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‘अब कारवां गुजरने के बाद गुबार देखना मुनासिब नहीं’

साल 2011 का अक्टूबर का महीना था शायद, झारखंड की सांस्कृतिक राजधानी देवघर और हिंदी विद्यापीठ का प्रांगण। सामने मंच पर विराजमान गीत पुरूष कवि गोपालदास नीरज। मेरा पहली बार नीरज जी से सामना हो रहा था। व्हीलचेयर पर बैठे नीरज जी ने सामने उमड़ी भीड़ की निराश नहीं किया। हमें उनकी चिंता थी, लेकिन वो सहसा मंच पर बैठ गए, दो तकिये को घुटने के नीचे दबाया और गर्मजोशी से भीड़ का स्वागत किया। मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य रहा कि जिनके गीतों को रेडियो पर सुनता रहा, आज वो गीतकार मेरे सामने थे। बिना किसी तकल्लुफ के नीरज जी शुरू हो गए। उन्होंने पहली शायरी पढ़ी-

‘इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में,
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में।’

बस, फिर क्या था, गुनगुनी ठंड में उनको सुनने उमड़ी भीड़ ने जोरदार ताली बजाकर उनका इस्तकबाल किया। और, आगाज के साथ ही नीरज जी ने अंजाम की इबारत लिख दी। आज मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं तो आंखें नम हैं और उनके सामने गुजारे गए करीब दो घंटे का वक्त एकाएक दिमाग में कौंधने लगा। नीरज जी से मेरी मुलाकात हमेशा एक बड़ी पूंजी रहेगी। और, जब वो मंच से उतरे तो मैं दौड़कर उनके पांव छूने पहुंच गया। उस वक्त उन्होंने एक बात कही थी, ‘तुम्हारी आंखों में ईमानदारी झलकती है, खुद को मत बदलना। तुम्हें बहुत ठोकरें खानी है, तुम टूटने की हद तक टूट जाओगे, लेकिन याद रखना खुद को मत बदलना।’ यह मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी नीरज जी से।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं।
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और साँस यूं कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं।

हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर।
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे…

 

अब, वक्त को देखिए कितनी तेजी से आगे बढ़ गया है। मैंने उनसे मुलाकात की बातें आज तक याद रखी। किसी को कहने की हिम्मत नहीं जुटाई, क्योंकि लगता था कि कहीं ना कहीं दुनियादारी में लीन लोग इसे नहीं समझ सकेंगे। और, 19 जुलाई को एक ऐसा वाकया कानों में आया कि मैं उसे जब तक जिंदा हूं, भूल नहीं सकता। नीरज जी हमारे बीच नहीं रहे। एम्स में इलाज के दौरान वो हमेशा के लिए हमें छोड़कर चले गए। आज जो कुछ लिख रहा हूं, मेरी उनके लिए श्रद्धांजलि है। मैं उन्हें भरोसा दिलाता हूं कि आखिरी सांस तक उनकी कही गई बातों को याद रखूंगा।

हकीकत में गोपाल दास नीरज एक मुकम्मल कवि थे। गीतकार और पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित कवि गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ भले हमारे बीच ना हों, उनके शब्द हमेशा हमारे सामने रहेंगे। एक समय महफिल और मंचों की शान रहे नीरज जी को कभी भी शोहरत की भूख नहीं रही। उनकी तो हर सांस शब्दों के जरिए कविता, गीत और नगमें रचने में मशगूल रहती थी। एक दफा नीरज जी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘अगर आपकी मौत के बाद आपके गीत लोगों की जुबान पर हों तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान रहेगी।’ और, देखिए नीरज जी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन हर जुबां पर ‘कारवां गुजर गया’ के बोल उमड़ रहे हैं।

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे…

जी हां, नीरज जी की कविता की इन लाइन्स से आप समझ जाएंगे जिंदगी की वो हकीकत जिसे जानते और समझते सभी हैं, लेकिन जब तक अमल में लाते हैं ‘कारवां गुजर जाता है।’ दरअसल, नीरज जी ने जिंदगी के हर पहलु पर लिखा। प्रेम, विरह, संघर्ष से लेकर जिंदगी के उतार-चढ़ाव को भी शब्दों में पिरोया। वो अपनी रचना से मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने का हुनर रखते थे तो निढाल पड़े युवाओं को सहारा देकर जगाते थे कि ‘जागो, अभी उम्र पड़ी है।‘

दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था
तुम्हारे घर का सफर इस कदर सख्त न था।

इतने मसरूफ थे हम जाने की तैयारी में
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था।

मैं जिस की खोज में खुद को खो गया था मेले में
कहीं वो मेरी ही एहसास तो कमबख्त न था।

जो जुल्म सह के भी चुप रह गया न खौल उठा
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था।

जिंदगी की यह हकीकत नीरज जी ही लिख सकते हैं। क्योंकि उन्होंने जिंदगी शिद्दत से जीने का सलीका सीख रखा था। आखिरी सांस तक उन्होंने इस सलीके को शिद्दत से ना सिर्फ जीने का हौसला दिखाया, बल्कि लोगों के बीच हौसले को छितराने से भी नहीं चके।

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।
जिसकी खुशबू से महक जाए पड़ोसी का भी घर
फूल इस किस्म का हर सिम्त खिलाया जाए।
आग बहती है यहां गंगा में झेलम में भी
कोई बतलाए कहां जाके नहाया जाए।
प्यार का खून हुआ क्यों ये समझने के लिए
हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाए।

 

आपको यकीन हो ना हो, नीरज जी एक मुकम्मल गीत पुरूष थे। फिल्मों की बात दरकिनार कर दिया जाए तो भी हम उनकी लेखनी को उस क्षितिज पर पा सकते हैं, जहां जाना किसी असाधारण शख्स के लिए ही मुमकिन है। नीरज जी ने तो जीते-जी मौत की इबारत लिख दी थी। इसका जिक्र उन्होंने एक कविता में भी किया था।

तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा
सफर न करते हुए भी किसी सफर में रहा।

वो जिस्म ही था जो भटका किया जमाने में
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा।

तू ढूंढता था जिसे जा के बृज के गोकुल में
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्मे-तर में रहा।

हजारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में
उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा।

नीरज जी ने प्रेम को ना सिर्फ जीते जी समझा, बल्कि उसे लिखा भी। वो कहा करते थे ‘मैं जो देखता हूं उसे लिखता हूं। जो महसूस करता हूं उसे रचता हूं। जो जीता हूं उसे दुनिया को सिखाता हूं। लेकिन मैं गुरू नहीं बनना चाहता।’ प्रेम को समझते हुए नीरज जी ने लिखा था-

प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया
रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली?
यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो
कौन है जो हंसे फिर चमन में कली?

प्रेम को ही न जग में मिला मान तो
यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है,
आदमी एक चलती हुई लाश है,
और जीना यहां एक अपमान है।

आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए
रात-दिन मैं ढलूं, रात-दिन तुम ढलो।
प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए,
जिस जगह मैं थकूं, उस जगह तुम चलो।

 

जबकि दुखों से घबराने वाले युवाओं के लिए भी नीरज जी के पास शब्द थे। वो हमेशा चाहते थे युवा सबकुछ हार जाएं, लेकिन हिम्मत कभी नही हारें। इसलिए उन्होंने लिखा था –

हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो…

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं,
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो।

नीरज जी जैसे शख्स के लिए कुछ भी लिखना सूरज को दिया दिखाने के जैसा है। लेकिन, आज जब वो हमारे बीच नहीं रहें तो अचानक की-बोर्ड पर उंगलियां चलने लगी। लिखने के दौरान खुद को समझाता भी रहा-

जिस्म दो होके भी दिल एक हों अपने ऐसे
मेरा आंसू तेरी पलकों से उठाया जाए।

गीत उन्मन है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में ‘नीरज’ को बुलाया जाए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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