स्वच्छ भारत के प्रशस्ति पत्र में छिपी एक बदरंग इबारत
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल प्रयागराज कुंभ में जाकर ” स्वच्छता सेनानियों” के पैर धोए थे। इसके पीछे का सन्देश स्पष्ट था कि स्वच्छता वंदनीय कार्य है और यह किसी वैशिष्ट्यमूलक अलगाव या हिकारत का आधार नही हो सकता है। गाँधी जी भी खुद अपने शौचालय की सफाई किया करते थे। गाँधी दर्शन को आगे बढ़ाते हुए पहले निर्मल ग्राम और अब स्वच्छ भारत अभियान पर हजारों करोड़ की सरकारी राशि खर्च की जा रही है। केंद्र सरकार के आधिकारिक वक्तव्य के अनुसार 2019 की समाप्ति तक 21 करोड़ नए शौचालय अब तक भारत मे बनाएं जा चुके है स्वच्छ भारत की इस वैश्विक प्रशस्ति प्राप्त तस्वीर के वे रंग क्या कभी हमें दिखाई देते है? जो उन स्वच्छता सेनानियों के जीवन से जुड़े है ,जो इन शौचालयों की सफाई के लिए जन्मना अभिशप्त है। वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा है कि” हमारी सरकार वचनबद्ध है की सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई का काम हाथ से नही किया जाएगा। आवासन और शहरी मंत्रालय ने इसके लिए उपयक्त प्रोधोगिकी की पहचान की है। यह मंत्रालय इन प्रौधोगिकीयों को अपनाने के लिए शहरी स्थानीय निकायों के साथ काम कर रहा है” वित्त मन्त्री ने इसे विधायी और संस्थागत परिवर्तनों के माध्यम से तार्किक निर्णय पर ले जाने का प्रस्ताव किया है।
बजट प्रस्ताव का यह हिस्सा असल में स्वच्छता सेनानियों के साथ समावेशी न्याय नही करता है। सवाल यह है कि क्या भारत में केवल शहरी शौचालय/सीवर साफ करने वाले सेनानी ही सामाजिक सुरक्षा के हकदार है? जो 21 करोड़ शौचालय गांवों में बनकर तैयार हो गए है या जो करोडों पहले से उपयोग में उनकी सफाई के लिए क्या गाँधी की प्रेरणा ग्रामीणों के बीच काम करेगी? क्या भारत का परम्परागत ग्रामीण और क़स्बाई वर्ग इस कार्य के लिए आरक्षित बाल्मीकि समाज के इतर खुद या दूसरे लोगों से यह सफाई कराएंगे?
हकीकत यह है कि स्वच्छता अभियान में शोचालय निर्माण का समयबद्ध लक्षित कार्य प्रेक्टिकल नही है। यह केवल मंत्रालय की एक्सल शीट और बेबसाईट के लिए डेटा मैटेरियल के महत्व के अधिक है। देश के लाखों गांव ओडीएफ घोषित किये जा चुके है लेकिन हम गांव में जाते है तो यह आंकड़े हमें सफेद झूठ की तरह चिढ़ाते मिलते है। मप्र में 450 करोड़ के घोटाले के आरोप जांच की जद में है। सवाल यह भी है कि भारत की ग्राम्य सामाजिकी में ओडीएफ की अवधारणा वाकई टिकाऊ और तत्काल अपेक्षित है क्या?असल में ओडीएफ व्यवहार परिवर्तन के समाजशास्त्रीय तत्व पर निर्भर है और इसके लिये सरकारी दबाब कभी परिणामोन्मुखी नही हो सकते है। यही कारण है कि अधिकांश टॉयलेट्स में लोगों ने कंडे/उपले/दूसरा सामान भर रखा है। दूसरी बुनियादी समस्या पानी की है। गांवों में पेयजल का खतरनाक संकट स्थाई हो चुका है। और टॉयलेट के उपयोग में बनिस्वत पानी अधिक लगता है।
चलिये ये मान भी लिया जाए कि सभी टॉयलेट का उपयोग हो रहा है तब मूल सवाल उन स्वच्छता सेनानियों की सुरक्षा और सेहत का आज भी अनुत्तरित ही जो परम्परागत रूप से इसी काम के लिए बने है। और सदियों तक इस सभ्य और सुसंस्कृत समाज में सिर पर मैला ढोते रहे है। भारत के शहरी सीवर टैंको की सफाई मानव हाथों से निषिद्ध करने की बजटीय घोषणा का तक कोई महत्व नही है। जब तक इस बारे में कोई स्पष्ट नीतिनिर्माण का काम नही हो जाता है। सिर्फ शहरी विकास मंत्रालय तक टिकी बजट की घोषणाओं से यह भी साफ हो गया कि 6 लाख गांवों के सैप्टिक टैंक की मैन्युल सफाई ही होगी। क्योंकि ग्रामीण विकास मंत्रालय के प्रस्तावों में इस विषय पर कोई चर्चा नही की गई है।
अब इस तस्वीर के दूसरे स्याह और निर्मम हकीकत को भी समझने की जरूरत है ,भारत मे हर साल 22327 लोगों की मौत सीवर लाइन या सैप्टिक टैंक की सफाई करते हुए हो जाती है। पत्रकार एस आनन्द के एक शोध में इस आंकड़े का खुलासा किया गया है। भारत में सदियों से सिर पर मैला ढोने की कुपरम्परा का निर्वहन बाल्मीकि समाज के लोग करते है। हाल ही में दिल्ली के कड़कड़डूमा सीबीडी ग्राउंड पर सीवरेज लाइन की सफाई करते हुए एक स्वच्छता सेनानी की जहरीली गैस से मौत गई। पिछले बर्ष बडोदरा के पास दभोई में भी एक साथ सात लोगों की मौत होटल के सैप्टिक टैंक में उतरने से हुई थी। मप्र के शिवपूरी में जहरीली गैस से तीन मजदूर मौत की नींद हाल ही में सो गए। ऐसी तमाम खबरे आये दिन शहरी क्षेत्रों से आती रहती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में इस मामले पर तीखी टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा है कि “क्या कोई सभ्य देश अपने ही नागरिकों को मौत के जहरीले चैम्बर में धकेलने की व्यवस्था करता होगा?”कोर्ट ने ऐसी मौतों पर मृतक को दस लाख के मुआवजे का प्रावधान करने के निर्देश भी दिए थे।
“डाउन द ड्रेन”किताब के लेखक डॉ आशीष मित्तल के मुताबिक सीवर सफाई से जुड़े 80 फीसदी लोग 60 साल तक जीवित नही रहते है। क्योंकि टैंक और लाइन में मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड जैसी जहरीली गैस का निर्माण होता है जो जानलेवा है। वैसे जिस नई प्रोधोगिकी को अपनाने की बात वित्त मन्त्री ने प्रस्तावित की है वह सरकारों के खोखले संकल्प को ही प्रमाणित करती है। क्योंकि 4 साल पहले केरल के चार युवा इंजीनियर्स की जेनोरोबोटिक्स स्टार्टअप द्वारा एक मानवरहित मशीन निर्मित की थी जो पूरी तरह से मशीन के जरिये सीवरेज की मानक सफाई करती थी। स्टार्टअप और मेक इन इंडिया के दावों के बीच इस फर्म और इनोवेशन का आज कोई पता नही है क्योंकि सरकार ने इस तरफ देखा भी नही। आशा है वित्त और शहरी विकास मन्त्री नए बजट प्रस्ताव के आलोक में केरल के इन युवाओं ने ईजाद की इस प्रोधोगिकी पर नजरें इनायत कर सकेंगे।
वैसे सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में अपने आदेश में 1993 से अब तक हुई सभी मौतों के सर्वे औऱ 10 लाख मुआवजे के लिए कहा था लेकिन लोकसभा में 3 जनवरी 2019 को दिए एक जबाब में सामाजिक न्याय मन्त्री थावरचंद गहलोत ने सिर्फ 331 लोगों की मृत्यु औऱ 210 को मुआवजे की जानकारी दी। हकीकत यह है कि सरकार के पास इस सबन्ध में कोई वास्तविक आंकड़ा है ही नही। लोकसभा में जारी एक रिपोर्ट कहती है कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 180657 परिवार और 794000 बाल्मीकि सदस्य सीवरेज सफाई करते है। जहां तक जहरीली गैस से सफाई के दौरान मौत का सवाल है किसी भी राज्य सरकार के पास कोई प्रमाणिक आंकड़ा नही है। क्योंकि इन कर्मचारियों की भर्ती के कोई नियम नही है सभी अस्थाई है या ठेका श्रमिक है। इसीलिए 29 राज्यों और 7 केंद्र प्रशासित राज्यों ने वर्ष 2019 में महज 13 मौतों का जानकारी उपलब्ध कराई है। वहीं राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की बेबसाइट कहती है कि 2019 में हर पांचवे दिन एक मौत हुई है। मैग्सेसे अवार्डी बेजवाड़ा विल्सन के पास 1800 की मौत का विवरण तो 1993 से अब तक का उपलब्ध है। 1993 में बनें “द एम्पलायमेंट ऑफ मैनुअल स्कवेजर्स एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिन प्रोहिविशन एक्ट ” केवल कागजों में है।
नए भारत के कथित चमकदार भाल पर रामायण के लेखक बाल्मीकि के वंशज आज भी अभिशप्त है।
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