शख्सियत

बुद्ध और मार्क्स में से कोई  

 

श्री बसंत मून ने अपनी पुस्तक ‘डा.बाबा साहब आम्बेडकर’ पहला संस्करण:1991, नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया-1991 के पृष्ठ संख्या 196 के पांचवें पैराग्राफ में लिखा कि, “दिल्ली में श्री राजभोज ने फरवरी 1953 में श्री एम आर मूर्ति के सम्मानार्थ दावत दी। इस अवसर पर बाबा साहब भी उपस्थित थे। उन्होंने कहा, ” आगामी पीढ़ी को बुद्ध और कार्ल मार्क्स-इनमें से किसी एक का चुनाव करना है।”

इतना ही नहीं उसी पुस्तक के पेज 205 के तीसरे पैरा में लिखा कि “मई 1956 में उनका (बाबा साहब का) भाषण बीबीसी पर प्रसारित किया गया। उन्होंने अपनी रेडियो वार्ता में कहा, “मुझे बौद्ध धर्म, उनके तीन सिद्धांतों–प्रज्ञा, करुणा और समता–के कारण अधिक प्रिय है। ईश्वर या आत्मा समाज के अधोपतन से नहीं बचा सकते। बौद्ध धर्म ही व्यक्ति और समाज को गिरने से बचा सकता है। बुद्ध की सीख ही रक्तविहीन क्रान्ति द्वारा साम्यवाद (कम्युनिज्म) ला सकती है।” इससे प्रतीत होता है बाबा साहब अपने अंतिम दिनों में इस बात से सहमत हो चुके थे कि साम्यवाद कोई गलत विचार नहीं है। वे सिर्फ खूनी क्राँति और तानाशाही विहीन कम्युनिज्म चाहते थे।

एक विचित्र किन्तु सत्य बात और – इस पुस्तक के पेज 208 के तीसरे पैराग्राफ में लिखा कि, “13 अक्टूवर, 1956 को संध्या समय उन्होंने दो प्रेस कांफ्रेंस ली। समाचारपत्रों के संवाददाताओं से उन्होंने कहा, “मैंने गांधी जी को आश्वाशन दिया था कि मैं हिन्दू धर्म को कम से कम हानि पहुँचाने वाला मार्ग अपनाऊंगा। बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही अंग है।”

वांग्मय खण्ड-18 ‘मजदूर और संसदीय लोकतंत्र’ विषय पर ‘इन्डियन फेडरेशन ऑफ लेवर’ के तत्वावधान में 8 से 17 सितम्बर, 1943 तक दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कार्मिक संघ के कार्यकर्ताओं के अध्ययन शिविर के समापन सत्र में बाबा साहब ने जो भाषण दिया था, उसका अंश पेज 98 पर इस तरह है, “संसदीय लोकतंत्र लोकप्रिय सरकार का ताना-बाना होते हुए भी वास्तव में एक वंशानुगत शासक वर्ग द्वारा वंशानुगत प्रजा वर्ग की सरकार है। यही उस राजनीतिक जीवन का अनिष्टकारी संगठन है जिसने संसदीय लोकतंत्र को बिल्कुल असफल बनाया है। यही कारण है कि संसदीय लोकतंत्र ने उस आशा की पूर्तिं नहीं की जिसे उसने मानव की स्वतंत्रता, संपत्ति और खुशहाली को सुनिश्चित करने के लिए जनसाधारण तक पहुँचाया था।”

इसी पुस्तक के पेज 162 पर बाबा साहब के बातों को उद्धृत करते हुए श्री बसन्त मून जी ने लिखा है, ” मेरे मरणोंपरांत मेरे विचार या सम्प्रदाय की संस्था मत बनाइए। जो समाज या संस्था काल और समय के अनुसार अपने विचारों को नहीं बदलती या बदलने को तैयार नहीं होती वह जीवन के संघर्ष में टिक नहीं सकती है।”

डॉ. आम्बेडकर ने मार्क्स की और उनके सिद्धांतों की तारीफ में खण्ड-18 के पेज 99 पर लिखा है की, “मेरे विचार से मार्क्स ने इसे सिद्धांत के रूप में नहीं वरन श्रमिकों को दिशा दिखाने के रूप में प्रतिपादित किया था कि यदि श्रमिक वर्ग अपने आर्थिक हितों को सर्वोपरि महत्त्व दे, जैसा कि स्वामी वर्ग अपने हितों के लिए देता है, तो इतिहास के आर्थिक सिद्धांत को पहले से बेहतर तरीके से उजागर करेगा। यदि इतिहास की आर्थिक व्याख्या का सिद्धान्त पूर्णतया सत्य नहीं है, तो इसका कारण यह है कि कुल मिलाकर श्रमिक वर्ग आर्थिक तथ्यों वह आवश्यक शक्ति देने में असफल हुआ है जो वह सहयोगी जीवन को दिशा के रूप में उसे प्रदान करती है। श्रमिक वर्ग मानवता की सरकार से सम्बंधित साहित्य से अपने को अवगत कराने में असफल हुआ है

यह भी पढ़ें – स्त्री शिक्षा के संवाहक : डॉ. भीम राव आम्बेडकर

श्रमिक वर्ग के प्रत्येक व्यक्ति को श्रमिकों की परिस्थितियों के बारे में “रूसो के सोसल कांट्रेक्ट, मार्क्स के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो, पोप लिओ तेरहवें  के इंसाइक्लिकल के विचारों और जैम स्टुवर्ट मिल के स्वतन्त्रता के विचारों से अवगत होना चाहिए। आधुनिक समय के सामाजिक और सरकारी संगठन के आधारभूत कार्यक्रम दस्तावेजों से मैंने केवल चार का उल्लेख किया है, परन्तु श्रमिक वर्ग इन पर उतना ध्यान नहीं देता जितनी आवश्यकता है।” यहाँ श्रमिक वर्ग से उनका मतलब हर जातियों के श्रमिक से है न कि दलित जातियों के श्रमिक वर्ग से।

दलित वर्ग संविधान में गुलामों की तरह यक़ीन रखता हुआ लोकतन्त्र की वकालत करता है कि लोकतन्त्र से अच्छा कुछ भी नहीं है क्योंकि लोकतंत्र हमें समता, स्वतन्त्रता, बन्धुत्व और न्याय प्रदान करता है। लोकतंत्र का मतलब ‘एक व्यक्ति का एक मूल्य’ । इस सम्बन्ध में डॉ. आम्बेडकर ने खण्ड 17 के ‘भारत में लोकतंत्र का भविष्य’ शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में, जो ‘वायस ऑफ अमेरिका’ से 20 मई 1956 को प्रसारित बाबा साहब की एक महत्वपूर्ण भेंटवार्ता से  उद्धृत है कि लोकतंत्र भारतीय व्यवस्था में है कि नहीं? उनका मत है, “भारतीय समाज व्यक्तियों से नहीं बना है, अपितु यह वह समाज है, असंख्य जातियों के समूह से बनता है और ये जातियां अपने जीवन में अनन्य हैं। उन्हें दूसरे के साथ रहने और सहानुभूति रखने का थोड़ा भी अनुभव नहीं है। यह सच्चाई है, जिस पर बहस करने की आवश्यकता नहीं है। जाति-व्यवस्था का अस्तित्व समाज के इन आदर्शों को स्थायी रूप से नकारता है और इसलिए वह लोकतंत्र को भी अस्वीकार करता है।” इससे सिद्ध होता है कि हमें अपने संविधान में वास्तविक लोकतंत्र नहीं मिलता है।

मान्यवर कांशीराम जी ने कांग्रेस और अन्य पार्टियों की देखा-देखी अपनी जातियों के वोट का ध्रुवीकरण अपने जाति के नेताओं के पक्ष में कर लिया, जो लोकतंत्र के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। इस सम्बन्ध में उसी लेख से बाबा साहब के वार्ता का अगला अंश इस सम्बन्ध में उद्धृत है, “आप राजनीति में जाँय और वहाँ भी जाति का अक्स देख सकते हैं। एक भारतीय चुनाव में कैसे वोट डालता है? वह उस प्रत्याशी को वोट देता है, जो उसकी जाति का होता है, किसी अन्य को नहीं।….उदाहरण के लिए निर्वाचन क्षेत्रों की सामाजिक संरचना के सन्दर्भ में उसके प्रत्याशियों की सूची देखिए, आप को पता चल जाएगा कि जिस जाति का प्रत्याशी है, उसकी संख्या उस निर्वाचन क्षेत्र में सबसे ज्यादा है।” इसका मतलब आज दलित डॉ. आम्बेडकर के वसूलों की राजनीति भी नहीं कर रहा है। यह ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद ख़त्म करने का रास्ता नहीं है।

यह भी पढ़ें – डॉ आम्बेडकर और उनकी भारतीय विरासत

बाबा साहब ने एक मार्के की बात उसी वार्ता में आगे कही है कि, “यदि आप भारतीय समाज के उस वर्ग को शिक्षित बनाएंगे, जो अपने जाति के लिए जाति-व्यवस्था को कायम रखने में रूचि रखता है, तो जाति-व्यवस्था और मजबूत हो जाएगी। दूसरी तरफ, यदि आप भारतीय समाज के उस निम्नतम वर्ग को शिक्षा देंगे, जो जाति-व्यवस्था को नष्ट करने में रूचि रखता है, तो जाति-व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी।” इस महत्वपूर्ण कोटेशन की यदि व्याख्या की जाय तो दलित जातियों को और अन्य प्रगतिशील लोगों को निम्नतम वर्ग को शिक्षित करने के लिए आंदोलन चलाया जाना चाहिए। इस आंदोलन में जाति के मोह और विभ्रम को त्यागने का भी उद्यम स्वतः वेग से होना चाहिए।

क्या ऐसा नहीं लगता है कि दलित जातियां ही अधिक अशिक्षित हैं, इसलिए ईमानदारी पूर्वक दलित नेताओं को ही पहल करनी चाहिए। फिर बाबा साहब तो यह भी कह रहे हैं कि जाति को देखकर वोट देने की प्रक्रिया के कारण लोकतन्त्र अपने स्वरूप को ग्रहण नहीं कर पा रहा है। पहले सवर्ण जातियों ने अपने अनुसार जाति के नेताओं को उनकी जातियों का वोट दिलवाया। अब सभी जातियां अपनी-अपनी जाति की पार्टी बनाकर अपने जाति के वोट को संकलित कर रही हैं। लोकतंत्र को सभी ने ताख पर रख दिया है। बाबा साहब ने खण्ड-18 के पेज 98 पर लिखा है कि, “इसमें कोई शक नहीं है कि यदि संसदीय लोकतंत्र गरीब मजदूर और दलित वर्गों को लाभ पहुँचाने में असफल हुआ है, तो यही वे वर्ग हैं जो मुख्यतया इस स्थिति के उत्तरदायी हैं।”

मजदूर वर्ग के सम्बन्ध में डा. आम्बेडकर ने अपने उस मशहूर वाक्य के विरुद्ध, जो “बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स” में लिखा था कि, “कम्युनिस्ट दर्शन सुअरों को मोटा बनाना है” अपने खण्ड 18 के पेज 98 पर लिखा कि, “मार्क्स के विरुद्ध यह कही जाने वाली बात कि मनुष्य केवल रोटी के सहारे ही जीवित नहीं रहता है, दुर्भाग्यवश सच है। मैं कार्लाइल के इस विचार से सहमत हूँ कि सभ्यता का उद्देश्य यह नहीं है कि मनुष्य केवल मोटा बनाया जाए जैसा कि हम सुअरों को बनाते रहते हैं। हम उस स्थिति से बहुत दूर हैं। सुअरों के सामान मोटा होना तो दूर, श्रमिक वर्ग भूखा मर रहा है और हम चाहते हैं कि उसके लिए सर्वप्रथम रोटी की व्यवस्था की जाए और बाद में किन्ही अन्य वस्तुओं की।”

क्या डॉ. आम्बेडकर का विचार बहुत ही स्पष्ट नहीं है कि भारतीय मजदूर वर्ग संगठित होकर रोजी-रोटी को पहले हल करे। जब रोटी की समस्या हल हो जाएगी और मजदूर वर्ग शिक्षित हो जाएगा, तो जाति-व्यवस्था को ध्वस्त करने में समय नहीं लगेगा। डॉ. आम्बेडकर के मजदूर वर्ग की यह  विचारधारा क्या साम्यवादी विचारधारा नहीं है? दलित कम्युनिज्म को सुअरों का दर्शन कहता रहता है और डॉ. आम्बेडकर को कम्युनिस्ट विरोधी घोषित करता रहता है। हलाकि कुछेक जगहों पर बुद्ध और मार्क्स की तुलना करते समय बुद्ध के विचारों को ही श्रेष्ठ बताया है लेकिन साम्यवाद डॉ. आम्बेडकर का भी अंतिम लक्ष्य था क्योंकि वे लिखते हैं कि बुद्ध के रास्ते से हम वगैर खूनी क्राँति के ही साम्यवाद ला सकते हैं, जिसे पूर्व में भी उद्धृत किया जा चुका है।

यह भी पढ़ें – जातिविहीन समाज की आम्बेडकरवादी अवधारणा

जाति-विहीन समाज के साथ ही साथ वर्ग विहीन समाज की संकल्पना भी डॉ. आम्बेडकर की थी, इसीलिए तो वे पूँजीवाद को भी मजदूर और दलित वर्ग का दुश्मन समझते हैं। उन्होंने 12 और 13 फरवरी 1938 को मनमाड में आयोजित रेलवे कर्मचारियों को संबोधित करते हुए कहा था, “इस देश के मजदूरों के दो दुश्मन हैं जिसके साथ उनका सम्बन्ध रहता है। वे दोनों दुश्मन हैं ‘ब्राह्मणवाद’ और ‘पूँजीवाद’। ब्राह्मणवाद से मेरा अभिप्राय ब्राह्मण समुदाय की शक्ति, विशेषाधिकार और हितों से नहीं है। ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व की भावना के निषेध से है। इस अर्थ में, यह सभी वर्गों में व्याप्त है और सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है, हालांकि, वे इसके उद्भावक जरूर हैं। यह एक अकाट्य सत्य है कि ब्राह्मणवाद हर कहीं मौजूद है और वह सभी वर्गों के विचारों तथा कार्यों को नियंत्रित करता है।”

डॉ. आम्बेडकर के साम्यवाद को उनकी पुस्तक खण्ड-2 के खण्ड-4 पर पेज 167 से 240 तक देखा जा सकता है। मैं सिर्फ पेज 180 पर अनुच्छेद 2-अनुभाग 2 के खण्ड-4 पर डॉ. आम्बेडकर ने प्रमुख उद्योगों, बीमा, बैंको, भूमि, कृषि, बीज, पानी इत्यादि का राष्ट्रीयकरण करने को कहा है। तथा पेज 193 पर लिखा है कि, “भारत का तेजी से औयगीकरण करने के लिए राजकीय समाजवाद अनिवार्य है। निजी उद्योग ऐसा नहीं कर सकता है।’ वैश्विकरण , उदारीकरण और निजीकरण के दौर में क्या यह दलितों की जिम्मेदारी नहीं बनती है कि निजीकरण के विरुद्ध आवाज उठाएँ? एक सवाल और भी गंभीर है कि क्या दलित निजीकरण के विरूद्ध अकेला लड़ सकता है? नहीं लड़ सकता है। इसलिए डॉ. आम्बेडकर के सुझाए गए रास्ते का अनुसरण करते हुए मजदूर वर्ग को जाति और धर्म को तोड़ते हुए पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए वर्गीय एकता विकसित ही करनी पड़ेगी।

दुखद यह है कि दलित डॉ. आम्बेडकर के बताए रास्ते को छोड़कर यह मान लिया है कि हम निजीकरण की लड़ाई के झमेले में क्यों पढ़ें। यदि हमें निजीकरण की स्थिति में प्राइवेट संस्थाओं में भी आरक्षण मिल जाए तो चुल्हीभाड़ में जाय निजीकरण के विरुद्ध आंदोलन। आखिर यह कौन सा दलित वर्ग है जो ऐसा सोच रहा है और डॉ. आम्बेडकर का कट्टर अनुयायी कहता हुआ उनकी एक भी बात नहीं मान रहा है? यह दलितों का सुविधा संपन्न वर्ग है जो ब्राह्मणवाद से ग्रस्त है और अपने ही भाई बंधुओ के लिए कुछ भी नहीं करना चाहता है जबकि उसी के अनुपात का हिस्सा यह वर्ग बहुत ही आसानी से ऐंठ रहा है। इसे डर है कि डॉ. आम्बेडकर के अनुसार लड़ाई लड़ने में हमारा सामुच्चय भी जाता रहेगा और हमें शीत-घाम में इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने पड़ेंगे।

उम्मीद है यह सन्देश पढ़ते ही आप के हाथों में श्री बसंत मून और डॉ. आम्बेडकर की पुस्तक होगी और आप पेज खोलकर तथ्य की सत्यता परख रहे होंगे। आप को निश्चित एक विचार आंदोलित कर रहा होगा।

.

Show More

आर डी आनंद

लेखक भारतीय जीवन बीमा निगम में उच्च श्रेणी सहायक के पद पर कार्यरत हैं। सम्पर्क- +919451203713, rd.anand813@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x