सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की पत्रकारिता
कवि, कहानीकार व उपन्यासकार सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (1927-1983) के साहित्यिक अवदान की चर्चा करते हुए उनकी पत्रकारिता पर बात कम ही की जाती है। जबकि सर्वेश्वरजी ने राजनीति, समाज-संस्कृति, अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम समकालीन मुद्दों पर गम्भीरता से अपनी लेखनी चलाई थी। वे ‘दिनमान’ के उप-सम्पादक तो रहे ही। साथ ही, उन्होंने ‘पराग’ का सम्पादन भी किया था। ‘दिनमान’ के लिए लिखा जाने वाला उनका स्तम्भ ‘चरचे और चरखे’ बहुत चर्चित रहा था और बाद में वह पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुआ। सर्वेश्वरजी के वे लेख उनकी व्यापक सामाजिक चिन्ताओं और बुनियादी सोच के साक्षी हैं। ये लेख भारतीय राजनीति के बदलते हुए चरित्र, भ्रष्टाचार, महंगाई, सांप्रदायिकता, एशिया व अफ्रीका में पूँजीवादी और नव-साम्राज्यवादी शक्तियों की बढ़ती शक्ति और उसके दूरगामी परिणामों के बारे में लिखे गये थे।
सर्वेश्वर जी की कविताएँ भी उनके सरोकारों और प्रतिबद्धता को मुखर अभिव्यक्ति देती हैं। ‘दिनमान’ में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के सहयोगी रहे कवि-लेखक प्रयाग शुक्ल सर्वेश्वरजी की कविताओं पर लिखते हुए उन पाँच ठिकानों की बात करते हैं, जहाँ सर्वेश्वरजी अपनी कविताओं में बारम्बार आवाजाही करते हैं। इन ठिकानों में हाशिये के लोग और समूची प्रकृति भी शामिल है। सर्वेश्वरजी की कविताओं के उन ठिकानों के बाबत प्रयाग शुक्ल लिखते हैं :
अपनी पीड़ा, अपने सुख, अपने प्रेम को कविताओं में पाने-पहचानने-बाँटने के लिए वे जिन ठिकानों की ओर जाना-लौटना पसन्द करते रहे हैं, उनकी एक याद हम यहाँ कर सकते हैं। एक ठिकाना तो वह गाँव रहा जहाँ वे जन्मे और बड़े हुए, दूसरा परिवार, तीसरा मित्र-वर्ग, चौथा वह वृहत्तर समुदाय जिसका मानो स्वयं अपना कोई ठौर-ठिकाना नहीं – यानी सताये हुए लोग। पाँचवीं – प्रकृति की वह बहुत बड़ी दुनिया, जिसमें वह जीवन-मर्मों को पाने की एक आकुल चेष्टा करते थे और उस पर यह गहरा भरोसा भी कि जब सब साथ छोड़ देंगे तो कोई चिड़िया, टहनी, बारिश की कोई बूँद, घास – व्यथा-कथा सुनने से इंकार नहीं करेगी, बल्कि एक अनुकंपा की तरह साथ रहेगी। (देखें, ‘भूमिका’, प्रतिनिधि कविताएँ : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)
इस संदर्भ में, जुलाई 1967 में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना द्वारा बिहार के सूखे पर लिखा गया लेख पढ़ा जाना चाहिए। यह मार्मिक लेख पढ़ते हुए फणीश्वरनाथ रेणु का चर्चित लेख ‘हड्डियों का पुल’ और अनुपम मिश्र का लेख ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’ जेहन में कौंध जाते हैं। लेख का शीर्षक बिलकुल सीधा-सपाट : ‘बिहार सूखा’। पर लेख की पहली पंक्तियाँ ही उस सूखे के गहरे निहितार्थों को उभार देती हैं : ‘सूखा क्षेत्र। वहीं से निकला एक सवाल। उस सूखे से कैसे बचें जो हमारे अन्दर जन्म ले रहा है? करुणा हमें दूसरों से बाँधती है और हमें हरा रखती है। जिनकी आँखों का पानी मर गया है, उनके भयंकर सूखे का सामना बिहार के सूखे को करना पड़ रहा है।’
अकाल ने अपने मनहूस साये में सिर्फ़ इंसान को ही नहीं मवेशियों को भी लपेटा। लेकिन उनकी सुनता कौन? इस त्रासदी को बयान करते हुए सर्वेश्वरजी ने लिखा : ‘आधा पेट खाकर ही सही आदमी जिन्दा है, उसे भूखों मरने से बचा लिया गया है। लेकिन बेज़ुबान मवेशी बेमौत मर रहे हैं, उनकी आवाज़ सुनने की ज़रूरत किसी ने भी महसूस नहीं की। फिर भी उन्हें पूरी कोशिश से बचाया जाना चाहिए क्योंकि खेती के मेरुदंड वही हैं।’
किसान को इन्तजार था बादल, बीज और बैल का। लेकिन उन किसानों की आशावादिता के बावजूद संकट ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा था। बक़ौल सर्वेश्वर, ‘जहाँ जनता उदासीन हो, पीड़ित वर्ग लालची और अकर्मण्य हो रहा हो, कर्मचारी वर्ग बेईमानी पर कमर कसे हो, अधिकारी आंकड़ों को शतरंज की तरह चलाते हों, वहाँ संकट का सामना आसान नहीं है।’ सूखा और बाढ़ जैसी आपदाओं में संभावनाएँ तलाशने वाले भ्रष्ट कर्मचारियों और मुनाफाखोर व्यापारियों पर तीखी टिप्पणी करते हुए सर्वेश्वर ने लिखा : ‘इस सूखे में रहने वाले कर्मचारियों और व्यापारियों के हृदय भी सूख गये हैं। महाकरुणा की परम्परा वाले इस प्रदेश में करुणा जैसे रही ही नहीं।’
गया और पलामू के धमौल, रेवार, अंजुनार जैसे गाँवों की हालत बयान करते हुए सर्वेश्वरजी ने गैर-सरकारी संगठनों की भी जमकर ख़बर ली है। छठवें दशक के आख़िर तक केयर, एफप्रो, ऑक्सफैम समेत तमाम एनजीओ देश में सक्रिय हो चले थे। इन संस्थाओं के क्रियाकलाप पर तंज़ कसते हुए सर्वेश्वर ने लिखा : ‘इन संस्थाओं से मिलिए, तो सहायता के इनके कार्यों, इनके उत्साह और आंकड़ों से आप लद जाएँगे। एक क्षण को यह लगने लगेगा कि अब यहाँ सूखा नहीं है; धरती पानी से और आदमी खाने से नहा रहा है। परंतु सिर उठाते ही आधा-भूखा आदमी और चारों ओर सूखी जलती हुई धरती दिखाई देती है।’ कहना न होगा कि आज गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का जाल और फैल चुका है और अक्सर भारतीय राज्य भी आपदाओं के समय सारी ज़िम्मेदारी इन्हीं संगठनों पर डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है।
वर्ष 1966 में सूखे के दौरान बिहार की ऐसी ही स्थिति के बारे में फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने प्रत्यक्षदर्शी विवरण में लिखा था कि ‘गया और मुंगेर के लोग हाथ-पाँव मार रहे थे। उबरने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे। यहाँ पलामू में लोग हिम्मत हारकर – अपने को छोड़ दिया है … अब जो हो! क्या चारा है! हर आदमी के चेहरे पर मौत की छाया, जिसे देखकर अब वे डरते नहीं। डर-भय, सुख-दुख, भूख-प्यास, हँसी-रुदन कुछ भी नहीं।’ (ऋणजल धनजल, पृ. 111) उल्लेखनीय है कि सूखा क्षेत्रों की वह यात्रा रेणु ने ‘दिनमान’ के सम्पादक अज्ञेय के साथ की थी।
अपने लेख में सर्वेश्वरजी ने बिहार के तत्कालीन कृषि मन्त्री और स्वास्थ्य मन्त्री के बयानों को सच्चाई की कसौटी पर कसते हुए पाया कि अकाल की स्थिति से निबटने के लिए जितना होना चाहिए था, उसका एक फीसदी भी सरकार ने नहीं किया। जो पत्रकार वस्तुस्थिति जानने के बजाय अधिकारियों के बयानों को ही वस्तुस्थिति बनाकर पेश कर देते हैं, मानो उन्हें ही लक्ष्य करते हुए सर्वेश्वर ने लिखा कि ‘अधिकारी की हर बात गलत या झूठ नहीं है। लेकिन अतिविश्वास कभी-कभी घातक भी होता है। विश्वास के साथ-साथ अभावों और कमजोरियों को टटोलते रहना और उनके प्रति निरन्तर जागरूक रहना ही लाभप्रद सिद्ध होता है।’ इसीलिए सर्वेश्वरजी ने ज़ोर देकर पत्रकारों से कहा, अधिकारी का साथ छोड़िये और गाँवों की ओर चलिये।
इतना सब झेलते हुए भी हिन्दुस्तानी किसानों के जीवट और धैर्य की प्रशंसा करते हुए सर्वेश्वरजी ने लिखा कि ‘सूखे की लड़ाई वह झेलता रहा है और आगे भी इसी सहज निर्विकार भाव से झेलने के लिए तैयार है। झेलने के लिए व्यक्ति को तैयार होना ही होता है। लेकिन जो समाज को चलाते हैं, उनका दायित्व है कि वे उसे गौरव के साथ झेलने की स्थिति में रखें।’ कुछ इसी संदर्भ में अनुपम मिश्र ने अपने एक लेख में, जिसका शीर्षक ही है ‘अकाल अच्छे विचारों का’, ध्यान दिलाया था कि ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि कभी भी अकाल अकेले नहीं आता। उसके आने से पूर्व अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है।’
जिस मानवीय संवेदना और सरोकार के साथ सर्वेश्वरजी ने यह रिपोर्ट लिखी थी, वह आम लोगों के प्रति, सच्चे लोकतन्त्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा को भी दर्शाती है। उनकी यही निष्ठा उनकी प्रसिद्ध कविता ‘देश कागज़ पर बना नक्शा नहीं होता’ में भी प्रकट होती है :
देश कागज़ पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।
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