हिन्दुस्तानियत की मिसाल : मौलाना अबुल कलाम आजाद
आजाद भारत के असली सितारे-16
“आज अगर आसमान से फ़रिश्ता भी उतर आए और दिल्ली के क़ुतुब मीनार की चोटी पर से ऐलान करे कि हिन्दुस्तान अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता का ख्याल छोड़ दे तो वह चौबीस घंटों में आज़ाद हो सकता है, तो हिन्दू-मुस्लिम एकता के बजाय देश की आज़ादी को मैं छोड़ दूंगा-क्योंकि अगर आज़ादी आने में देर लग भी जाए तो इससे सिर्फ़ भारत का ही नुक़सान होगा, लेकिन हिन्दू-मुसलमानों के बीच एकता अगर न रहे तो इससे दुनिया की सारी इन्सानियत का नुक़सान होगा।”
1923 में काँग्रेस के विशेष अधिवेशन में मौलाना अबुल कलाम आजाद (11.11.1888 – 22.2.1958) ने अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए उक्त बातें कहीं थीं। इसी तरह 1940 में लाहौर में हुए अधिवेशन में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग रखी तो उस समय इस्लाम के इस विद्वान ने मोहम्मद अली जिन्ना के इस सिद्धांत को मानने से इंकार कर दिया कि हिन्दू और मुस्लिम दो अलग राष्ट्र हैं। उन्होंने सभी मुसलमानों से हिन्दुस्तान में ही रहने की अपील की। उन्होंने कहा, “हिन्दुस्तान की धरती पर इस्लाम को आए ग्यारह सदियाँ बीत गयी हैं। और अगर हिन्दू धर्म यहाँ के लोगों का हज़ारों बरसों से धर्म रहा है तो इस्लाम को भी हज़ार साल हो गये हैं। जिस तरह से एक हिन्दू गर्व के साथ यह कहता है कि वह एक भारतीय है और हिन्दू धर्म को मानता है, तो उसी तरह और उतने ही गर्व के साथ हम भी कह सकते हैं कि हम भी भारतीय हैं और इस्लाम को मानते हैं। इसी तरह ईसाई भी यह बात कह सकते हैं।“
मौलाना आज़ाद का पूरा नाम मौलाना सैयद अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अल-हुसैन आजाद था। वे अफगान उलेमाओं के ख़ानदान से थे जो बाबर के समय हेरात से भारत आए थे। उनके अफगान पिता का नाम मौलाना सैयद मोहम्मद खैरुद्दीन बिन अहमद अलहुसैनी था और उनकी माँ का नाम शेख आलिया बिंते मोहम्मद था जो अरबी मूल की थीं। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय उनके पिता कलकत्ता छोड़ कर मक्का चले गये थे। वहीं उनकी मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से हुई थी। मौलाना आजाद का जन्म भी मक्का में ही हुआ था। 1890 में मोहम्मद खैरूद्दीन फिर से भारत लौट आए। बाद में कलकत्ता में उनको एक मुस्लिम विद्वान के रूप में अच्छी ख्याति मिली।
मौलाना अबुल कलाम आजाद जब सिर्फ 11 साल के थे तभी उनकी मां का देहाँत हो गया। उनकी आरंभिक शिक्षा इस्लामी तौर -तरीकों से हुई। घर पर या मस्ज़िद में उनके पिता तथा बाद में अन्य विद्वानों ने उन्हें पढ़ाया। इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्हें दर्शन शास्त्र, इतिहास तथा गणित की शिक्षा भी मिली। उन्होंने उर्दू, फारसी, हिन्दी, अंग्रेजी तथा अरबी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। वे असाधारण प्रतिभा के विद्यार्थी थे। बताया जाता है कि सोलह साल की उम्र में ही उन्होंने वे सारी शिक्षाएं अर्जित कर ली थीं जिन्हें आमतौर पर सामान्य विद्यार्थी 25 साल की उम्र आने तक अर्जित कर पाते थे। अपने समय और पूर्व के विद्वानों में उनके ऊपर सबसे ज्यादा प्रभाव सर सैयद अहमद खाँ, मौलाना शिबली नोमानी तथा अल्ताफ हुसैन हाली का पड़ा। उन्होंने कलकत्ता से ‘लिसान-उल-सिद्’ नामक पत्रिका निकाली औरछात्र जीवन में ही उन्होंने अपनी एक लाइब्रेरी भी शुरू कर दी थी। इसके अलावा उन्होंने एक डिबेटिंग सोसायटी खोला और अपने से बड़े छात्रों को पढ़ाना शुरू कर दिया। उन्होंने मिस्र, अफगानिस्तान, सीरिया, इराक और तुर्की जैसे देशों की यात्राएं भी की। इन यात्राओं ने उनका व्यावहारिक ज्ञान बढ़ाने में बड़ी मदद की। तेरह साल की आयु में मौलाना आजाद का विवाह ज़ुलैखा बेग़म से हो गया। उन्हें एक बेटा भी हुआ जो मात्र चार साल तक ही जी सका।
मौलाना आज़ाद ने राजनीति में उस समय प्रवेश किया जब ब्रिटिश सरकार ने 1905 में धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया था। ज्यादातर मुस्लिम मध्यम वर्ग इस विभाजन का समर्थक था किन्तु मौलाना आज़ाद इस विभाजन के विरोध में खड़े थे। वे रवीन्द्रनाथ टैगोर सहित बंगला नवजागरण के अन्य नेताओं के साथ थे। इन्हीं दिनों वे स्वाधीनता आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गये। वे अरविन्द घोष और श्यामसुन्दर चक्रवर्ती के सीधे सम्पर्क में आ गये और अखण्ड भारत के निर्माण में लग गये।
उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा कि लोगों को यह सलाह देना सबसे बड़ा धोखा होगा कि भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भिन्न क्षेत्रों को धार्मिक सम्बन्ध जोड़ सकते हैं। 1906 में आल इंडिया मुस्लिम लीग के गठन के समय से ही वे उसकी अलगाववादी विचारधारा का विरोध करते रहे।
1912 में उन्होने ‘अल हिलाल’ नामक उर्दू अखबार का प्रकाशन शुरू किया। उनका उद्देश्य मुस्लिम युवकों को क्रांतिकारी आन्दोलनों में भाग लेने के लिए उत्साहित करना तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देना था। यह अखबार बहुत कम समय में ही विदेशों में भी प्रसिद्ध हो गया। कुछ ही दिनों में ‘अल-हिलाल’ की 26,000 प्रतियाँ बिकने लगीं। उन्होने काँग्रेसी नेताओं का विश्वास बंगाल, बिहार तथा बंबई में क्रांतिकारी गतिविधियों के गुप्त आयोजनों द्वारा भी जीता।
पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में मौलाना आजाद और उनकी पत्रिका ‘अल हिलाल’ के बारे में विस्तार से लिखा है। नेहरू जब यह पुस्तक लिख रहे थे तो उन दिनों मौलाना आजाद भी उनके साथ अहमदनगर किले में कैद थे। नेहरू ने मौलाना आज़ाद के बारे में लिखा,“हिन्दुस्तान के मुसलमानी दिमाग़ की तरक्क़ी में सन् 1912 भी एक ख़ास साल है, क्योंकि उसमें दो नए साप्ताहिक निकलने शुरू हुए। उनमें से एक तो ‘अल-हिलाल’ था, जो उर्दू में था और दूसरा अंग्रेज़ी में ‘दि कॉमरेड’ था। ‘अल-हिलाल’ को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (काँग्रेस के वर्तमान सभापति) ने चलाया था। वे एक चौबीस बरस के नौजवान थे। उनकी शुरू की पढ़ाई- लिखाई क़ाहिरा में अल-अज़हर विश्वविद्यालय में हुई थी और जिस वक़्त वे पंद्रह और बीस बरस के ही बीच में थे, उसी वक़्त अपनी अरबी और फ़ारसी की क़ाबिलियत के लिए मशहूर हो गये थे। इसके अलावा उन्हें हिन्दुस्तान के बाहर की इस्लामी दुनिया की अच्छी जानकारी थी और उन सुधार-आन्दोलनों का पूरा पता था जो वहाँ पर चल रहे थे। साथ ही उन्हें यूरोपीय मामलों की भी अच्छी जानकारी थी।“
नेहरू ने आगे लिखा है –“मौलाना आज़ाद का नज़रिया बुद्धिवादी था और साथ ही इस्लामी साहित्य और इतिहास की उन्हें पूरी जानकारी थी। उन्होंने इस्लामी धर्मग्रंथों की बुद्धिवादी नज़रिए से व्याख्या की। इस्लामी परम्परा से वे छके हुए थे और मिस्र, तुर्की, सीरिया, फ़िलिस्तीन, इराक और ईरान के मशहूर मुस्लिम नेताओं से उनके ज़ाती ताल्लुक़ात थे। इन देशों के इख़लाकी और राजनैतिक हालात का उनपर बहुत ज़्यादा असर था। अपने लेखों की वजह से इस्लामी देशों में अन्य किसी हिन्दुस्तानी मुसलमान की अपेक्षा वे ज़्यादा प्रसिद्ध थे। उन लड़ाइयों में, जिनमें कि तुर्की फंस गया था, उनकी बेहद दिलचस्पी हुई और उनकी हमदर्दी तुर्की के लिए सामने आई। लेकिन उनके ढंग और नज़रिए में और दूसरे बुज़ुर्ग मुसलमान नेताओं के नज़रिए में फ़र्क़ था.”
“मौलाना आज़ाद का नज़रिया विस्तृत और तर्कसंगत था और इसकी वजह से न तो उनमें सामंतवाद था और न संकरी धार्मिकता और न ही सांप्रदायिक अलहदगी। इसने उनको लाज़िमी तौर पर हिन्दुस्तानी क़ौमियत का हामी बना दिया। उन्होंने तुर्की में और दूसरे इस्लामी देशों में क़ौमियत की तरक्क़ी को ख़ुद देखा था। उस जानकारी का उन्होंने हिन्दुस्तान में इस्तेमाल किया और उन्हें हिन्दुस्तानी क़ौमी आन्दोलन का वही रुख़ दिखाई दिया। हिन्दुस्तान के दूसरे मुसलमानों को इन देशों के आन्दोलनों की शायद ही जानकारी रही हो और वे अपने सामंती वातावरण में घिरे रहे। वे सिर्फ़ मज़हबी नज़र से चीज़ों को देखते थे और तुर्की के साथ उनकी हमदर्दी सिर्फ धर्म के नाते थी। ये मजहबी मुसलमान तुर्की के साथ अपनी ज़बरदस्त हमर्ददी के बावजूद तुर्की की क़ौमी और ग़ैरमजहबी तहरीक़ों के साथ न थे।”
ब्रिटिश सरकार को ‘अल-हिलाल’ पसन्द नहीं आया। आख़िर सरकार ने 1914 में ‘अल-हिलाल’ की जमानत ज़ब्त कर लीं। इसके बाद मौलाना आज़ाद ने एक दूसरा साप्ताहिक ‘अल-बलाग़’ निकाला, लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा आज़ाद को क़ैद किए जाने के कारण यह भी सन् 1916 में बंद हो गया। मौलाना आज़ाद को सरकार के ख़िलाफ़ लिखने के जुर्म में बंगाल से बाहर भेज दिया गया। बाद में वह चार साल से भी ज़्यादा समय तक रांची के जेल में क़ैद रहे। मौलाना जब रांची के जेल में थे तब गाँधी जी उनसे मुलाकात करना चाहते थे। लेकिन सरकार ने इसकी स्वीकृति नहीं दी। उसके तुरन्त बाद जनवरी 1920 में रिहा होने के बाद दिल्ली में हकीम अजमल खां के घर गाँधी जी से उनकी भेंट हुई। अपनी उस मुलाक़ात को याद करते हुए मौलाना ने बाद में लिखा,
“…आज तक, हम जैसे एक ही छत के नीचे रहते आए हैं…..हमारे बीच मतभेद भी हुए, लेकिन हमारी राहें कभी अलग नहीं हुईं। जैसे-जैसे दिन बीतते, वैसे-वैसे उन पर मेरा विश्वास और भी दृढ़ होता गया।”
दूसरी ओर गाँधी जी ने कहा, “मुझे खुशी है कि सन् 1920 से मुझे मौलाना के साथ काम करने का मौक़ा मिला है। जैसी उनकी इस्लाम में श्रद्धा है वैसा ही दृढ़ उनका देश प्रेम है। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सबसे महान् नेताओं में से वह एक हैं। यह बात किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए।”
रांची जेल से निकलने के बाद मौलाना आजाद फिर काँग्रेस के आन्दोलन में शामिल हो गये। गाँधी जी द्वारा चलाए गये असहयोग आन्दोलन में उन्होंने बढ़- चढ़कर हिस्सा लियाथा। इसके अलावा वे खिलाफत आन्दोलन के भी अगुआ थे। खिलाफ़त, तुर्की के उस्मानी साम्राज्य की प्रथम विश्वयुद्ध में हारने पर उनपर लगाए हर्जाने का विरोध करता था। उस समय उस्मानी तुर्क मक्का पर काबिज़ थे और इस्लाम के खलीफा वही थे। इसके कारण विश्वभर के मुस्लिमों में रोष था। भारत में यह खिलाफ़त आन्दोलन के रूप में उभरा जिसमें उस्मानों को हराने वाले मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, फ्रांस, इटली) के साम्राज्य का विरोध किया गया था।
मौलाना आजाद हमेशा काँग्रेस में सम्मानित स्थान पर रहे। उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि 35 वर्ष की आयु में 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अब तक के सबसे युवा अध्यक्ष बन गये। क़ौमी और राजनैतिक मामलों के साथ ही सांप्रदायिक या अल्पसंख्यक समस्या के सिलसिले में उनकी सलाह की बहुत क़द्र की जाती थी। वे दो बार काँग्रेस के सभापति रहे।
1942 में काँग्रेस के बंबई अधिवेशन के दौरान जब महात्मा गाँधी के नेतृत्व में ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का आन्दोलन शुरू हुआ तो उस दौरान मौलाना आजाद ही काँग्रेस के अध्यक्ष थे। वे उसमें शामिल होने के लिए जब घर से निकल रहे थे, तो उस दौरान उनकी पत्नी गंभीर रूप से बीमार थीं। अधिवेशन के बाद मौलाना आजाद वहीं से 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिए गये। दूसरे दिन उन्होंने लिखा- “यह छठवाँ अनुभव है…पिछली पाँच बार में मैंने जेलों में कुल मिलाकर सात साल और आठ महीने की अवधि बिताई है….. जो मेरी आज तक की तिरपन साल की उम्र का सातवां हिस्सा है।”
इसबार मौलाना आज़ाद को अहमदनगर किले में कैद कर दिया गया। जब वे जेल में बंद थे, उसी दौरान उनकी पत्नी का निधन हो गया।उनकी पत्नी के निधन की सूचना जेल में पं. नेहरू ने ही उन्हें दी थी और जोर दिया था कि कुछ हफ्तों के लिए मौलाना को बाहर चले जाना चाहिए। मौलाना ने उस वक्त नेहरू से विनम्रता के साथ कहा थाकि जो सरकार हमें सही मायने में आजादी देने से इनकार कर रही है, उससे कुछ हफ्तों के लिए आजादी मांगने का कोई फायदा नहीं है। वे यह कहकर चुप हो गये कि “अब अगर खुदा ने चाहा तो हम जन्नत में मिलेंगे।”
नेहरू ने लिखा है कि उस घटना से वे बिककुल टूट चुके थे। फिर भी उन्होंने अपने पर नियंत्रण रखा। कुछ समय बाद वे अपनी स्वस्थ और स्वाभाविक स्थिति में आ गये। वे जेल में ही थे कि उनकी प्यारी बड़ी बहन भी चल बसीं। तब उन्होंने लिखा- “जेल में ज़्यादातर समय मैंने भारी मानसिक तनाव के बीच गुज़ारा। इससे मेरी तबीयत पर बहुत बुरा असर पड़ा। मेरी गिरफ्तारी के वक़्त मेरा वजन 170 पौंड था। जब मुझे बंगाल के बांकुड़ा जेल में भेज गया तब मेरा वजन कम होकर 130 पौंड रह गया था। मैं बड़ी मुश्किल से ही कुछ खा पाता था।”
इस बार वे जुलाई 1945 तक जेल में रहे। इसे मिलाकर उन्होंने कुल दस साल और पाँच महीने जेल में ग़ुजारे थे। जेल से छूटने के बाद जब वे लौटे तो लिखा, “मेरी पत्नी फाटक तक मुझे छोड़ने के लिए आई थीं। अब मैं तीन साल के बाद लौट रहा हूँ पर वह अपनी क़ब्र में हैं और मेरा घर सूना पड़ा है…..मेरी कार में फूलों के हारों के ढेर हैं। उनमें से एक हार उठाकर मैंने उसकी क़ब्र पर रख दिया और “फातिहा” (प्रार्थना) पढ़ने लगा।”
मुस्लिम लीग के ‘टू नेशन थ्योरी’ का मौलाना आजाद द्वारा लगातार विरोध करने के बावजूद अंत में उनकी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस भी विभाजन के लिए राजी हो गयी। मौलाना इससे बहुत दुखी थे। 15 अप्रैल, 1946 को उन्होंने कहा कि मुस्लिम लीग की अलग पाकिस्तान की मांग के दुष्परिणाम न सिर्फ भारत बल्कि खुद मुसलमानों को भी झेलने पड़ेंगे क्योंकि वह उनके लिए ज्यादा परेशानियाँ पैदा करेगा।
आजादी के बाद मौलाना आजाद, उत्तर प्रदेश के रामपुर से 1952 में सांसद चुने गये। हिन्दू महासभा ने उनके खिलाफ बिशनचंद सेठ को चुनाव मैदान में उतारा था। देशभर में काँग्रेस के लिए प्रचार की जिम्मेदारी सिर पर होने के कारण मौलाना के लिए रामपुर जाकर अपने मतदाताओं से मिलने का समय निकालना मुश्किल था। बहुत हाथ-पांव मारने और कई प्रत्याशियों के आग्रह को मना करने के बाद भी वे सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार का वक्त खत्म होने से पहले रामपुर नहीं जा सके। जब पहुंचे तो घर-घर जाकर प्रचार करने का समय ही बचा था। इसके बावजूद मतगणना हुई तो मौलाना 59.57 प्रतिशत वोट पाकर बड़े सम्मान के साथ विजयी हुए थे।
आजाद भारत के वे पहले शिक्षा मंत्री बने। उन्होंने ग्यारह वर्ष तक राष्ट्र की शिक्षा नीति का मार्गदर्शन किया। देश के लिए उन्होंने एरक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली बनाई जिसमें मुफ्त प्राथमिक शिक्षा उनका पहला लक्ष्य था। उन्होंने 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, कन्याओं की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, कृषि शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए। मौलाना आजाद ने 1951 में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, खड़गपुर की स्थापना की और उसके बाद मुंबई, चेन्नई, कानपुर और दिल्ली में आई.आई.टी.की स्थापना की। 1955 में उन्होंने दिल्ली में स्कूल ऑफ प्लानिंग और वास्तुकला विद्यालय स्थापित किया।
भारत में उच्च शिक्षा के विकास के लिए ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ की स्थापना का श्रेय मौलाना आजाद को ही है। ‘भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद’ की स्थापना भी उन्ही की देन है। उन्होंने शिक्षा और संस्कृति के स्वस्थ विकास के लिए अनेक श्रेष्ठ संस्थानों की स्थापना की। साहित्य, संगीत तथा नाटक के समुचित विकास के लिए उन्होंने संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी तथा ललितकला अकादमी की भी स्थापना की।
मौलाना आजाद बहुत अच्छे वक्ता थे। उनके शब्दों में जादू का-सा असर होता था। अक्टूबर, 1947 में जब हज़ारों की संख्या में दिल्ली के मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे तो उन्होंने जामा मस्जिद के प्राचीर से अद्भुत भाषण दिया। उन्होंने कहा,
“जामा मस्जिद की ऊंची मीनारें तुमसे पूछ रही है कि कहाँ जा रहे हो? तुमने इतिहास के पन्नों को कहाँ खो दिया? कल तक तुम यमुना के तट पर वजू किया करते थे और आज तुम यहाँ रहने से डर रहे हो? याद रखो कि तुम्हारे ख़ून में दिल्ली बसी है। तुम समय के इस झटके से डर रहे हो। वे तुम्हारे पूर्वज ही थे जिन्होंने गहरे समुद्र में छलांग लगाई, मज़बूत चट्टानों को काट डाला, कठिनाइयों में भी मुस्कुराए, आसमान की गड़गडाहट का उत्तर तुम्हारी हँसी के वेग से दिया, हवाओं की दिशा बदल दी और तूफ़ानों का रूख मोड़ दिया। यह भाग्य की विडम्बना है कि जो लोग कल तक राजाओं की नियति के साथ खेले उन्हें आज अपने ही भाग्य से जूझना पड़ रहा है और इसलिए वे इस मामले में अपने परमेश्वर को भी भूल गये हैं जैसे कि उसका कोई अस्तित्व ही न हो। वापस आओ यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा देश।“
उनके भाषण का इतना अधिक प्रभाव हुआ कि जो लोग पाकिस्तान जाने के लिए अपना सामान बाँध कर तैयार थे वे स्वतन्त्रता और देशभक्ति की एक नई भावना के साथ घर लौट आए और इसके बाद यहाँ से नहीं गये। अंतर्राष्ट्रीय भाषणों के इतिहास में, जामा मस्जिद पर दिए गये मौलाना आज़ाद के इस भाषण की तुलना लोगों ने अब्राहम लिंकन के गैट्सबर्ग में दिए भाषण से अथवा गाँधी जी की हत्या पर नेहरू के बिरला हाऊस में दिये गये भाषण अथवा मार्टिन लूथर के भाषण- ‘मेरा एक सपना है,’ से किया है।
काँग्रेस के नेताओं में मौलाना को उनकी एक अन्य महान् विशेषता के लिए भी याद किया जाता था। जब कभी भी काँग्रेसियों के बीच मतभेद हो जाते थे तब मौलाना ही उन्हें फिर से एक करते थे क्योंकि सब लोग उनका आदर करते थे। आख़िरी दिन तक वे जवाहरलाल नेहरू के सबसे निकटतम मित्र और साथी बने रहे। वे उनके सबसे विश्वसनीय सलाहकार और समर्थक भी थे। 22 फरवरी 1958 को ब्रेन हैमरेज से इस महामानव का निधन हो गया। कहा जा सकता है कि मौलाना आजाद धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति होते हुए भी सही अर्थों में भारत की धर्मनिरपेक्ष सभ्यता के प्रतिनिधि थे।
शेरो-शायरी और गज़लगोई का शौक अबुल कलाम को युवावस्था से ही था। ‘आज़ाद’ उनका तखल्लुस था। उनकी शुरुआती रचनाएं ‘अरमुग़ान-ए-फारुख़’ और ‘ख़दंग-ए-नज़र’ जैसी पत्रिकाओं में नियमित छपती थीं। ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। उन्होंने कुरान का अरबी से उर्दू में अनुवाद किया है। उनकी अन्य पुस्तकों में ‘गुबार-ए-खातिर’, ‘हिज्र-ओ-वसल’, ‘खतबात-ल-आज़ाद’, ‘हमारी आज़ादी’’ प्रमुख हैं।
उन्होंने हमेशा सादगी का जीवन पसन्द किया। जब उनका निधन हुआ तब उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी और न ही कोई बैंक खाता था। उनकी निजी अलमारी में कुछ सूती अचकन, एक दर्जन खादी के कुर्ते पायजामें, दो जोड़ी सैंडल, एक पुराना ड्रैसिंग गाऊन और एक उपयोग किया हुआ ब्रुश मिला किन्तु वहाँ अनेक दुर्लभ पुस्तकें थी जो अब राष्ट्र की सम्पत्ति हैं।
मौलाना अबुल कलाम आजाद को मरणोपरान्त भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया। उनके जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है किन्तु खेद है कि पिछले कुछ वर्षों से आयोजन नाममात्र के होते हैं और उल्लास नजर नहीं आता।
आज मौलाना की 132वी जयंती पर मुझे एक चीज बहुत परेशान कर रही है वह है मथुरा की घटना। पिछले हफ्ते मथुरा के नंदगांव मंदिर परिसर में सद्भावना यात्रा पर निकले खुदाई खिदमदगार संस्था के दो सदस्यों फैजल खां और मोहम्मद चाँद द्वारा नमाज पढ़ने की घटना पर हुई प्रतिक्रिया ने हमारी संकीर्ण मनोवृत्ति का ऐसा उदाहरण पेश किया कि उससे हमारी अपनी सभ्यता और समझ भी प्रश्नांकित हुई है। पता चला है कि फैजल को इस ‘अपराध’ के लिए गिरफ्तार किया जा चुका है।
बाद में गंगाजल छिड़ककर और हवन करके मंदिर को शुद्ध किया गया। ऐसा करके मुस्लिम समुदाय को हम क्या संदेश देना चाहते हैं? हमारे किस धर्मग्रंथ में लिखा है कि खुदा की इबादत करने से वह स्थान अपवित्र हो जाता है? किस ग्रंथ में लिखा है कि सबका मालिक एक नहीं है? मुझे फिर से गाँधी याद आ रहे हैं,
“ईश्वर अल्ला तेरे नाम / सबको सन्मति दे भगवान।”