
घग्गर की साँसें: ट्रैश-रैक से नदी-पुनर्जीवन की नई कहानी
“नदी एक जीवित संस्कृति है, केवल जलधारा नहीं।” भारत की नदियाँ सदियों से न केवल जीवन का आधार रही हैं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना, सभ्यता और सामाजिक विकास की धरोहर भी हैं। ऐसी ही एक नदी है घग्गर, जो हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के भूभागों से बहती है और प्राचीन सभ्यता के अवशेषों की साक्षी रही है। माना जाता है कि यही नदी कभी सरस्वती के रूप में जानी जाती थी, और इसकी घाटी में ही हड़प्पा जैसी महान सभ्यता ने जन्म लिया था। किन्तु समय के साथ-साथ औद्योगीकरण, शहरीकरण और मानव लापरवाही ने इस नदी की सांसों को घुटन में बदल दिया है। विशेष रूप से प्लास्टिक कचरा, जो नदी के जल में मिलकर उसे प्रदूषित करता है, केवल नदी की धारा को नहीं रोकता, बल्कि जल-जीवों, जैव विविधता और आस-पास के गाँवों की जीवन-रेखा को भी खतरे में डाल देता है। आज स्थिति यह है कि नदी जल उपयोग लायक नहीं रहा, और जगह-जगह कचरे के ढेर नदी की धारा को अवरुद्ध कर रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव मानव स्वास्थ्य, कृषि उत्पादन और पर्यावरणीय संतुलन पर पड़ा है। इसके चलते यह आवश्यक हो गया था कि कोई ठोस समाधान अपनाया जाए।
इसी आवश्यकता ने जन्म दिया ‘ट्रैश-रैक’ परियोजना को एक ऐसी पहल, जिसका उद्देश्य घग्गर नदी में बहते प्लास्टिक और ठोस कचरे को रोकना है, ताकि नदी के जल को स्वच्छ किया जा सके और उसका पुनर्जीवन संभव हो सके।
घग्गर नदी उत्तर भारत की एक मौसमी नदी है, जिसका ऐतिहासिक और भूगोलिक महत्व अत्यंत विशिष्ट है। यह नदी हिमाचल प्रदेश के शिमला ज़िले के पास से उद्गमित होती है और हरियाणा, पंजाब तथा राजस्थान होते हुए आगे बहती है। इसका मुख्य प्रवाह हरियाणा और राजस्थान की सीमा क्षेत्रों से गुजरता है और यह कई स्थानों पर ड्राई रिवर (सूखी नदी) के रूप में भी देखी जाती है, क्योंकि वर्षा ऋतु को छोड़कर वर्ष के अधिकांश समय इसमें जल प्रवाह सीमित रहता है।
घग्गर नदी क्षेत्र के कृषि जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत रही है। इसका जल वर्षों तक हरियाणा और राजस्थान के किसानों की सिंचाई जरूरतों को पूरा करता रहा है। इसके आस-पास की जैव विविधता में जल-जीव, पक्षी प्रजातियाँ और जल-जनित वनस्पतियाँ पाई जाती हैं, जो स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाए रखने में सहायक हैं। हालांकि, शहरी अपशिष्ट, प्लास्टिक कचरा और जलस्रोतों पर मानवीय हस्तक्षेप के चलते अब यह नदी भी संकट में है। जल स्तर लगातार घट रहा है, और कई स्थानों पर नदी सिर्फ एक नाला भर रह गई है। प्रदूषण के इस बढ़ते स्तर ने न केवल प्राकृतिक जीवनचक्र को प्रभावित किया है, बल्कि स्थानीय लोगों के जीवन, स्वास्थ्य और कृषि पर भी गहरा प्रभाव डाला है।
ट्रैश-रैक परियोजना: एक समाधान
प्लास्टिक प्रदूषण की गंभीर समस्या से निपटने के लिए ‘ट्रैश-रैक परियोजना’ को एक व्यावहारिक और सशक्त समाधान के रूप में लागू किया गया है। यह परियोजना घग्गर नदी में बहकर आने वाले ठोस कचरे, विशेषकर प्लास्टिक अपशिष्ट, को रोकने के उद्देश्य से शुरू की गई है। ट्रैश-रैक एक विशेष प्रकार की लोहे की जाली या अवरोधक प्रणाली होती है, जिसे नदी के किनारे या जलप्रवाह के बीच में स्थापित किया जाता है ताकि वह बहते हुए प्लास्टिक, पत्तियाँ, बोतलें और अन्य ठोस कचरे को रोक सके।
यह परियोजना हरियाणा राज्य के पंचकूला ज़िले में, घग्गर नदी पर सेक्टर-23 के पास, वर्ष 2024 की शुरुआत में स्थापित की गई। इसमें लोहे की मजबूत छड़ों से बनी जाली संरचना, साइड स्टील सपोर्ट, और साफ-सफाई के लिए लगे क्रेन और मैनुअल हटाने वाली व्यवस्थाएँ शामिल हैं। इसे इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि पानी का प्रवाह बाधित न हो, लेकिन कचरा पूरी तरह रोका जा सके।
इस परियोजना को क्रियान्वित करने में नगर निगम पंचकूला, हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (HSPCB), और जल संसाधन विभाग की अहम भूमिका रही है। इसके अतिरिक्त, स्थानीय स्वयंसेवी संगठन जैसे ‘स्वच्छता साथी’ और ‘ग्रीन पंचकूला’ ने लोगों को जागरूक करने और सफाई अभियानों में भागीदारी निभाने में सहयोग दिया। जन भागीदारी इस परियोजना की आत्मा रही है। क्षेत्रीय निवासी, स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, और वार्ड स्तर पर गठित नागरिक समितियाँ नियमित रूप से कचरा हटाने, निगरानी करने और नदी किनारे सफाई अभियान में भाग ले रही हैं। इस सहभागिता ने न केवल नदी को राहत दी है, बल्कि लोगों में नदी के प्रति उत्तरदायित्व की भावना भी जागृत की है।
इस प्रकार, ट्रैश-रैक परियोजना केवल एक तकनीकी पहल नहीं, बल्कि नदी पुनर्जीवन का एक जन-आंदोलन बनती जा रही है।
ट्रैश-रैक परियोजना को शुरू हुए अभी कुछ ही महीने हुए हैं, लेकिन इसके प्रारंभिक परिणाम आशाजनक और प्रेरणादायक रहे हैं। परियोजना लागू होने के पहले तीन महीनों में ही करीब 8 से 10 टन प्लास्टिक कचरा घग्गर नदी में बहने से रोका गया है, जो पहले सीधे नदी की धारा में समा जाते थे। इस रोकथाम के चलते नदी के जल में प्रदूषण स्तर में कमी देखने को मिली है। हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा किए गए जल गुणवत्ता परीक्षणों में जैविक ऑक्सीजन मांग (BOD) और रासायनिक ऑक्सीजन मांग (COD) के स्तर में गिरावट दर्ज की गई है। इससे यह संकेत मिला है कि नदी का पारिस्थितिक तंत्र धीरे-धीरे पुनर्जीवित हो रहा है। स्थानीय नागरिकों ने भी इस परिवर्तन को महसूस किया है। पंचकूला के आसपास रहने वाले लोगों का कहना है कि अब नदी किनारे बदबू कम हुई है, और बच्चे दोबारा किनारे खेलते दिखाई देने लगे हैं। कई नागरिक स्वयंसेवक के रूप में भी इस सफाई अभियान से जुड़ चुके हैं।
मीडिया ने भी इस पहल को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है, और इसे “हरियाणा का मिनी क्लीन-गंगा मॉडल” तक कहा गया। प्रशासन और पर्यावरणविदों ने इसे एक प्रभावी पहल मानते हुए सुझाव दिया है कि इसी तरह की तकनीक अन्य प्रदूषित नदियों में भी लागू की जाए, हालाँकि इस परियोजना के सामने कई व्यावहारिक चुनौतियाँ और सीमाएँ भी हैं।
सबसे बड़ी चुनौती मानसून के दौरान आती है, जब भारी बारिश के कारण नदी में जल का वेग और बहाव बहुत तेज़ हो जाता है। ऐसी स्थिति में ट्रैश-रैक पर कचरे का अत्यधिक जमाव हो जाता है, जिससे उसकी संरचना पर दबाव बढ़ता है और कभी-कभी पानी का प्रवाह अवरुद्ध होकर बाढ़ जैसी स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है।
इसके अलावा, परियोजना के नियमित रखरखाव और सफाई के लिए पर्याप्त संसाधन और तकनीकी दक्षता की आवश्यकता होती है। मशीनरी, श्रमिकों और दैनिक निगरानी के लिए स्थायी फंडिंग एक चुनौतीपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। कई बार उपकरणों की मरम्मत में विलंब और समन्वय की कमी से कार्य प्रभावित होता है।
जन सहभागिता की कमी और जन जागरूकता का अभाव भी इस प्रयास को सीमित कर रहे हैं। बहुत से नागरिक अभी भी नदी में कचरा फेंकना जारी रखते हैं, और उनके व्यवहार में बदलाव लाने के लिए निरंतर शिक्षा और जागरूकता की आवश्यकता है। यदि इन चुनौतियों का समाधान नहीं किया गया, तो परियोजना की दीर्घकालिक सफलता सुनिश्चित करना कठिन हो सकता है।
ट्रैश-रैक परियोजना ने जो सकारात्मक शुरुआत की है, उसे और प्रभावशाली और दीर्घकालिक बनाने के लिए कई उपाय जरूरी हैं। सबसे पहले, ट्रैश-रैक प्र णाली को सौर ऊर्जा से चलित स्वचालित क्लीनिंग सिस्टम के साथ संयोजित किया जा सकता है। इससे न केवल कचरा रोकने की क्षमता बढ़ेगी, बल्कि रखरखाव में भी आसानी आएगी, और पर्यावरण के प्रति प्रभाव भी न्यूनतम होगा। इसके साथ ही, पूरे क्षेत्र में अपशिष्ट प्रबंधन नीति में सुधार की सख्त जरूरत है। प्लास्टिक और अन्य ठोस कचरे का सही तरीके से संग्रहण, पुनर्चक्रण और निस्तारण सुनिश्चित करने के लिए नगर निगम और स्थानीय प्रशासन को आधुनिक तकनीकों को अपनाना होगा। नदियों के किनारे कचरा डालने पर कड़े नियम और सख्त कार्यवाही की आवश्यकता है। जन-जागरूकता बढ़ाने के लिए स्कूली शिक्षा में पर्यावरण विषयों को सशक्त करना और नियमित सामुदायिक कार्यक्रमों का आयोजन करना बेहद महत्वपूर्ण है। सामूहिक सफाई अभियानों और जागरूकता अभियान से नदी की सुरक्षा को समाज का साझा लक्ष्य बनाया जा सकता है। दीर्घकालिक दृष्टिकोण से, नदी के जल-प्रवाह को सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि प्राकृतिक जलचक्र बना रहे। इसके लिए जैविक ट्रीटमेंट संयंत्र स्थापित कर प्रदूषित जल का शोधन किया जाना चाहिए, जिससे नदी का जल पुनः उपयोगी बन सके। साथ ही, नदी के आस-पास हरियाली बढ़ाने और सघन वनरोपण से पारिस्थितिक संतुलन स्थापित किया जा सकता है।
इस प्रकार, तकनीकी नवाचार, मजबूत नीति, जनसहभागिता और सतत प्रयासों से ही घग्गर नदी का स्थायी पुनर्जीवन संभव है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवनदायिनी बनकर रहेगी।
ट्रैश-रैक परियोजना घग्गर नदी के संरक्षण और पुनर्जीवन की दिशा में एक छोटी लेकिन प्रभावशाली पहल साबित हुई है। यह परियोजना दर्शाती है कि सही तकनीकी उपायों के साथ यदि स्थानीय प्रशासन, पर्यावरणविद और आम नागरिक मिलकर काम करें, तो प्रदूषित नदियों को पुनः जीवनदान दिया जा सकता है।यह प्रयास हमें याद दिलाता है कि नदी पुनर्जीवन केवल सरकार का कार्य नहीं, बल्कि समाज की साझा जिम्मेदारी है। इसी साझा दृष्टिकोण और समर्पण से ही घग्गर नदी की नई कहानी लिखी जा सकती है।