्यनारायण सिंह युवा कॉमरेडों से भी जीवन्त संवाद बनाए रखते। छात्र व युवा संगठन कैसे बेहतर बनाया जाए इसके लिए तत्पर रहा करते। वे एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय रहा करते। कोई मोर्चा दोयम महत्व का नहीं होता। इसका भान उन्हें था। नई-नई चीजों के प्रति उत्सुकता जाहिर करते। पार्टी का सोशल मीडिया, प्रचार-प्रसार, अखबार आदि चीजें के प्रति सरोकार बनाए रखते। बिहार की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की 80 वीं वर्षगाँठ को पूरे बिहार में मनाने की शुरूआत की। निजी पहलकदमी लेकर दस्तावेजी महत्व की सामग्रियों को कैसे इकट्ठा किया जाए इसकी उन्हें फिक्र थी। यदि कोराना संकट न होता तो सम्भव है स्मारिका प्रकाशित भी हो जाती।
खगड़िया जिला के साहित्यकार शालिग्राम ने ‘किनारे के लोग’ नाम से एक उपन्यास लिखा था। उपन्यास में कोशी एवं बागमती नदी की वजह से जो बाढ़ आती है, परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित होते हैं। इसका चित्रण उपन्यास में किया गया है। ‘किनारे के लोग’ में, सत्यनारायण सिंह के पुत्र, अंकित कुमार अनंत के अनुसार ‘‘उपन्यास में किसान आन्दोलन का नायक सत्तो हजारी नाम का पात्र है जो गरीब-गुरबों के न्याय की निर्भीक लड़ाई लड़ता है। सामंतों व दबंगों द्वारा मिलकर कैसे चुनाव में कैसे सत्तो हजारी को साजिष के तहत हराया जाता है इसका जीवन्त वर्णन है पुस्तक में। सत्तो हजारी कोई और नहीं बल्कि खगड़िया जिले के कम्युनिस्ट पार्टी का सचिव होता है जो कोशी इलाके में भूमि आन्दोलन का नेतृत्वकर्ता होता है। इस उपन्यास को लिखने के बाद लेखक खुद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के खगड़िया पार्टी कार्यालय में आकर सत्यनारायण सिंह को पुस्तक की प्रति भेंट कर कहते हैं कि आप इस पुस्तक में सत्तो हजारी के किरदार में रूप में मौजूद हैं।’’
सत्यनारायण सिंह की इच्छा थी कि जब थोड़ा आराम मिले का एक संस्मरण लिखकर संघर्ष के अपने अनुभवों को साझा करें। लेकिन असमय निधन से उनकी ये इच्छा पूरी न हो सकी।