बनारस के नाविक
- मनीष कुमार यादव
जब प्राकृतिक संसाधनों पर आवश्यकता से अत्यधिक दबाव पड़ता है अथवा उसके स्वामित्व को लेकर विवाद उठता है तब उसका सबसे ज्यादा प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है जो उन प्राकृतिक संसाधनों के सहारे अपना जीवन निर्वाह करते आए हैं। हाल ही में बनारस में नाविक समुदाय का संघर्ष इसी बात को सिद्ध करता है। मोदी सरकार द्वारा लाई गई ‘नमामि गंगे’ नीति जो गंगा की अविरलता और निर्मलता को सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई थी, जो अभी धरातल पर पूरी तरीके से कारगर साबित हो ही नहीं पाई थी कि अब उसके विपरीत परिणाम सामने नजर आने लगे हैं।
यहां पर यह बताना आवश्यक है कि 1980 के दशक के बाद से अभी तक गंगा स्वच्छता पर बनी सारी सरकारी नीतियों को सिर्फ एक दाता एजेंसी ने फंड किया है वह है विश्व बैंक। जहां तक विश्व बैंक की फंडिंग की राजनीति का प्रश्न है तो कई विशेषज्ञों का यह मत है कि विश्व बैंक ने अभी तक विश्व भर में जितनी भी नदियों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया है वह आज तक कहीं पर भी सफल साबित नहीं हुए हैं।
चाहे वह 1985-86 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार द्वारा ‘गंगा एक्शन प्लान’ बनाया गया हो या यूपीए-2 में ‘गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी’ के नाम से गंगा को जीवित करने के लिए बनाया गया दूसरा बड़ा सरकारी प्लान हो या मोदी सरकार के आने के बाद ‘नमामि गंगे’ नाम से नई नीति आहूत की गई हो; इन सभी परियोजनाओं को विश्व बैंक ने सहायता प्रदान की है। आखिर विश्व बैंक इस परियोजना के लिए इतना लालायित क्यों दिखाई पड़ता है?
‘भारत के जल-पुरुष’ के नाम से विख्यात श्री राजेंद्र सिंह ने बताया है की विश्व बैंक अपनी नीतियों को यहां पर लागू करवाने पर तुला हुआ है। श्री सिंह के शब्दों में ‘विश्व बैंक पानी और नदियों का निजीकरण करना चाहता है।’
अब प्रश्न आता है कि इन नीतियों का उन लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा जिनका जीवन यापन इन प्राकृतिक संसाधनों पर टिका हुआ है। गंगा पर बनी नीतियों का विरोध उस समय से दिखाई देता है जब 1980 के दशक में गंगा एक्शन प्लान नाम से पहली नीति को जमीन पर कार्यान्वित किया गया था। बनारस के नाविक समुदाय जो सदियों से गंगा में नावों को चलाने का काम करते थे तथा जिनका जीवन-यापन पूरी तरीके से इस पवित्र नदी पर टिका हुआ है, वह धीरे धीरे इस सरकारी नीति का शिकार बनते चले गए। कुछ दिनों पहले बनारस में नाविक समुदाय का अनिश्चितकालीन अनशन इन्हीं नीतियों के विरुद्ध था।
उनका मानना है कि नमामि गंगे के नाम पर निजीकरण को थोपा जा रहा है । वाराणसी में कुल 84 घाट हैं, जो लगभग 6 किलोमीटर की दूरी पर एक कड़ी के रूप में अवस्थित है। हर घाट पर एक नाविक परिवार अपना प्रथागत व्यवसाय (नौका संचालन) सदियों से करता आ रहा है। पौराणिक मान्यता के अनुसार यह समुदाय अपने को गंगा-पुत्र मानता है। यह व्यवसाय अपने समुदाय के बनाए गए प्रथागत नियमों के अनुसार काफी लंबे समय से चलते आ रहे हैं।
बनारस के नाविक समुदाय की इन्हीं कस्टमरी प्रैक्टिस एवं नियमों का विस्तार में लेखा-जोखा ऑस्ट्रेलियाई शोधार्थी असा डॉरन के एथनोग्राफिक विवरण में मिलता है। यह नाविक समुदाय सिर्फ गंगा से अपनी आजीविका ही नहीं कमाता अपितु गंगा को अपनी मां मानते हुए उसे प्रदूषण और गंदगी मुक्त रखने का कर्तव्य-निर्वहन भी करता आया है। अपने शोध के दौरान मैंने यह पाया कि यह समुदाय अपने क्षेत्र में यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करता है कि कोई गंगा नदी में गंदगी ना फैलाएं। क्योंकि यह समुदाय उस स्पेस को व्यवसायिक दृष्टि से नहीं अपितु मां-गंगापुत्र सम्बन्ध की भांति देखता है।
2009 में नोबेल पुरस्कार जीतने वाली एलीनॉर आस्ट्रम ने भी यही थेसिस दी थी कि अगर किसी पर्यावरण संसाधन की सुरक्षा सही मायने में करनी है तो आपको उस प्राकृतिक संसाधन का स्वामित्व उन समुदायों को देना चाहिए जो सदियों से उसे सहेज कर और उसका बुद्धिमता-पूर्ण उपयोग करते आए हैं। पर विडंबना यह है कि हमारी देश में जितनी भी सरकारी नीतियां बनी है वह हमेशा ऊपर से नीचे की तरफ थोपी गई है, बजाए लोकल समुदायों से विचार-विमर्श किए हुए।
बनारस का नाविक समुदाय भी इसी प्रकार की सरकारी नीतियों का शिकार हुआ है और वह इसके विरोध में लगातार अपनी आवाज उठाता आया है। प्रधानमंत्री मोदी की संसदीय सीट होने के नाते बनारस में पर्यटन को यकायक बढ़ावा मिला। इसी क्रम में गंगा नदी पर होने वाले नौकाटन पर अब बड़े-बड़े व्यवसायियों की नजर पड़ी है।
बनारस में ‘अलकनंदा क्रूज’ और ‘जलपरी’ जैसी आलीशान नौकाओं का संचालन सीधे तौर पर नाविक समुदाय की प्रतिदिन की कमाई पर लात मारने का काम कर रहा है। इससे पूर्व भी प्रधानमंत्री द्वारा सौर ऊर्जा चलित ई-बोट चलवाने का अजीबोग़रीब फरमान भी जारी किया गया था। नाविक समुदाय ने ई-बोट की अनुपयोगिता और अव्यवहारिकता को बताते हुए इसका विरोध किया था।
चाहे वह गंगा एक्शन प्लान द्वारा गंगा के दूसरी छोर पर कछुआ सेंक्चुरी को बसाया जाना या वाराणसी नगर निगम द्वारा समय-समय पर तुगलकी नियम और दिशानिर्देश जारी करना; यह सब कहीं ना कहीं निजीकरण की दस्तक़ का संकेत देता है जिससे कि नाविक समुदाय के परंपरागत व्यवसाय को सीधे खतरा हो। हमें यह याद रखना होगा कि निजीकरण हमेशा अक्षमताओं के बहाने पीछे द्वार से पैर पसारता है। वाराणसी नगर निगम ने भी नाविक समुदाय की कई अक्षमताओं को इंगित करवाते हुए उनके नावों के लाइसेंस का नवीनीकरण नहीं किया। फलस्वरूप समय-समय पर इस समुदाय ने अपने हित-विरोधी नीतियों के विरुद्ध आवाज बुलंद की है।
फरवरी 2017 में भी इस समुदाय ने नगर निगम द्वारा दशाश्वमेध घाट और अस्सी घाट पर जेटी बनाने के विरोध में दिनभर के लिए पूरे 84 घाटों पर नौका संचालन को रोक दिया था। वर्तमान में लगभग 10 दिनों के हड़ताल और बनारस की ‘रिवर इकोनामी’ के लगभग ठप हो जाने के डर से सरकारी आलाकमान और स्वयं सरकार ने नाविक समुदायों की कुछ मांगों को स्वीकार किया है। प्रशासन का नाविक समुदाय की मांगों के आगे घुटने टेकना इस बात का भी संकेत देते हैं कि यह समुदाय चुनावी अंकगणित के हिसाब से आने वाले लोकसभा चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और जीत हार के अंतर में एक महत्वपूर्ण कारक बन सकता है।
बनारस का नाविक समुदाय, निषाद समुदाय का ही एक भाग है जो उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में इस समुदाय ने बीजेपी को अपना भरपूर समर्थन दिया था। पर यह समुदाय अपनी आजीविका के प्रश्नों को लेकर बीजेपी से हटता चला गया और कारणस्वरूप 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में निषाद पार्टी के रूप में एक नए दल ने जन्म लिया। निषाद समुदाय में केवट, बिंद, मल्लाह, मांझी आदि जातियां आती है जिन्हें ओबीसी श्रेणी में रखा गया है. यह जाति समुदाय विशेषतः पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ संसदीय क्षेत्रों जैसे कि गोरखपुर, वाराणसी, मिर्जापुर आदि में अपनी संख्या बल के चलते निर्णायक साबित होता रहा है। अगर बात प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की बात करें तो यहां की 5 विधानसभा क्षेत्रों में से दो में; क्रमशः वाराणसी कैंट और वाराणसी दक्षिण में नाविक समुदाय निर्णायक भूमिका अदा करता है। गंगा पर बनी नीतियों के विरोध में अब इस समुदाय ने अपनी पॉलीटिकल लॉयल्टी बीजेपी से इतर कर दी है और यहां तक कहना शुरू कर दिया है कि अगला लोकसभा चुनाव ‘असली गंगा-पुत्र’ बनाम ‘नकली-गंगा पुत्र’ के बीच होने वाला है।
इस समुदाय का भाजपा से अलग होना तथा दूसरे गठबंधन को मजबूती देना एक नए राजनीतिक समीकरण को जन्म देता है। नए राजनीतिक घटनाक्रम के बाद निषाद पार्टी ने सपा-बसपा गठबंधन का साथ देने का निर्णय लिया है। वैसे इस समीकरण की शुरुआत गोरखपुर के लोकसभा उपचुनाव से देखी जा सकती है। अतः आने वाले हम यह देख सकते हैं कि लोकसभा चुनाव में यह समुदाय पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई संसदीय सीटों पर निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है।