देशशख्सियत

हत्या का कोई तर्क नहीं होता – दीपक भास्कर

  • दीपक भास्कर 

    आज 30 जनवरी है। आज के दिन फिर से एक बार, “ब्राह्मणवाद” ने अपनी सबसे क्रूरतम लक्षण का प्रदर्शन किया था। “महात्मा गांधी” की हत्या, एक  हिन्दू-ब्राह्मण नाथूराम गोडसे द्वारा की गई थी। और अब हत्यारे नाथूराम गोडसे के पक्ष में तर्क गढ़े जा रहे हैं। कई बार लोग पूछते हैं कि ये ब्राह्मणवाद क्या है? तमाम और चीजों के अलावा, जब हत्या, हिंसा, शोषण के पक्ष में तर्क गढ़े जाने लगे तो उसी को ब्राह्मणवाद की समझ कहते हैं। ब्राह्मणवाद का इतिहास, हत्याओं एवम उत्पीड़न के पक्ष में तर्क गढ़ने का इतिहास है। शम्बूक की हत्या के तर्क गढ़े गए। एकलव्य की “कूबत” की हत्या के तर्क गढ़े गए। तमाम, आदिवासी, दलित, अतिपिछड़े, पिछड़े, अल्पसंख्यक को पीछे धकेलने के तर्क गढ़े गए।
    मसलन, गांधी की हत्या का भी तर्क गढ़ा गया। लेकिन हम सबको यह सोचना चाहिए कि अगर गांधी को किसी दलित, पिछड़ा, आदिवासी, मुसलमान, सिख, ईसाई, आदि में से किसी ने मार दिया होता, तो क्या यही तर्क गढ़े जाते। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि इन समुदायों को रोज हत्यारा कहा जाता, इस हत्या के बदले शायद उस समुदाय का नामोनिशान भी मिटा दिया जाता।
    खैर! एक क्षण के लिए आप गांधी को हटाकर भी सोचिये तो क्या हत्या का कोई भी तर्क होगा? वो कैसे एक सभ्य समाज कहलायेगा जो हत्याओं का, शोषण का, उत्पीड़न का तर्क गढ़ देगा? क्या हम आजतक युद्ध में की गई हत्याओं के तर्क ढूंढ पाए हैं? क्या युद्ध कभी “धर्म-युद्ध” हो सकता है? दुनिया में ऐसा कोई युद्ध नहीं जिसे किसी भी तर्क से सही साबित किया जा सकेगा। वो शायद इसलिए क्योंकि युद्ध से बाहर निकलने के लिए ही, राज्य की स्थापना की गई।  विडम्बना यही है कि जिस हत्या, शोषण के माहौल से हम बाहर निकलकर राज्य की स्थापना करते हैं उसी राज्य को हम “लेजिटिमेट वायलेंस” की शक्ति दे डालते हैं। राज्य के पास हत्या का तर्क आ जाता है। वो कभी किसी को फांसी दे देता है तो कभी युद्ध में चला जाता है। क्या हम जंगल से निकलकर समाज में इसलिए आये थे? मानव समाज में “हत्या” का कोई तर्क नहीं। शायद हम कभी भी हत्या का तर्क न ढूंढ पाए थे इसलिए हमने युद्ध की स्थिति को नकार दिया था।  फिर गांधी की हत्या का तर्क किस आधार पर बनाया जा रहा है? पूना पैक्ट 1932 के बारे में प्रोफेसर वेलेरिअन रोड्रिग्ज लिखते हैं कि इस पैक्ट के बाद गांधी के खिलाफ ऑर्थोडॉक्स हिन्दू, मुसलमान दोनों ही प्रदर्शन कर रहे थे। अम्बेडकर तो नाखुश थे ही। मोहम्मद अली जिन्ना ने यह तक कह डाला कि “गांधी के एक महान हिन्दू हैं”. जिन्ना गांधी की तारीफ नहीं बल्कि तंज कस रहे थे।
    बहरहाल, यहां हम सब को एक बार रुकने और सोचने की जरूरत है। ऐसे दिन इतिहास के लिए नहीं बल्कि “वर्तमान” के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। इस वर्तमान का यह 30 जनवरी इस समाज को, इस दुनिया में रह रहे लोगों के लिए आत्मन्थन का दिन है। गांधी की अगुआई में यह देश ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हुआ, इसमें कोई विरोधाभास नहीं। इस अगुआई का कतई मतलब नहीं कि गांधी ने  बाकियों के योगदान को नकारा है बल्कि गांधी ने छोटे-छोटे स्वतंत्रता आंदोलन, बिखरे हुए लोगों को एक किया और इन सब तमाम आंदोलनों को जोड़कर एक राष्ट्रीय आंदोलन की रूपरेखा बनाई। आज के आंदोलनकारियों को यह सीखने की जरूरत है कि हर आंदोलन को जोड़कर एक राष्ट्रीय आंदोलन में उसे तब्दील करना सबसे महत्वपूर्ण और कठीन कार्य है, वो गांधी ने कर दिखाया था।
    आज तो कोई यह तक भी कह जाता है कि गांधी नहीं बल्कि ब्रिटिश हुकूमत कमजोर हो रही थी, उनसे उनके उपनिवेश संभल नहीं रहे थे,  इसलिए भारत को उन्होंने आजाद कर दिया था। आखिर ये हम! कैसे सोचने लगे हैं? जब हम गांधी को नकारने के लिए ये सब दकियानूस तर्क गढ़ेंगे तो फिर बाकी राष्ट्रीय आंदोलन के जांबाजों का क्या होगा? दुनिया के उन तमाम संघर्षों के क्या होगा जो कुर्बानियां देकर लड़ी गई? बहरहाल, ये समझना जरूरी है कि गुलाम बनाने वाले कितने भी कमजोर हो जाए वो अपने गुलामों को कभी आजाद नहीं करते, बल्कि गुलामी की जंजीर को, गुलाम ही तोड़कर आजाद होते हैं। गुलाम से ज्यादा कमजोर तो गुलाम बनाने वाले कभी भी नहीं होते। यह आजादी हमें लाखों, करोड़ों एवं वर्षों के बलिदान से ही मिली है। यह अंग्रेजों की कमजोरी नहीं बल्कि हमारी मजबूती थी। यह एक ऐसी मानसिकता का शिकार हम सब होते जा रहे हैं जो हमें एक मुर्दा कौम में तब्दील करती जा रही है। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि “जिंदा कौम पांच साल इन्तेजार नहीं करती।”
    गांधी ने इस देश को वर्षों तक एक जिंदा कौम बनाकर रखा। लगातार संघर्ष में रहना ही किसी कौम के जिंदा होने की निशानी है। गांधी को मार दिया गया, एक जिंदा आदमी की हत्या कर दी गई।  दुनिया के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आईंस्टीन ने कहा था की आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास दिलाना मुश्किल होगा कि कभी हाड़-मांस का एक ऐसा आदमी इस पृथ्वी पर आया था। आईंस्टीन ने कितना बड़ा सच कहा था। आज हिंसा करने वाले गांधी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।
    बहरहाल, आज हम सब गांधी की हत्या पर शोक के साथ-साथ इस बात पर ज्यादा सोचें कि कैंसर इन तमाम सालों में हत्या के तर्क गढ़े गए हैं। हमें सावधान होना है क्योंकि इस तरह की दकियानूसी, इस देश के तमाम लोगों की हत्या का तर्क भी गढ़ देगा।
    #सत्यमेवजयते

    दिल्ली विश्विद्यालय के दौलतराम कॉलेज में राजनीतिशास्त्र पढ़ाते है और सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दे पर बेबाकी से लिखते हैं।

    deepakbhaskar85@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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