- मिथिलेश कुमार झा
लोकतंत्र के सिद्धांतों को हम वास्तव में कैसे और कहाँ सार्थक रुप में प्रभावी बना सकते हैं? इन विषयों पर विद्वानों के बीच हुए बहसों और चर्चाओं में,अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य पर अत्यधिक जोर दिया गया है। कुछ विद्वान प्रांतों के अध्ययन के माध्यम से भी भारतीय लोकतंत्र का विश्लेषण करते हैं। जाति, वर्ग, लिंग, या धर्म के आधार पर भी इस तरह के विश्लेषण की प्रचुरता रही है। इन अध्ययनों ने भारतीय लोकतंत्र की सफलताओं और विफलताओं को समझने में काफी हद तक मदद की है। फिर भी,ये अध्ययन भारत के कई स्थानीय भाषाई क्षेत्रों में प्रभावी लोकतांत्रिक प्रथाओं के वास्तविक तनावों और चुनौतियों को समझने में पूरी तरह विफल रहे हैं। भाषा,उपर्युक्त सवालों का और भी अधिक सटीक रूप से समझ और व्याख्या करने के लिए एक बहुमूल्य माध्यम हो सकता है, खासकर यदि हम भारतीय लोकतंत्र को संविधान और आधुनिक राज्य की संस्थाओं से परे समझना चाहते हैं।
आधुनिक भारत में भाषा के मुद्दे पर बहस,आधुनिक स्थानीय शिक्षा और ब्रिटिश शासन द्वारा किए गए वर्गीकरण प्रक्रिया की शुरुआत के बाद से ही,कई तरिकों से हुई है। राष्ट्रवादी चरण के दौरान ‘राष्ट्रीय’ भाषा का प्रश्न राजनीतिक और भावनात्मक रूप से काफी नाजुक मुद्दा बन गया था। उत्तर भारत में हिन्दी और उर्दू के विवाद को व्यापक स्तर पर समझकर इसकी व्याख्या की गयी है। आजादी के कुछ दशकों बाद, भारत में कई भाषाई दंगे, भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन, ‘राष्ट्रीय’ भाषा के रूप में हिन्दी के अधिरोपण को लेकर हिन्दी के समर्थकों और गैर-हिन्दी भाषियों, विशेष रूप से तमिल और अन्य दक्षिणी भारतीय भाषाओं के बीच के संघर्ष हुए। तथापि, राज्य पुनर्गठन के बाद से भाषाई मुद्दों को सामाजिक विद्वानों के द्वारा सुलझा हुआ मुद्दा मान लिया गया। हिन्दी-उर्दू बहस, हिन्दी को ‘राष्ट्रीय’ भाषा बनने की प्रक्रिया तथा आधुनिक तमिल, तेलुगु, बंगाली, पंजाबी जैसे भाषाई समुदायों के बनने के सन्दर्भ में कई आलोचनात्मक अध्ययन हुए हैं, लेकिन भारतीय लोकतंत्र की प्रगति और सीमाओं और इसकी विभिन्न चुनौतियों की व्याख्या करने के लिए एक अवधारणा के रूप में भाषा का उपयोग बहुत कम या न के बराबर किया गया है।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों के लिए भाषा एक बहुत ही शक्तिशाली माध्यम बन जाताहै। व्यक्तियों और समुदायों के लिए भाषा नई नहीं है। वे शुरुआत से ही इसे जानते हैं और इसका प्रयोग करते हैं। लेकिन जिस तरीके से उन्होंने स्वयं को अपनी भाषा के साथ व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से जोड़ना शुरू किया, वह मूल रूप से नया तथा आधुनिक ही है। स्वयं और सामूहिक पहचान को अब एक भाषा आधार पर आकार दिया जाने लगा। राष्ट्र की संकल्पनाओं में ‘राष्ट्रीय’ भाषा की भूमिका ‘प्रमुख विचारधारात्मक महत्व’ के रुप में ऊभरकर सामने आई। भाषा के विकास एवं संवृद्धि में ही स्वयं और समुदाय के विकास को देखा जाने लगा। आधुनिक भारत में भी, भारतेन्दु के विचार निज भाषाउन्नत अहै, सबउन्नत की मूल (निज भाषा के विकास में ही सभी विकास की जड़ें निहित हैं) उत्तर भारत के विभिन्न भाषाई समुदायों को काफी प्रभावित किया है। भाषा, उनके लिए गोलबंदीकरण तथा सामूहिक पहचान के निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त माध्यम बन गई। इसने भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा की समस्या को और भी जटिल बना दिया है। ऐसा विशेष रूप से तब होता है, जब ‘मामूली’ और ‘गैर-स्थापित’ भाषाई समुदाय, भाषा के आधार पर अपनी माँगों और चिंताओंको प्रकट करना शुरू कर देते हैं। आम तौर पर, इस तरह के भाषा आंदोलनों को ‘स्थानीय’ अथवा ‘संकीर्ण’ और भारत के’राष्ट्रीय’ भाषा के विकास और विस्तार के लिए बाधाओं के रूप में देखा जाता है।
अभी भी लाखों लोग अपनी स्थानीय भाषाओं के माध्यम से ही लोकतांत्रिक प्रक्रियाओंको समझते हैं एवं उसमें अपना भागीदारी भी करते हैं। भाषा आंदोलन, आधुनिक भारत में लोकतांत्रिक प्रयोग से उत्पन्न हुए उम्मीदों के क्षितिज को लगातार संवर्धित और विस्तारित करता रहा है। और, बगैर उसके समझ या अर्थों को शामिल किए, भारतीय लोकतंत्र की हमारी समझ हमेशा ही आंशिक या अपूर्ण रहेगा। आधुनिक भारत की भाषाई अर्थव्यवस्था में, हम देखते हैं कि शीर्ष पर अंग्रेजी बोलने वाले अभिजात्य वर्ग के बाद अंग्रेजी और एक या अधिक भारतीय भाषाओं के ज्ञान के साथ द्विभाषी या त्रिभाषी अभिजात्य वर्ग हैं। उन्होंने भारत के विभिन्न स्थानीय भाषाई क्षेत्रों में ‘लोकतंत्र’ या ‘राष्ट्र’ या ‘स्वराज’ जैसे विचारों को प्रसारित करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। उनके नीचे एकल-भाषीय लोगों का विशाल जनसमूह है जिसे हिन्दी का ही बहुत कम या ना के बराबर ज्ञान है। आधुनिक भारत में इन भाषाई समुदायों में से कई अभी भी ‘लोकतंत्र’, ‘स्वराज’ और ‘राष्ट्र’ जैसे सवालों से जूझ रहे हैं और वे देश के साथ अपनी समस्याओं को भी सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे ऐसा अपनी भाषाओं के अस्तित्व की कीमत पर नहीं करना चाहते। इससे भारत में भाषा और लोकतंत्र का मुद्दा विद्वानों के लिए अध्ययन का एक आकर्षक क्षेत्र बन जाता है। हम इसे और भी बेहतर ढंग से समझ सकते हैं जब हम भाषा के मुद्दे को केवल पहचान के मुद्दे तक ही सीमित न कर दें।राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी विचारक ने अंग्रेजी का दृढ़ विरोध करते हुए, भारतीय राज्य और समाज के लोकतन्त्रीकरण में भारतीय भाषाओं की मूल्यवान भूमिका भलीभाँति समझा था।अंग्रेजी की तुलना में भारतीय भाषाओं की स्थिति अभी भी दयनीय ही है। अंग्रेजी अभी भी भारत में शासक वर्ग में प्रवेश करने का एक सशक्त माध्यम है और यह अभिजात्य वर्ग तथा सामान्य जनता के बीच एक व्यापक खाई को पुनर्स्थापित करता है। क्या हम कभी इस विरोधाभास को दूर कर सकेंगे? क्या इन विरोधावासों को दूर किये बिना वास्तविक लोकतन्त्रीकरण संभव है? क्या इन भाषाई आंदोलनों में किसी विशेष भाषा के ज्ञान से जुड़े विशेषाधिकारों को बदलने की क्षमता है?
भाषा, हालांकि सीमित अर्थ में ही, लोगों को जाति, धर्म, वर्ग और लिंग की सीमाओंसे परे एक साथ जुड़ने के लिए एक आधुनिक ‘धर्मनिरपेक्ष’ माध्यम प्रदान करती है। देश के विभिन्न हिस्सों में हो रहे भाषाई आंदोलनों के उदय और दावे की गंभीर समझ हमारे लिए भाषा आंदोलन के भीतरी वर्चस्व और अधीनस्थता को भी समझने में सहायक हो सकती है। एक भाषा के मानकीकरण के साथ कई समृद्ध साहित्यिक परंपराओं से संपन्न भाषाओं ने भी अपना अस्तित्व खोया है, लेकिन इन भाषाओं को ने वालों में हमेशा से उनकी भाषा की विशिष्ट स्थिति की चेतना रही है। उत्तर भारत में मैथिली, भोजपुरी, अवधी और ब्रज बोलने वालों ने किस प्रकार अपने स्वतंत्र अस्तित्व का समय-समय पर दावा किया है। हालांकि, इन आंदोलनों का एक और पहलू भी है। ये आंदोलन,भले हीमानक भाषा द्वारा किये जा रहे समायोजन का विरोध करते हों, परंतु इनमे अपने भाषाई क्षेत्र के अंदर पुरानी और मौजूदा पदानुक्रमों को पुनर्स्थापित बनाए रखने की भी प्रवृत्ति होती है। अपने क्षेत्र के भीतर कि भाषाई’किस्मों’ या ‘बोलियों’ को भी अधीनस्थ करने की प्रवृत्ति रहती है। इन आंदोलनों को प्रायः प्रमुख जाति और वर्ग समूहों द्वारा ही नियंत्रित किया जाता है। लेकिन यह भी इसी भाषाई क्षेत्र में संभव है कि इस तरह के वर्चस्व को वास्तविक चुनौती भी दिया जाता है। उदाहरण के लिए, मैथिली आंदोलन में हम पाते हैं कि नेतृत्व विशेष रूप से ऊपरी जातियों,खासकर ब्राह्मणों और कायस्थों के हाथों में रहा है। लेकिन ऐसे प्रभुत्व और वर्चस्व का तेजी से विरोध भी किया जा रहा है। यदि, भारत में राज्य और उसके संस्थानों को लोकतांत्रिक बनाने के लिए समाज को लोकतांत्रिक बनाना आवश्यक है। तो, क्या इन स्थानीय भाषाओं को लोकतांत्रिक किए बिना इसे हासिल किया जा सकता है, जहां लोकतांत्रिक और अलोकतांत्रिक ताक़तों के बीच वास्तविक लड़ाई हर दिन लड़ी जाती है?
आधुनिक भारत में भाषा,‘लोकतंत्र’, ‘स्वराज’ और ‘राष्ट्र’ जैसे विचारों के प्रक्षेपकों को व्यापक रुप में समझने के लिए एक बहुमूल्य माध्यम साबित हो सकती है। वास्तव में भारतीय भाषाओं और उसके साहित्यिक तथा सार्वजनिक क्षेत्रों का अध्ययन नहीं के बराबर हुआ है। इस तरह के अध्ययन से न केवल भारतीय लोकतंत्र और इसकी विभिन्न चुनौतियों के सन्दर्भ में हमारी समझ विकसित होगी बल्कि इन भाषाई समुदायों का ‘हमारी आधुनिकता’ के साथ उलझनों के मामले में भी बेहतर समझ बनेगी। राष्ट्रीय संकल्पनाओं से अलग इन स्थानीय भाषा क्षेत्रों में कल्पनाएं किस प्रकार की थीं? इन पदानुक्रमित समाज और समुदायों ने लोकतंत्र या समान नागरिकता जैसे आधुनिक आदर्शों के साथ कैसे अपना सामंजस्य बिठाया है? दूसरे शब्दों में, भारतीय लोकतंत्र की जटिलताओं को आधुनिक भारतीय भाषाओं और इसके सार्वजनिक क्षेत्रों के अध्ययन के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में ही भाषा आंदोलनों का भी अध्ययन करने की आवश्यकता है। ये भाषाई क्षेत्र अनिवार्य रूप से लोकतांत्रिक नहीं हैं, लेकिन उन्हें लोकतांत्रिक बनाये बिना भारतीय लोकतंत्र का विकास हमेशा ही अधूरा रहेगा, और इस द्वंद्व को समझे बिना भारतीय लोकतंत्र का हमारा समझ भी।
लेखक मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग, आईआईटी गुवाहाटी, में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं।
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