नर्मदा घाटी के 33 से अधिक साल लड़ते आए किसान-मजदूर जल, जंगल, जमीन पर अपना हक जताते रहे हैं। लेकिन खेती घाटे का सौदा होते हुए खेतिहरों के बेटे-बेटियों को क्षेत्र के या बाहर के भी उद्योगों में नौकरियां या मजदूरी के लिए भी बढ़ना पड़ा है। नर्मदा के पानी पर और किसानों की ही जमीनें अर्जित करते हुए जो जो उद्योग उभरते गये हैं, उन उद्योगों में हजारों-हजार घाटी के युवा कार्यरत हैं और उनके अनुभव, समस्याएं भी अब किसानी क्षेत्र में चर्चा का मुद्दा बन गया है।
रोजगार निर्माण भी तो राजनीतिक अजेंडा पर उतर आया हुआ एक संकट या चुनौती है ही! लेकिन रोजगार, आज का और कल का, इसके बीच की दूरी भी एक खाई बन गयी है| प्राकृतिक संसाधनों पर जीते आए, पीढ़ियों की परंपरा से स्वयं रोजगार पर निर्भर आदिवासी जैसे अन्य किसी भी उद्योगों में मजदूर बनने पर घुटन महसूस करते हैं, कहीं ईट की खदानें यार रेत के काम में सिलिकोसिस की बीमारी से मौत तक भुगतते हैं, वैसे ही कुछ फर्क के साथ, किसानों के बेटे भी मध्य प्रदेश के पीथमपुर नाम के औद्योगिक क्षेत्र की गलियों में, कल-कारखानों में, मशीनों की धड़धड़ाहट में जब आ पहुंचते हैं, तब उन्हें अपने हरे-भरे खेत, अपनी दाल बाटी ही क्या अपने गांव की नदी और खलिहान भी टूटते हुए दिखाई देते हैं|
खेती और किसानी बचाकर, अपनी जड़ें गांव में बरकरार रखते हुए ये जब उद्योगनगरी में आकर पैसे की कमाई के लिए अपने श्रम, अपनी शिक्षा और कुशलता का निवेश करते हैं| इस नयी दुनिया में उन्हीं के सामने उद्योग क्षेत्र की कई ऐसी चुनौतियां खड़ी हो जाती है की किसानों के संघर्ष के अनुभवों या अनुभवी युवा भी मजबूर होते हैं, लड़ाई शुरू कर ही देते हैं|
आज 80% ठेका मजदूरों के श्रम भी सस्ते में खरीदकर चल रही फैक्ट्रियों का रोजगार निर्माण का दावा और दिखावा तो बना है ही, लेकिन नफाखोरी और पूंजीवाद के नए आयामों में फंसे ये बड़े उद्योगपति अपनी मनमानी के बल पर जिस प्रकार से कंपनियां खोलना और बंद करने का खेल चलाते हैं, यह अनुभव है सेंचुरी के श्रमिकों का! मुंबई में बड़ा नाम लेकर चली बिरला सेठ की सेंचुरी भी इन्होंने बंद की, जो कि मुंबई के ही ‘गिरजी कामगारों’ के संघर्ष का कारण बनी| वहां भी बहुतांश श्रमिकों को कुछ लाख रुपया वीआरएस के रूप में लेकर बोरया-बिस्तर बांध कर छुट्टी लेनी पड़ी|
लेकिन कुछ 300 श्रमिकों ने लंबी, जीवट लड़ने से निवृत्ति के वर्ष तक, पूरी वेतन की राशि हासिल की! मिल्स बंद होकर भी सेठ को उनको बख्शीश देना पड़ा| साथ ही उनकी जमीन में, न केवल बिरला बल्कि हर पुराने मिल मालिकों को 1/3 हिस्से में श्रमिकों के लिए घर, यह हिसाब भी मंजूर करना पड़ा|
पिछले डेढ़ साल से अब चल रहा है मध्यप्रदेश में स्थित सेंचुरी की याने बिरला समूह की ही यार्न और डेनिम की उत्पादक, दो मिल्स के श्रमिक जारी रखे हैं अपना संघर्ष! हकीकत यह है कि सेंचुरी ने दोनों मिल्स बेचने का निर्णय लिया| करीबन दो-तीन सालों से सैकड़ों श्रमिकों को जबरन नौकरी से कुछ ना कुछ कारण देकर हटाना, मशीनरी में नहीं खरीदी टालना, उत्कृष्ट प्रति के उत्पादन को भी पुरे दाम की चिंता न करते हुए बेचना आदि हरकतों से ढलती गयी कमाई और इन दोनों बिलों पर कर्जबोझ ही नहीं हर महीना 3 करोड़ रुपये का घाटा छा गया| इस स्थिति में एक के बदले, एक के बाद एक, अलग अलग दौर में आए चार श्रमिक संगठनों ने अपना डेरा श्रमिकों में बनाया लेकिन अंधाधुंध व्यवहार कई बार आपस की मारपीट, गोलीबारी तक चलती रही आपसी मतभेद की कहानी|
यह मिल्स फिर भी बिरला की परंपरा का सुन्दर आविष्कार रही| कम वेतन पाने वाले श्रमिक, जिनमें से कई उत्तरप्रदेश, बिहार ही नहीं महाराष्ट्र के भी बिरला के प्रति संतुष्टि रखते हुए जी रहे थे, स्थानिक श्रमिकों के साथ नर्मदा घाटी के ही गांवों का हिस्सा होकर! अचानक खबर फैली की सेंचुरी बेची जाने की तैयारी में है| उसी दिन यानी 17 अगस्त 2017 के रोज सभी 930 श्रमिक ही नहीं 100 से अधिक कर्मचारी भी कंपनी के अंदर ही ‘बैढा सत्याग्रह’ शुरू करके जवाब मांगने लगे| कोलकाता की वेयरइट ग्लोबल कंपनी को सेंचुरी बेचने की चर्चा थी|
श्रमिकों ने इसे विरोध जताया, वेयरइट की खरगोन या भोपाल जिले में बंद सी पड़ी मिल्स की हकीकत जानकर बिरला के जनरल मैनेजर सरदार जागीर सिंह ने शांतिपूर्णता से पेश आकर आखिर रात-बेरात समझौता हुआ; “अगर मिल्स बेची या लीज पर देना हुआ तो हम शासकीय नियम अनुसार वीआरएस याने नगद राशि देंगे!” श्रम पदाधिकारी, मैनेजर, तहसीलदार, पुलिस अधिकारी तक, सभी से हस्ताक्षर के साथ हुआ हस्ताक्षरी
समझौता लेकर उठे श्रमिक एक प्रकार से खुश ही हुए थे| लेकिन 5 ही दिन बीते न बीते 22 अगस्त के ही रोज सेंचुरी वेयरइट के बीच बिक्री सौदा हो गया|
श्रमिकों ने श्रमिक संगठनों का, वेयरइट में कार्य स्वीकारने की सलाह नकारकर फैक्ट्रियों के बाहर निकलकर गेट पर धरना शुरू किया| 10 दिनों तक कंपनी से कोई जवाब ना पाने पर चिंतित होकर, श्रमिक संगठनों पर भी भरोसा खोने पर वे हमारे पास पहुंचे| नर्मदा के किसानों से घाटी में ही कार्यरत मजदूरों को भी जोड़ना वाजिब और जरूरी मानकर हमने उन्हें साथ लेकर ही मनायी 2017 की ‘काली दिवाली’| यह भी पाया कि उनके पास सेंचुरी वेयरइट के बीच का अनुबंध की प्रति भी नहीं है| यूनियन तथा श्रम आयुक्त ने भी कॉपी ना होने की बात कही तब हमने सोचा, कानूनी लड़न भी जरूरी होगी| अधिकृत माने युनियन्स को भी साथ लेकर लड़नी होगी|
पहली ही जाहिर सभा में युनियन्स के प्रतिनिधियों ने आकर पूरा समर्थन और श्रमिकों के अधिकार होते हुए संघर्ष का निर्णय मंजूर किया| नर्मदा आंदोलन के अनुभव से हमने शर्त रखी, श्रमिकों के परिवारों की महिलाओं को आंदोलनों में जोड़ने की| ‘सत्याग्रह आंदोलन’ नाम देते हुए संघ या हड़ताल नहीं, यह स्पष्ट करते, ये सैकड़ों श्रमिक और महिलाओं ने सेंचुरी के मिल्स में ही काम दो, इस मांग के साथ जो संघर्ष शुरू किया, वह 515 दिन बाद आज भी जारी है| ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’, जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय का हिस्सा बनकर लेकिन स्थानीय समिति के नेतृत्व में संगठित शक्ति और एकता का परिचय देते हुए|
लेकिन इस बीच बहुत सी घटनाएं, निर्णय, फैसले और बुनियादी सवाल खड़े हुए जिसपर गहरी सोच जरूरी है| सर्वप्रथम युनियन्स की शिकायत पर औद्योगिक न्यायाधिकरण में लगी रेफरेंस याचिका पर सुनवाई में उनके वकील के अलावा हमारे अधिवक्ता और स्वयं मैं बहस में शामिल हुई| मुंबई-इंदौर हाईवे पर स्थित इन उद्योगों के पास 83 एकड़ जमीन, 10 बिल्डिंग्स, मशीनरीज होकर उसकी कीमत मात्र 5 करोड़ रुपया बताना और 1000 रुपये के स्टाम्प पेपर पर बिक्री या हस्तांतरण फर्जी साबित हुआ और निरस्त भी हो होता|
कंपनियों ने कानूनी मैदान में और एक सवाल छिड़का दिया – श्रमिकों का आंदोलन ही अवैध होने का| लेकिन कानूनी आधार पर कंपनी हार गयी, न केवल न्यायाधिकरण में बल्कि अपील याचिका दाखिल करने के बाद, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में भी| न्यायाधिकरण याने ट्रिब्यूनल को कानूनी दांवपेच में यह भी मानना पड़ा कि अब मालिकों के बगैर ही सेंचुरी का फर्ज बनता है कि वह नियमित वेतन दे, श्रमिकों और कर्मचारियों को भी| आज भी मिल्स बंद है लेकिन वेतन क्या बोनस भी पाकर जारी है श्रमिकों का संघर्ष— विविध कार्यक्रमों, व राष्ट्रीय संघर्षों के साथ जुड़कर|
इस बीच अद्भुत यह हुआ कि बिरला सेंचुरी कंपनी ने श्रमिकों की अपूर्ण एकजुट मानकर युनियन्स के बगैर समझौते के लिए संवाद शुरू किया| उनके पदाधिकारियों के साथ संवाद में हमही ने, श्रमिकों का समझाकर, चारों युनियन्स को शामिल किया|
लेखिका नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेत्री और प्रसिद्द पर्यावरणविद हैं|