- पुखराज जाँगिड़
क्या आप जानते हैं कि शबनम बानो, मानबी बंद्योपाध्याय, नीतू, वीरा यादव, अक्काई पद्मशाली, जोयिता मंडल, सत्यश्री शर्मिला, पद्मिनी प्रकाश, शानवी पोन्नुस्वामी, पृथिका यशिनी, गंगाकुमारी और में क्या समानता है? ये भारतीय समाज के वे चेहरे हैं, जिनसे हम अक्सर मुँह चुराते रहे हैं। ये सभी वे अग्रणी तृतीयलिंगी शख्सियतें हैं, जिन्होंने अपने बूते उपलब्धियों का नया इतिहास रचकर नये भारतीय समाज की नींव रखी हैं। ये सभी तृतीयलिंगी समाज के प्रकाशस्तंभ हैं, उनके प्रेरणास्त्रोत हैं। तृतीयलिंगी समाज इनके जैसा बनना चाहता हैं, इनका अनुसरण करना चाहता है। राजनीति, शिक्षा, न्याय, मीडिया, मनोरंजन और पुलिससेवा से जुड़े इन तृतीयलिंगियों में से अधिकांश तृतीयलिंगी जागरूकतापूर्वक अपने समाज की शिक्षा और अधिकारों के लिए के लिए काम कर रहे हैं। असल में, जागरूकता के अभाव में बहुत कम लोग जान पाते हैं कि उनकी बहुतेरी दिक्कतें मनोवैज्ञानिक व स्वास्थ्य संबंधी है, जिन्हें सामान्य-से परामर्श व शल्य-चिकित्सा द्वारा ठीक किया जा सकता है। अंततः प्यार, सम्मान व अपनापन ही वह चीज है, जिससे सब ठीक किया जा सकता है। अंततः मनुष्यता का विकास ही सच्चा विकास है।
शबनम बानो देश की पहली तृतीयलिंगी विधायक रही हैं। मानबी बंद्योपाध्याय देश की पहली तृतीयलिंगी महाविद्यालय-प्राचार्य हैं। नीतू हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए काम करनेवाली प्रसिद्ध तृतीयलिंगी पार्षद हैं। वीरा यादव पटना विश्वविद्यालय की पहली तृतीयलिंगी विद्यार्थी रही हैं। अक्काई पद्मशाली देश की पहली तृतीयलिंगी डॉक्टरेट (पीएचडी) हैं। जोयिता मंडल देश की पहली तृतीयलिंगी न्यायाधीश हैं। सत्यश्री शर्मिला देश की पहली तृतीयलिंगी वकील हैं। पद्मिनी प्रकाश देश की पहली तृतीयलिंगी समाचारवाचक (न्यूज़ एंकर) हैं। शानवी पोन्नुस्वामी देश की पहली पेशेवर तृतीयलिंगी मॉडल हैं। पृथिका यशिनी देश की पहली तृतीयलिंगी पुलिस उप-निरीक्षक (सब-इंस्पेक्टर) हैं। गंगाकुमारी देश की पहली तृतीयलिंगी हवलदार (कॉस्टेबल) हैं।
सरसरी तौर पर हमें यह उपलब्धियाँ बहुत कमतर लग सकती हैं पर तृतीयलिंगी समाज (भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार भारत में उनकी आबादी लगभग 5 लाख हैं) को इसे हासिल करने में बहुतेरी पीड़ादायी यातनाओं और संघर्षों से होकर गुजरना पड़ा है। ये सभी उपलब्धियाँ आजादी के छठे दशक के बाद की है और अधिकांश तो सातवें दशक की हैं। शबनम मौसी के नाम से भी जानी जाने वाली शबनम बानो का जन्म ‘भारतीय पुलिस सेवा’ (आईपीएस) अधिकारी के यहाँ हुआ, लेकिन तृतीयलिंगी होने के कारण उनके परिवार ने उन्हें त्याग दिया। बाद में उनका पालन-पोषण एक आदिवासी परिवार ने किया, जिसमें उन्हें उन्हें व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिली। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने मुख्यधारा के समाज और तृतीयलिंगी समाज के बीच पुल का काम किया। उन्होंने सन् 2000 में मध्यप्रदेश के सोहागपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और 18000 वोटों से जीती। उनके प्रयासों से तृतीयलिंगी समाज ने अपनी पारंपरिक भूमिकाएँ छोड़ नये सिरे से खुद को अभिव्यक्त करना शुरू किया। उनके प्रयासों का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस दौर में, उनके नेतृत्त्व में देश की पहली तृतीयलिंगी राजनीतिक पार्टी ‘जीती जिताई राजनीति’ (जेजेपी) बनी और सन् 2003 के विधानसभा चुनावों में उसने 106 तृतीयलिंगी उम्मीदवार खड़े किए। हालांकि वे सभी हार गए पर यह एक बड़े बदलाव की शुरुआत तो थी ही। उनके इस संघर्ष को फिल्मकार योगेश भारद्वाज की फिल्म ‘शबनम मौसी’ (2005) में भी देखा जा सकता है।
नीतू मौसी के नाम से प्रसिद्ध नीतू भरतपुर (राजस्थान) की तृतीयलिंगी पार्षद हैं। वे हिंदू-मुस्लिम-सद्भाव की मिशाल मानी जाती हैं। वे वैयक्तिक स्तर पर एक ही मंच पर हिंदू-मुस्लिम परिवारों की अभिभाव-वंचित लड़कियों की शादियाँ कराती हैं, जिसे उस क्षेत्र में व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त है। कन्या-भ्रूणहत्या के बारे में उनका साफ कहना हैं कि “बेटियों को कोख में न मारें। यदि कोई अपनी बेटियों को पालने में असमर्थ है तो वे उन्हें मुझे दें, हम उनका पालन-पोषण करेंगी।”
तृतीयलिंगी न्यायाधीश जोयिता मंडल की मूल पहचान एक तृतीयलिंगी सामाजिक कार्यकता की है। वे 8 जुलाई, 2017 से पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिले की इस्लामपुर लोक अदालत में कार्यरत हैं। बचपन में होने वाले लिंगीय भेदभाव के चलते उन्हें न सिर्फ विद्यालय बल्कि घर तक छोड़ना पड़ा। ऐसा दूसरों के साथ न हो, इसके लिए वे सन् 2010 से तृतीयलिंगियों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘नई रोशनी’ चला रही हैं। उनका मानना है कि देश में बहुत सारे तृतीयलिंगी हैं और अगर उन्हें मौका मिले तो वे बहुत कुछ कर सकते हैं। जोयिता मंडल का संघर्ष अन्यों के लिए बड़ी प्रेरणा सिद्ध हुआ। उनके बाद महाराष्ट्र की विद्या कांबले को देश की दूसरी तृतीयलिंगी न्यायाधीश बनने का व असम की स्वाति बरुआ को देश की तीसरी तृतीयलिंगी न्यायाधीश बनने का सम्मान प्राप्त हुआ। विद्या कांबले नागपुर लोक अदालत में कार्यरत हैं तो स्वाति बरुआ कामरूप लोक अदालत में। अपनी नियुक्ति पर स्वाति बरूआ ने कहा था कि “हम समाज के अन्य लोगों की तरह ही हैं पर फिर भी हम पर हँसा जाता है, हमें भीड़ में बेइज्ज़त किया जाता है। मुझे उम्मीद है कि मेरी नियुक्ति के बाद लोगों को समझ में आएगा कि हम लोग अछूत नहीं हैं।” देश की पहली तृतीयलिंगी वकील सत्यश्री शर्मिला चाहती हैं कि उनके समुदायी अच्छा काम करें और देशभर में उच्चपदों पर आसीन हों। उन्हें 30 जून 2018 को बार काउंसिल ऑफ तमिलनाडु और पुडुचेरी की सदस्यता मिली।
देश की पहली तृतीयलिंगी हवलदार गंगाकुमारी को यह उपलब्धि दो साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मिली। राजस्थान के जालौर जिले की रानीवाड़ा की रहवासी गंगाकुमारी ने सन् 2013 में राजस्थान पुलिस भर्ती परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन स्वास्थ्य परीक्षण के बाद तृतीयलिंगी होने के कारण उन्हें नियुक्ति नहीं दी गई पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। सन् 2015 में उन्होंने न्यायालय की शरण ली और अंततः सन् 2017 में फैसला उनके पक्ष में आया। राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायामूर्ति दिनेश मेहता ने अपने ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट कहा कि संविधान जेंडरन्यूट्रल है और किसी के साथ योग्यता होने पर सिर्फ उसके लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता। उन्होंने राजस्थान सरकार को 6 हफ्ते में गंगा को नियुक्ति देने का आदेश देते हुए यह भी कहा था कि गंगा को 2015 से ही ड्यूटी पर माना जाए। इन सबका सम्मिलित असर यह हुआ कि ओडिशा सरकार ने अपनी जेल सुरक्षा विभाग से संबद्ध अपनी विशेष पुलिस भर्ती में बाकायदा तृतीयलिंगियों को आरक्षण दिया है, ऐसा करने वाला वह देश का पहला राज्य है। बाद में तमिलनाडु अपनी पुलिस कॉस्टेबल की भर्ती के दौरान ऐसा करने वाला दूसरा राज्य बना।
तृतीयलिंगी समाज को मुख्यधारा से जोड़ने व उसके उत्थान के लिए केंद्र व राज्य सरकारें धीरे-धीरे चेती हैं, चेत रही हैं। (इस मामले में हमारे पड़ौसी देश बांग्लादेश व पाकिस्तान हमसे बेहतर स्थिति में हैं। वहाँ समान अधिकार अभी दूर की कौड़ी है पर स्थितियाँ बेहतर हो रही है।) आजाद भारत में तृतीयलिंगी समाज को पहली राहत या पहचान सन् 2009 में तब मिली, जब लंबे संघर्ष के बाद उन्हें भारत निर्वाचन आयोग द्वारा पहली बार मतदातासूची (वोटरलिस्ट) व मतदाता-पहचानपत्रों में ‘अन्य’ के रूप में शामिल किया गया (इससे पहले वे ‘स्त्री’ या ‘पुरुष’ के रूप में ही अपने मताधिकार का प्रयोग करते थे)। ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण’ (नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी) की कोशिशों के मार्फत आए 15 अप्रैल, 2014 के उच्चतम न्यायालय के फैसले (जिसमें उन्हें तीसरे लिंग के रूप में मान्यता और आरक्षण का लाभ देने के निर्देश दिए गए, उन्हें बच्चा गोद लेने व चिकित्सा के जरिए स्त्री या पुरुष बनने का अधिकार दिया) से, ने उनकी दुनिया को ही बदलकर रख दिया। न्यायमूर्ति के एस. राधाकष्णन व न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की पीठ ने स्त्री व पुरुष के बाद तृतीयलिंग को तीसरे लिंग के मान्यता देते हुए केंद्र व राज्यों को स्पष्ट निर्देश दिए कि वे स्वास्थ्य, शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र में पर्याप्त अवसर प्रदान कर तृतीयलिंगी को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कदम उठाएं।
इस फैसले ने हमें वो चेहरे दिए, जिनसे हम अब तक मुँह मोड़ते आए हैं। ‘अन्य’ (अदर) श्रेणी के रूप में उनकी संवैधानिक स्वीकार्यता के कारण ही देश को तृतीयलिंगी प्राचार्य, न्यायाधीश, वकील, उप-निरीक्षक, हवलदार मिल सके। इससे उन्हें सामाजिक कलंक के रूप में देखे जाने की आमनुषिक सोच भी खत्म होगी। दृढ़निश्चय से भरा यह उत्सवधर्मी समाज अब न तो हँसी का पात्र बने रहने चाहता हैं और न ही भेदभाव का शिकार बनना चाहता हैं। वे हमारे समाज का हिस्सा हैं, इसलिए उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य व सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हमारी ही होनी चाहिए। आप प्रकृति की भूल को इंसानों के मत्थे नहीं मढ़ सकते। समाज, राजनीति, साहित्य, सिनेमा आदि इस क्षेत्र में बेहतर भूमिका निभा सकते हैं। असल में, प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय परंपरा तृतीयलिंगियों के प्रति सहिष्णुता की रही है, जबकि प्राचीन और मध्यकालीन अंग्रेज समाज बहुतेरी यौन-वर्जनाओं से घिरा रहा है, जिसका असर उन्नीसवीं सदी तक बना रहा और उन्होंने योजनापूर्वक अपने हित-साधन के लिए भारतीय समाज को इसके अनुकूल बना लिया।
लगभग 5 लाख तृतीयलिंगी-आबादी वाले इस देश में सर्वाधिक तृतीयलिंगी उत्तर प्रदेश में रहते हैं पर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनके उत्थान या पुनर्वास की कोशिशें न के बराबर हुई हैं। भला हो, बरेली की गैरसरकारी संस्था ‘शेख फरजंद अली एजुकेशनल एंड सोशल फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ (सिस्फा-इस्फी) का, जिसने देश के पहले तृतीयलिंगी विद्यालय ‘आस’ की स्थापना कर ऐसे विद्यार्थियों के पुनर्वास को जमीनी रूप दिया। मुंबई की ‘एकता हिंद सोसायटी’ ने गोवंडी में तृतीयलिंगियों के लिए अलग से शौचालय बनाए हैं, ताकि अपनी लैंगिकता के कारण वे न तो स्त्रियों के मध्य अपमानित महसूस करें और न पुरुषों के मध्य खुद को असुरक्षित। ओडिशा सरकार ने अपने चार हजार से अधिक तृतीयलिंगियों (जिनमें से 90% गरीबीरेखा से नीचे का जीवनयापन कर रहे हैं) के लिए राशन और पेंशन की व्यवस्था की घोषणा की है। बिहार सरकार स्त्रियों व बच्चों के स्वास्थ्य के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए तृतीयलिंगियों की सेवाएँ ले रही हैं। दिल्ली देश का पहला ऐसा संघप्रदेश है जो अविवाहित तृतीयलिंगियों को एक हजार रूपये की मासिक पेंशन देता है।
सच्चाई का एक दूसरा पहलू यह भी है कि औपचारिक रूप से तो पंजाब सरकार ने सन् 2010 में ही सरकारी नौकरियों में तृतीयलिंग के लिए अलग श्रेणी बना दी थी पर वह जमीनी सच्चाई कभी न बन पाई। पर सर्वत्र कथनी व करनी में इतना अभेद बी नहीं है। तमिलनाडु देश का पहला राज्य है, जिसने सन् 2009 में तृतीयलिंगियों के लिए ‘तृतीयलिंगी कल्याणकारी बोर्ड’ (ट्रांसजेंडर वेल्फेयर बोर्ड) की स्थापना कर एक नयी शुरुआत की। यही कारण है कि तृतीयलिंग से संबंधित अधिकांश संघर्षों का वह अगुआ रहा। इस दिशा में 15 जून 2017 को तमिलनाडु उच्चशिक्षा मंत्री के.पी. अंबाजगन द्वारा सभी तृतीयलिंगी विद्यार्थियों को मनोनमनीम सुंदरारर विश्वविद्यालय, तिरुनेलवेली में मुफ्त शिक्षा देने की घोषणा एक बड़ा कदम है। उम्मीद है इससे शिक्षा जगत से संबद्ध तमाम आयोगों, समितियों, पाठ्यचर्चाओं व पाठ्यक्रमों में तृतीयलिंगियों पर व्याप्त मौन की संस्कृति टूटेगी।
पुखराज जांगिड़
लेखक युवा आलोचक व अनुवादक हैं.
ईमेल – pukhraj.jnu@gmail.com