विकास की प्राथमिकताओं को बदलने की जरूरत
- नरेन्द्र चौधरी
कोरोना वायरस के इस दौर में अब ‘कोरोना के बाद क्या’ का सवाल खासा चर्चित होने लगा है। औद्योगिक श्रमिकों की थोकबंद घर-वापसी और कई-कई सालों के लिए भरपूर राष्ट्रीय अन्न भंडार ने प्राथमिकताओं के सवाल को और भी पेचीदा कर दिया है। क्या हम विकास के तमाम हो-हल्ले के बावजूद बनी अपनी मौजूदा बदहाली को सुधारना चाहते हैं? उसके लिए किस तरह के, क्या–क्या संसाधनों की जरूरत होगी? प्रस्तुत है, इस सवाल पर कुछ मौलिक चिन्तन करता नरेन्द्र चौधरी का यह लेख।
विडम्बना देखिये कि कुछ समय पहले जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प भारत आये थे तो उनके अहमदाबाद दौरे के रास्ते में दीवार खड़ी की गयी थी ताकि हमारी झुग्गी बस्तियाँ दिखाई न दें। आज दुनिया हमारे लाखों मजदूरों और उनके बच्चों, परिवारों को अपने-अपने घरों की ओर पैदल, बदहवास भागते देख रही है। एक आंकलन के अनुसार अकेले केरल में 25 लाख और महाराष्ट्र में 12 लाख आव्रजन/प्रवासी मजदूर आते हैं। अन्य राज्यों के प्रवासियों को मिलाकर यह संख्या काफी बड़ी हो जाती है। वे जल्दी-से-जल्दी अपने घर पहुँचना चाहते हैं। आवागमन के सारे साधन बन्द हैं इसलिए वे सैकड़ों किलोमीटर का रास्ता पैदल पार कर रहे हैं। केन्द्र और राज्यों की सरकारें सोच नहीं पातीं कि वे क्या करें? आखिर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से उनके रहने-खाने की व्यवस्था की जाती है।
प्रधानमन्त्री कह रहे हैं कि हम लम्बे समय से बीमारी पर नजर रखे हुए हैं। तो ऐसा क्यों होता है कि हाशिए पर पड़े ये लोग हुक्मरानों की नजरों से ओझल हो जाते हैं? नोटबन्दी में भी इन्हें ही लाइन लगाना पड़ी थी। दंगों में मरना पड़ता है। भुखमरी और बीमारी से वे ही जान देते हैं। क्यों मनरेगा का बजट लगातार घटता चला जा रहा है और क्यों राशन-कार्ड बनाने के नियम कड़े होते जा रहे हैं? क्यों राशन-कार्ड को ‘आधार’ से जोड़कर राशन प्राप्त करना कठिन-से-कठिनतर बनाया जाता है? ट्रम्प के दौरे के समय जब सरकार का झुग्गियों पर ध्यान गया तो बेशर्मी की दीवार खड़ी करके उन्हें छिपा दिया गया।
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जब सरकार विदेशों से भारतीयों को भर-भर हवाई-जहाज वापस ला रही थी तब भी उसे इन मजदूरों का खयाल नहीं आया। जब विद्यार्थियों, तीर्थयात्रियों और सैलानियों को ठिकाने पर ला रही थी, तब भी नहीं। लाकडाउन के इक्कीस दिन की समाप्ति पर जब हजारों मजदूर मुम्बई, सूरत आदि जगहों पर घर जाने की उतावली में जमा हो गये थे, तब भी सरकार के पास उनके लिए कोई योजना नहीं थी। अब, जब कुछ राज्य सरकारें उन्हें वापस उनके गृहराज्य लौटाने के बारे में सोच रही हैं तो मजदूरों की भूख और उसकी वजह से होने वाली मौतों की खबरें आने लगी हैं। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) के ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम’ (डब्ल्यूएफपी) के अनुसार कोरोना वायरस से हुए आर्थिक संकट के कारण दुनिया भर में खाद्यान्न संकट झेल रहे लोगों की संख्या दोगुनी होकर 26 करोड़ 50 लाख हो सकती है।
दूसरी तरफ, हमारे देश में अनाज के गोदाम लबालब भरे हैं और सरकार ने चावल से एथेनाल बनाने का निर्णय लिया है ताकि उसका इस्तेमाल सेनीटाइजर बनाने एवं पेट्रोल में मिलाने के लिए किया जा सके। ‘उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण’ विभाग के केन्द्रीय मन्त्री रामविलास पासवान के अनुसार देश में ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ के अन्तर्गत मिलने वाली सुविधा 39 लाख लोगों को, राशन-कार्ड न होने के कारण नहीं मिल पा रही। ऐसे 14 लाख लोग अकेले बिहार में हैं। इसके अलावा कुछ ऐसे लोग भी है जो ‘अधिनियम’ के अनुसार पात्रता नहीं रखते, किन्तु उनके पास खाद्यान्न का अभाव हो गया है।
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ऐसे 10 लाख लोगों की सूची अकेले असम राज्य ने बनायी है। यहाँ जो सवाल बार-बार उठ रहा है कि विपदा के दौरान सरकार इन लोगों को भूल क्यों जाती है? शायद इसलिए विकास की हमारी प्राथमिकताओं और मानकों में इन लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। जाहिर है, हमें विकास की इन प्राथमिकताओं को बदलना होगा, लेकिन नये मानकों व प्राथमिकताओं का पैमाना क्या होना चाहिए?
इसके लिए महात्मा गाँधी का एक ताबीज है जो हमारी पाठ्य-पुस्तकों के मुख-पृष्ठ के भीतरी पन्ने पर छपा रहता था। बाद में उसे अन्तिम पेज पर छापा जाने लगा और धीरे-धीरे वह पुस्तक से गायब ही हो गया। शायद इसीलिए हमें पता ही नहीं चला कि हमारी प्राथमिकतायें कब बदल गयीं। इस ताबीज के बारे में गाँधी कहते हैं कि – ‘’जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाये तो इसका प्रयोग करो। उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो और अपने आप से पूछो – जो कदम मैं उठाने जा रहा हूँ वह उस गरीब के कोई काम आयेगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू मिलेगा? दूसरे शब्दों में, क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा?
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‘टाटा समूह’ के चेयरमेन रतन टाटा की वह बात गौर करने लायक है, जो उन्होंने कुछ दिन पूर्व ‘ग्लोबल इनोवेशन प्लेटफार्म’ पर बोलते हुए कही थी। उनके अनुसार ‘’पिछले कुछ महिनों से हम बड़ी दीनता से देख रहे हैं कि कैसे एक बीमारी पूरी दुनिया पर राज कर रही है? हमें खुद से पूछना चाहिए कि अब तक हम जिसे देखकर गर्व महसूस करते थे, क्या अब हम उससे शर्मिंदा हैं? देश की ‘हॉउसिंग पॉलिसी’ पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि ‘’हम बड़ी इमारत बनाने के लिए गन्दी बस्तियों को दूसरी जगह बसा देते हैं। इसके बजाय हमें गरीबों को गुणवत्तापूर्ण जीवन देने के लिए पुनर्बसाहट नीतियों पर दोबारा विचार करना चाहिए।
मेरा सुझाव है कि गन्दी बस्तियों में रहने वाले लोगों के रहन-सहन पर शर्मिंदा होने की बजाय हमें उन्हें नये भारत का हिस्सा मानकर स्वीकार करना चाहिए। सरकार जीवन की गुणवत्ता के मानकों का फिर परीक्षण करे क्योंकि झुग्गियों में मानक थम जाते हैं। अब समय आ गया है जब एक जैसे दिमाग वाले लोग बैठकर उन निर्णयों की समीक्षा करें जिन्हें पिछले सालों में हमने नजरअंदाज कर दिया था।‘’ अनजाने में ही सही, शायद यह उस ताबीज की तरफ एक छोटा-सा इशारा है।
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‘पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे’ 2017-18 के अनुसार भारत में रोजगार में लगे लोगों की कुल संख्या 46 करोड़ 50 लाख है। इसमें से 90 प्रतिशत यानी 41 करोड़ 90 लाख श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं। कोरोना हो या नोटबन्दी या जीएसटी का लागू होना अथवा बाढ, सूखा या मंदी, असंगठित क्षेत्र ही सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। यह क्षेत्र पहले से ही मंदी की चपेट में था, कोरोना के कारण स्थिति और गंभीर हो गयी है। लाखों लोग बेरोजगारी की चपेट में आ गये हैं। ‘लॉक डाउन’ के रोजगार पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों का अंदाजा ‘सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकानॉमी’ (सीएमआईई) की इस रिपोर्ट से लगाया जा सकता है कि कार्य करने की उम्र वाली कुल जनसंख्या में से सिर्फ 28 करोड़ 50 लाख (28 प्रतिशत) ही काम कर रहे हैं, जबकि ‘लॉक डाउन’ के पूर्व लगभग 40 करोड़ लोग काम कर रहे थे।
ध्यान रखें, हमारे कुल ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) का लगभग 50 प्रतिशत यहीं से आता है। इसके अलावा संगठित क्षेत्र के कुछ लोग भी अपना रोजगार खो सकते हैं। कोरोना वायरस से उपजी इस परिस्थिति से निपटने के लिए हमने इन लोगों पर ‘जीडीपी’ का एक प्रतिशत भी खर्च नहीं किया है। इनमें से अनेक लोग सामान्य आर्थिक एवं स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं से वंचित हैं। इन्हीं को ध्यान में रखकर हमें हमारी प्राथमिकतायें तय करनी होंगी ताकि देश को आत्म-निर्भर बनाने में इन मजदूरों और असंगठित क्षेत्र के लोगों की भूमिका हमारी नजरों से ओझल न हो जाए और भविष्य में विकास के लिए बनायी जाने वाली योजनाओं में उनको स्थान और लाभ में वाजिब हिस्सेदारी न मिले। हाल में प्रधानमन्त्री ने भी कहा ही है कि ‘’देश को आत्मनिर्भर बनाना होगा।‘’ (सप्रेस)
लेखक जैविेक खेती से जुडे वरिष्ठ स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता हैं।
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