निजीकरण के आईने में रेल, रेलवे स्कूल और आत्मनिर्भर भारत
रेल की खबरें भी मीडिया में टीआरपी बढ़ाने का अच्छा नुस्खा है। एक्सीडेंट हो, किराए में पैसे दो पैसे की वृद्धि हो, भरती का कोई प्रश्न हो या निजी करण की छोटी मोटी अफवाह। मीडिया की आँखों में चमक आ जाती है। इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं। वर्षों से हम सुनते भी आ रहे हैं कि रेलवे भारत की लाइफ लाइन है, धमनी हैं। ।आदि आदि। और इतनी बड़ी तेज की इतनी बड़ी आबादी के लिए सबसे जरूरी और विश्वसनीय यातायात का साधन है। विकास का मानदण्ड भी।
लेकिन अफसोस इस बात का कि हम लगातार गिरावट की तरफ बढ़ रहे है। पिछले वर्ष ऑपरेटिंग रेशयो 98% रहा है यानी ₹98 खर्च करने पर औसतन 100 रुपए की कमाई। हाथी जैसे विशाल साम्राज्य, संसाधनों के बावजूद मात्र ₹2 की बचत से आप रेलवे को कैसे आधुनिक बनाएँगे? कैसे जापान चीन की तरह रेल 200, 300 किलोमीटर प्रति घंटा चलेगी? नयी पटरियाँ, नया विस्तार कैसे होगा? यह प्रश्न आजादी के बाद से ही दूसरे अनेक मसलों की तरह अनुत्तरित हैं! एक दम्भ जरूर है कि हम कर्मचारियों की संख्या में दुनिया के सबसे बड़े नियोक्ता है। सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं। तो क्या रेल सिर्फ रोजगार के लिए ही बनी है?
1 जुलाई 2020 को यह घोषणा हुई की 109 मार्गों पर प्राइवेट कम्पनियाँ रेल चलाएँगे, सिर्फ ड्राइवर रेलवे का होगा बाकी डिब्बे, मेंटेनेंस सब कुछ प्राइवेट हाथों में, रेल विभाग को यह प्राइवेट कम्पनियाँ कुछ किराया देंगी। अगले दिन 2 जुलाई को एक और रेल मन्त्रालय से आदेश निकला कि इस बीच जो भी रेल विभागों में रिक्तियाँ हैं वह अभी नहीं भरी जाएँगी उनमें कटौती की जाएगी। सिर्फ सेफ्टी पदों को छोड़कर। बस हो गया तूफान खड़ा। विपक्ष के नेताओं से लेकर रेल कर्मचारियों के रोष की बातें मीडिया चलाता रहा। गुस्सा आना स्वाभाविक है विशेषकर मौजूदा कोरोना काल में जब रेल ने सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद देश में न कहीं दवाओं की कमी होने दी, न किसी माल की। और जब जरूरत हुई तो आनन-फानन में 5000 श्रमिक गाड़ियाँ चला कर लगभग एक करोड़ श्रमिकों को उनके घर पहुँचाया। यह आसान काम नहीं था। जब पूरा देश कई महीने से बन्द था तो रेल के कर्मचारी फील्ड में लगातार अपने काम पर जुटे हुए थे। पुल, पटरियों के रखरखाव जैसे काम भी इसी बीच पूरे किए गये। मेरी नजरों में डॉक्टर नर्स और सिविल प्रशासन के साथ-साथ रेल कर्मचारियों को भी कोरोना योद्धा में शामिल किया जाना चाहिए।
लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि 1 दिन पहले जिस रेल मन्त्रालय ने रेलवे मैं सत प्रतिशत पंक्चुअलिटी उर्फ समय पालन का रिकॉर्ड रेलवे के इतिहास में बनाया और उसकी घोषणा की उसके अगले ही दिन निजी रेलवे की इजाजत भी ताबड़तोड़ दे डाली। यानी एक गाल पर प्यार की थपकी तो दूसरे पर तड़ा-तड़ा तमाचे। जरूरत तो इस समय की यह है कि आने वाले दिनों की चुनौतियों को देखते हुए रेल कर्मचारियों तारीफ कर उनमें और उर्जा भरी जाए विशेषकर आत्मनिर्भर भारत बनाने की घोषणाओं के बरक्स। कोरोना विपत्ति के पूरे दौर में यह महसूस पक्ष वपक्ष दोनों कर रहे हैं कि सरकारी तन्त्र ही ऐसी चुनौतियों से सबसे सक्षम ढंग से निपट सकता है चाहे वह स्वास्थ्य सुविधाएँ हों, या सरहदों पर मंडराती चीन पाकिस्तान की चुनौतियाँ। तो रेल जैसे विभाग को और चुस्त-दुरुस्त, मजबूत और विस्तार करने की जरूरत है।
लेकिन क्या यह चुस्त-दुरुस्त सिर्फ निजी करण से ही सम्भव है? क्या सरकार के मौजूदा ढाँचे में कोई सम्भावना ही नहीं बची? अभी 6 महीने पहले ही रेलवे के ढाँचे में कुछ बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत हुई है जैसे आठ सदस्यों की जगह सिर्फ चार रहेंगे और इंजीनियरिंग और सिविल सेवाओं को मिलाकर भी एक रेलवे मैनेजमेंट सर्विस बनाने की योजना है। 3 वर्ष पहले रेल बजट को भी मुख्य बजट में शामिल करके एक बड़ा कदम उठाया था। और भी हलचल जारी है लेकिन उसकी दिशा अभी भी धुँधली और अस्पष्ट है। ऐसी स्थितियों में कर्मचारियों का मनोबल और कमजोर होता है जबकि देश की जरूरतों को देखते हुए उसे और मजबूत करने की जरूरत है। इस बात को भी कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि पूरे तन्त्र की सिर्फ 5% रेल में यह शुरुआत की जा रही है और कि इससे रेलवे को फायदा होगा और देश की जनता यानी यात्रियों को बेहतर सुविधाएँ मिलेंगी। विश्व स्तरीय या कम समय में यात्रा कर सकेंगे और यह केवल निजीकरण के रास्ते से ही सम्भव है।
एक रेल कर्मचारी के नाते फिलहाल मेरी भी पूरी असहमति है। इस मोड़ पर रेलवे के कुछ हिस्से को प्राइवेट हाथों में देने के निर्णय से। हालाँकि अभी सिर्फ प्रतिवेदन मंगाए गये हैं लेकिन अच्छा हो कि निजी कम्पनियों की तरफ देखने से पहले रेलवे के प्रशासनिक ढाँचे की कमियों को ही दूर किया जाए। मेरी असहमति विपक्ष के उन कच्चे पक्के राजनीतिक नेताओं से भी है जो अचानक ही बरसात के मेंढक की तरह तर्रा रहे हैं। रेलवे में निजी करण का यह पहला कदम नहीं है। यूपीए एक और दो के दौरान बिहार में जो कई रेलवे कारखाने खोले गये वे सब इसी पीपीपी मॉडल के थे। और भी कई कदमों की शुरुआत उन्हीं दिनों हुई थी। यहाँ तक की काँग्रेस के प्रधानमन्त्री नरसिंह राव जिनका जन्म शताब्दी वर्ष भी अभी पिछले ही हफ्ते शुरू हुआ था और उनकी तारीफ में सबसे बड़ा कशीदा यही कसा जाता है कि देश उदारीकरण और निजीकरण के रास्ते की शुरुआत उन्होंने की। जिसकी वजह से आज देश कई क्षेत्रों में कुछ कुछ आधुनिक और आत्मनिर्भर हुआ है। इसलिए तमाम राजनेताओं की बातें यकीन के लायक भी नहीं है। एक तरफ आत्मनिर्भर भारत की बात और दूसरी तरफ यह निजी कम्पनियाँ जो सब कुछ बाहर से मंगा कर यहाँ जोड़-तोड़ करती हैं और मुनाफा कमाती हैं।
आइए रेल मन्त्रालय के एक कल्याणकारी विभाग रेलवे के स्कूलों की प्रयोगशाला से रेलवे में निजी करण को समझने की कोशिश करते हैं। विशेषकर उनक लिए जो किसी न किसी पार्टी के साथ नाली नाभि नाल बद्ध हैं और आडम्बर में जीने के आदी हो चुके हैं।
किसी समय पूरे देश में रेलवे के 800 स्कूल थे। रेल कर्मचारियों की बस्ती के बीच। खुले मैदान, अच्छी इमारतें अच्छे शिक्षक। लाल बहादुर शास्त्री से लेकर अनेकों वैज्ञानिक इंजीनियर इन्हीं स्कूलों में पढ़े थे । अँग्रेज अपने उपनिवेश का शोषण करना जानते थे तो कल्याणकारी योजनाएँ भी। अपने मातहत कर्मचारियों के लिए स्कूल इसीलिए खोलें कि उनके बच्चों को बिना किसी चिन्ता के पढ़ने लखने आगे बढ़ने की सुविधाएँ सुविधाएँ हो। यहाँ तक की रेल अफसरों के लिए मसूरी की पहाड़ियों में एक आलीशान रेजिडेंशियल ओक ग्रोव स्कूल भी 1888 में स्थापित किया। अपने कर्मचारियों की अगली पीढ़ियों के खातिर। आज रेलवे में 8000 से ज्यादा तोप अधिकारी हैं।
मेरा प्रश्न है कितनी अधिकारियों ने ओक ग्रोव स्कूल में अपने बच्चों को भेजा है? यहाँ तक की रेलवे के निचले स्तर के कर्मचारी भी अपने बच्चों को रेलवे की स्कूल में नहीं भेज रहे? पिछले 30 वर्षों में यह गिरावट बहुत तेजी से आई है जिन रेल अधिकारियों की साँस रेलवे के निजीकरण से फुल रही है, रेलवे की यूनियन उतनी ही आराम तलब हो चुकी है क्या उन्होंने ब्रिटिश विरासत की इस कल्याणकारी योजना उर्फ स्कूलों के बन्द होने पर कोई मजबूत आवाज उठाई? क्या कभी किसी उच्च अधिकारी ने इन स्कूलों में जाकर शिक्षकों और स्कूल की परेशानियाँ सुनी? रेल मन्त्री पुरस्कार कुछ समय पहले हर वर्ष 400-500 तक दिए जाते है। क्या कभी किसी स्कूल शिक्षक या उनके प्राचार्य को दिया गया? मैंने कुछ दिन रेलवे स्कूलों के प्रशासन को नजदीक से देखा है। वर्ष 2013 से 15 तक वाराणसी के डीएलडब्ल स्कूल में कई विषयों के पीजीटी के पद वर्षों तक खाली थे। वही के कई टीजीटी को प्रमोट किया जाना था। कारण पूछा तो पता लगा कि पेपर कौन बनाएँ? कैसे बनाएँ? उत्तर रेलवे में बरेली में रेलवे का एकमात्र स्कूल बचा है। लम्बी चौड़ी जमीन है। क्या कभी उत्तर रेलवे के अधिकारी ने उसकी बेहतरी के बारे में सोचा? यह चंद उदाहरण है। उत्तर प्रदेश बिहार राजस्थान मध्य प्रदेश पंजाब यानी समूचे हिन्दी पट्टी में मुश्किल से कोई रेलवे स्कूल जिन्दा बचा है। 2, 4 हैं भी तो वे भी मौत के कगार पर।
उन्हीं दिनों के एक सदस्य से जब इनकी बेहतरी के लिए कुछ अनुरोध किया तो उनका जवाब था कि सरकारी स्कूल या रेलवे के स्कूलों में अब कौन पढ़ाता है? और हमें ने तुरन्त बन्द कर देना चाहिए! आनन-फानन में ऐसी कमेटी भी बना दी जाती है जो बॉस के मुँह को ताकते हुए तुरन्त ऐसी सिफारिश भी करते है और बस संदेश पूरे देश को चला गया कि रेलवे के स्कूलों को बन्द किया जाए। आश्चर्य यूनियन भी चुप्पी साधे रहे।
अभी 2 जुलाई को जो रिक्तियों को न भरने का फैसला किया गया तो कुछ रेलवे ने अगले ही दिन इस ढंग से दोहराया की स्कूलों में शिक्षकों की संख्या 50% कम कर दी जाए। आप सब की सूचना के लिए बता दें रेलवे के बचे कुचे स्कूलों में पहले से ही 50% पद खाली पड़े हैं। उन्हें न भरने की कसम खा ली है जैसे-तैसे काम चलाया जा रहा है। दक्षिण पूर्व रेलवे में रेलवे के स्कूल बहुत अच्छे चल रहे थे। यानी दाखिले की मारामारी। लेकिन धीरे-धीरे वहाँ भी बच्चे आने इसलिए कम हो गये कि पर्याप्त शिक्षक नहीं है। संतरागाछी स्कूल में 200 9 से 11 वीं 12 वीं के लिए बायोलॉजी का शिक्षक नहीं था और कई वर्षों से रसायन शास्त्र का भी नहीं। लेकिन क्या कभी उच्च अधिकारी ने वहाँ जाकर उनकी खबर ली? यदि जाते भी हैं तो वे स्कूल के वार्षिक समारोह में गुलदस्ता लेने और अपने आत्मकथा के कुछ अँश बांटने! मैं इन सब अधिकारियों की निष्ठा, विद्वता की तारीफ करता हूँ लेकिन जब शिक्षा में निजीकरण हो तो आप चुप लगाए रहते हैं और जब अपनी सेवाओं में कटौती हो तो आप पूरे देश को जगाना चाहते हैं।
यह बात गले नहीं उतरती दोस्तों! मेरे आकलन के अनुसार देश के पूर्वी भाग यानी कि बंगाल में खड़कपुर, कोलकाता, आसाम, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, भिलाई, जैसी जगहों में अभी भी रेल कर्मचारी रेलवे के स्कूलों को ही प्राथमिकता देते हैं। मुंबई के कल्याण स्कूल ने भी अपनी प्रतिष्ठा कायम रखी है जहाँ पिछले कुछ वर्षों में रेलवे की स्कूल से बच्चे आईआईटी और मेडिकल में भी चुने गये हैं। साउथ ईस्टर्न रेलवे के संतरागाछी, खड़कपुर रेलवे स्कूल से भी पिछले वर्षों में नीट परीक्षा के तहत सरकारी मेडिकल कॉलेजों में रेल कर्मचारियों के बच्चे चुने गये हैं। यानी सम्भावना है रेलवे स्कूलों में बशर्ते रेल प्रशासन इन्हीं स्कूलों की तरफ कभी ध्यान भी दे। हाल ही में कोरोना संक्रमित समय मुंबई के कल्याण स्कूल ने आगे बढ़ कर तुरन्त मास्क, सैनिटाइजर आदि बच्चों की मदद से हजारों तैयार कराए। जब भी पदों की कटौती की बात होती है या जमीन बेचने की तो सबसे पहले ध्यान रेल प्रशासन का स्कूलों की तरफ ही जाता है। अब धीरे-धीरे वह सरकारी अस्पतालों की तरफ भी बढ़ रहा है। जबकि कोरोना की विपत्ति में इन दोनों विभागों का भी सबसे अच्छा इस्तेमाल रेल और देश के हित में हो सकता है।
रेलवे के अफसरों के जब भी ट्रांसफर आर्डर होते हैं उनकी एक वास्तविक चिन्ता अपने बच्चों की शिक्षा पढ़ाई के लिए होती है। वे साफ कहते हैं कि हाजीपुर में अच्छे स्कूल नहीं हैं, न सोनपुर में ना गोरखपुर में। इसीलिए उन्हें दिल्ली चाहिए या फिर मुंबई कोलकाता। काश वे कभी यह भी सोच पाते की बच्चों की चिन्ता खलासी कार ड्राइवर या दूसरे फील्ड कर्मचारियों की भी तो होती है? अँग्रेजों ने इन स्कूलों को प्राथमिकता इसीलिए दी थी कि वे एक समान शिक्षा पा सके और चिन्ता मुक्त होकर रेलवे मैं पूरी निष्ठा से काम कर सके। मौजूदा उच्च अधिकारियों के सपने में भी कर्मचारियों के कल्याण की ऐसी बातें नहीं आती वरना बोर्ड के सदस्य ऐसा नहीं कहते कि रेलवे के स्कूल बन्द हो।
वैसे इमानदारी से ही उनके मुँह से निकला क्योंकि उन्हें अब इतनी मोटी तनख्वाह मिलने लगी है और इतने ज्यादा भत्ते कि उस पैसे से वे बहुत मजे से दिल्ली के संस्कृति, मॉडर्न, डीपीएस या अशोका, जिंदल जैसे महंगे स्कूल यूनिवर्सिटी में पढ़ा सकते हैं और फिर सीधे अमेरिका ऑस्ट्रेलिया सिंगापुर। इन अमीरों में स्वर्ण, दलित सारा क्रीमी लेयर शामिल है। उन्हें अँग्रेजी चाहिए और निजी स्कूल। अपनी सरकारी यात्राओं के लिए भी उन्हें रेल नहीं चाहिए। वे प्राइवेट एयरलाइंस से जाना पसंद करते हैं। भले ही किराया कितना भी हो क्योंकि उसमें नाश्ता अच्छा मिलता है। लेकिन अपनी नौकरी सरकारी ही चाहिए। अपने कैडर का एक भी पद इधर-उधर होने से उनकी आत्मा हिलने लगती है। उन्हें तुरन्त संविधान याद आता है। रोस्टर का एक एक पॉइंट। सारे काम छोड़ कर वकीलों की तलाश में जुट जाते हैं। कोर्ट कचहरी में मुकदमे बाजी होती है।
लेकिन इन बिचारे नौकरशाहों को क्यों दोष दिया जाए यह तो उन सपेरों की धुन पर नाचते हैं। विपक्ष के एक नौजवान मगर पूर्व नेता ने निजीकरण के विरोध में वक्तव्य देने से पहले काश यह सोचा होता कि 10 साल तक उनकी पार्टी के जो प्रधानमन्त्री रहे वे निजी करण की सबसे बड़े पहरुए हैं। नरसिंह राव तो नाम के ही प्रधानमन्त्री थे उदारीकरण और निजी करण की इबारत तो उन्हीं ने लिखी थी। और वे भले भी इतने हैं कि कभी उसे छुपाते भी नहीं है। तो रेलवे में यह सब शुरुआत उन्हीं दिनों पूरी रफ्तार से हो गई थी। स्कूल सबसे कमजोर कड़ी थे इसलिए वे लगभग 80% बन्द हो चुके हैं। क्या स्कूलों के बन्द होने पर आपने मीडिया की तरफ से कभी कोई बेचैनी सुनी? क्योंकि देश अमीर और गरीबों में बढ़ चुका है। जो अमीर हैं उनके लिए अँग्रेजी और निजी स्कूल! गरीब बच्चे के लिए सरकारी स्कूल कुछ दिन और उसके बाद रास्ता बन्द।
सरकार और सरकारी स्कूलों के डूबने की कहानी लगभग एक सी ही है और वह है सरकारी नौकरी को एक ऐसे स्वादिष्ट खुशबू दार केक की तरह देखना जिसमें सिर्फ खाने को हिस्सा चाहिए करने को नहीं। आजादी के बाद जैसे-जैसे भ्रष्टाचार बढ़ता गया वैसे वैसे इस केक में हिस्सेदारी का हक भी क्योंकि नैतिकता राजा से शुरू होती है। इसलिए उसी अनुपात में सरकारी विभाग विनाश की तरफ बढ़ते गये और लगातार बढ़ रहे हैं। हर जाति के हर विभाग में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संगठन है, उनके दर्जनों प्रेसिडेंट, महासचिव हैं। काम करने के लिए किसी को जगह मिले ना मिले उनको उसी दफ्तर में अलग कमरा चाहिए नेतागिरी के लिए। यह तथाकथित राष्ट्रीय संगठनों के अलावा हैं। राष्ट्रीय यूनियन राष्ट्रीय नेताओं के इशारों पर चलती है। रोजमर्रा के ट्रांसफर विभागों के बंटवारे में प्रशासन की इमानदारी पारदर्शिता किसी खूंटी पर टंगी रहती है। धीरे धीरे एक नौजवान सरकारी दुर्ग में प्रवेश करने के कुछ ही वर्षों में किसी जाति या संगठन का सदस्य बन कर रह जाता है। भाड़ में गया उसका संविधान पढ़ना और नैतिकता की शपथ लेना।
इस तरह या तो कमीशन खोर बनिए या कमीशन वॉज। लोक नायक भवन आदि में बैठे कमीशन मैं दौड़ने की क्षमता रखिए। ये सब कमीशन संविधान की दुहाई देते हैं क्योंकि संवैधानिक है। यदि उनकी मर्जी से आपने पोस्टिंग ट्रांसफर नहीं की, उनकी झूठी शिकायत पर किसी को दण्ड नहीं दिया तो वह रोज आपको लोक नायक भवन की सीढ़ियों पर खड़ा रखेंगे। प्रशासन की रीढ़ इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह कोई नैतिक स्टैंड ले ही नहीं पाती। ऐसे में क्या तो हम चीन से मुकाबला करेंगे और कौन सी विश्व स्तरीय आत्मनिर्भर रेल चलाएँगे? रोस्टर के झगड़े और मुकदमे वादियों में कैट हाईकोर्ट से लेकर संविधान में हजारों केस भरे पड़े हैं। हर पक्ष जर्रा-जर्रा इसका जिम्मेदार है। फिर से जर्मन कवि बर्टोल्ड ब्रेस्ट के शब्दों में वे सब भी जिम्मेदार हैं जो यह सब देखते हुए चुप रहते हैं। यह कैसा गणतन्त्र है जो शासन प्रशासन की ऐसी बीमारियाँ भ्रष्टाचार जातिवाद क्षेत्रवाद को खत्म करने के बजाय और बढ़ा रहा है और यदि वह इतना निकम्मा है तो बाजार, निजी करण तो अपना रास्ता खोजें गा ही।
आप सब ने उस जर्मन कवि की कविता भी पढ़ी होगी जो उसने हिटलर शाही के दौर में लिखी थी। पहले उन्होंने कम्युनिस्टों को मारा/ मैं चुप रहा/ क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था/ फिर उन्होंने सोशलिस्ट को घेरा/ मैं तब भी चुप रहा/ क्योंकि मैं सोशलिस्ट नहीं था /अन्त में मुझे घेर लिया गया/ लेकिन तब तक देखने वाला भी आस पास कोई नहीं था।
रेलवे भी देश का हिस्सा है। जब निजी करण की बाढ़ इतनी आगे बढ़ चुकी हो जिसमें बच्चों की शिक्षा स्वास्थ्य, पासपोर्ट, सिक्योरिटी गार्ड पूरी तरह आ चुके हो तो रेलवे में भी बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी? रेल मन्त्री जी! बीमारी कुछ है इलाज आप कुछ दूसरा कर रहे हैं! वक्त के साथ प्रशासनिक नीतियों को बदलिए, जातिवाद लालफीताशाही निकम्मी पन को रोकिए! रेल वह कीमती विरासत है जो देश को आत्मनिर्भर भारत के रास्ते पर सबसे तेज लेकर जा सकती है!
.