माहवारी में उलझी महिलाओं की समस्या
- हेमलता म्हस्के
शरीर की जिस खासियत के कारण महिलाएँ पीढियों को रचती हैं, उस पर आम समाज का क्या रुख है? बेहद शर्मनाक है कि खुद को आधुनिक, प्रगतिशील कहने वाला समाज आज भी महिलाओं की माहवारी की समस्या को अनदेखा कर रहा है। प्रस्तुत है, इसकी पडताल करता हेमलता म्हस्के का यह लेख।
अपने देश की महिलाएँ आजादी के 70 साल बाद भी, समानता के अधिकार देने वाले संविधान के बावजूद अपनी माहवारी की उलझन से मुक्त नहीं हो पा रही हैं। महिलाओं की माहवारी को उनकी स्वाभाविक जैविक प्रक्रिया मानने के बदले पवित्रता के नाम पर न जाने कितने मौखिक कायदे कानून और कथाएँ हैं जिनका सख्ती से अभी भी पालन किया जा रहा है। इस कारण देश की करोड़ों महिलाएँ और युवतियाँ अनेक तरह के कष्टों को झेलने को अभिशप्त हैं।
इसका अंदाजा कुछ दिन पहले गुजरात के एक स्कूल में पढ़ रही छात्राओं के साथ हुए बर्ताव से लगाया जा सकता है। माहवारी की जाँच करने के लिए वहाँ दर्जनों छात्राओं को अपने कपड़े उतारने के लिए विवश किया गया था। ऐसा किसी गुंडा या बदमाश ने नहीं, बल्कि जिस स्कूल में वे अपने जीवन को संवारने का पाठ पढ़ रही हैं, वहां के प्रबंधन के आकाओं ने किया था।
माहवारी के कारण महिलाओं के साथ हैरतअंगेज जुल्म का आलम यह है कि महाराष्ट्र के बीड, उस्मानाबाद और सांगली जिलों के सैकड़ों ग्रामीण, गरीब परिवार गन्ने की कटाई के लिए पलायन करते हैं। पुरुषों को तो आसानी से काम मिल जाता है, लेकिन महिलाओं को काम दिलाने के लिए बिचौलिए सर्जरी के जरिए उनका गर्भाशय निकलवा देते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए किया जाता है ताकि महिलाओं को माहवारी से पूरी तरह मुक्ति मिल जाए और महीने में एक-दो दिन छुट्टी देने का कोई झमेला ही नहीं रहे। काम पाने के लालच में झाँसे में आकर महिलाएँ अपने गर्भाशय निकलवा तो लेती हैं, लेकिन बाद में इस कारण उन्हें कई तरह की शारीरिक परेशानियाँ होती रहती हैं।
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इसी तरह तमिलनाडु में कपड़े के कारखानों में महिलाओं को माहवारी के दिनों में छुट्टी देने के बजाय बिना लेवल की दवाई दे दी जाती है। एक सर्वे के मुताबिक इन दवाओं को खाने के बाद महिलाओं में अवसाद (डिप्रेशन) और बेचैनी बढ़ जाती है और गर्भाशय में इन्फेक्शन भी हो जाता है। माहवारी के दिनों में महिलाओं को छुट्टी देने के बजाय उसके भयानक विकल्पों की बलिवेदी पर उनको चढ़ा दिया जाता है। इसके खिलाफ कार्रवाई तो दूर, ऐसी आवाज भी नहीं उठ पा रही है जिससे सरकार और काम देने वाली कंपनियाँ और ठेकेदार महिलाओं को छुट्टी देने के लिए पहल कर सकें।
डॉक्टरों का कहना है कि महावारी का प्रभाव महिलाओं पर अलग-अलग होता है। कुछ को माहवारी के समय बहुत दर्द होता है तो कुछ को उल्टियाँ, चिड़चिड़ाहट और घबराहट होती है। इस तरह की हालत जिन महिलाओं की होती है उनके लिए फिर सही तरीके से काम करना मुश्किल हो जाता है। इन कारणों को लेकर माहवारी पर कामकाजी महिलाओं को वेतन-सहित अवकाश मिले इस पर बात की जा रही है, लेकिन यह सब इतना नहीं हो रहा है जिससे कुछ हालात बदलें।
सरकारी स्तर पर तो फिलहाल कुछ नहीं हो रहा है। भारत सरकार के ‘महिला एवं बाल विकास मंत्रालय’ में माहवारी पर अवकाश देने के लिए किसी भी प्रस्ताव पर कोई काम नहीं हो रहा। यह महिलाओं से जुड़ा एक जरूरी मुद्दा है, लेकिन अंधविश्वास और इसके वशीभूत हिदायतों के कारण लड़कियों को शुरू के दिनों में ही स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है और कामकाजी महिलाएँ भी नौकरी से तौबा कर लेती हैं।
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माहवारी के दिनों में महिलाओं को आराम करने की छूट नहीं देना पूरी तरह अमानवीय है। हालांकि सरकार सस्ते पैड बाँट रही है और कुछ संस्थाएँ इसके लिए बालिकाओं के बीच जागृति अभियान भी चलाती हैं, लेकिन इस मामले में कोई बहुत संवेदनशील नहीं है। कोई ऐसा मुकम्मल समाधान निकालने के लिए प्रयास नहीं हो रहे हैं जिससे माहवारी को समाज में अपवित्र नहीं माना जाए। जबकि महिलाओं की यह विशेषता उनकी जैविक प्रक्रिया का हिस्सा है। इस तरह से समाज समझकर कुछ निर्णय ले तो महिलाओं के साथ मानवीय व्यवहार का उदाहरण बन सकता है।
महिलाओं के इस दर्द को दुनिया के विभिन्न देशों की सरकारों ने समझा है और अपने यहां माहवारी पर महिलाओं को छुट्टी देने का प्रावधान किया है। जापान, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, ताइवान सहित कई देशों में महिलाओं को माहवारी के समय वैतनिक अवकाश मिलता है और इटली में भी यह कोशिश जारी है। चीन में महिलाओं ने माहवारी के दिनों में छुट्टी मिलने के लिए बड़ा आन्दोलन किया था, तब सरकार ने उन्हें महीने में छुट्टी देने का प्रावधान किया। दक्षिण कोरिया में छुट्टी देने का नियम लागू हुआ तो कामकाजी महिलाओं की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई। जापान में महिलाओं को माहवारी के दिनों में आराम मिलता है। वहां दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ही महिलाओं को माहवारी के दिनों में छुट्टी देने का नियम बन गया था।
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अपने देश में केरल के एक स्कूल ने सबसे पहले लड़कियों को छुट्टी देने का प्रावधान किया था। एर्नाकुलम जिले के त्रिपुनिथुरा के एक सरकारी स्कूल ने 1912 में छात्राओं को सालाना परीक्षा के समय माहवारी की छुट्टी दी थी। यहां छुट्टियाँ महिलाओं के प्रयास से ही संभव हो पाई थी। आजाद देश में बिहार में सबसे पहले 1992 में महिलाओं के लिए महीने में दो दिन की छुट्टी का प्रावधान किया गया, लेकिन इसे माहवारी से नहीं जोड़ा गया। अभी हाल में मुंबई की एक कंपनी ’’मशीन कल्चर’’ ने ‘फर्स्ट-डे पीरियड लीव’ देने की शुरुआत की है।
इस सम्बन्ध में संसद में एक ‘प्राइवेट मेंबर बिल’ कांग्रेस के सांसद निनॉन्ग इरिंग ने पेश किया है, जिसमें ‘निजी’ और ‘सार्वजनिक’ संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को हर महीने माहवारी के दिनों में छुट्टी देने की बात की गयी है। इस पर अभी तक कोई कानून नहीं बन सका है। इस बार लोकसभा में 76 सांसद महिलाएँ हैं और राज्यसभा में भी 26 महिलाएँ सदस्य हैं। इन दोनों सदनों में महिला सदस्यों की बढ़ती संख्या को देखकर यह उम्मीद की जा सकती है कि ये सांसद देश की महिलाओं की इन समस्याओं के समाधान के पक्ष में आवाज बुलंद करेंगी। (सप्रेस)
सुश्री हेमलता म्हस्के पुणे स्थित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।
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