
बड़ी पूँजी और कार्पोरेटीकरण का दबदबा, जन सरोकारों से बढ़ती दूरी और सिकुड़ता लोकतन्त्र
हिन्दी पत्रकारिता के 200 साल
क्या 200 साल की उम्र पूरा करने जा रही और इस लंबे जीवनकाल में अनेकों उतार-चढ़ाव देख चुकी हिन्दी पत्रकारिता का यह ‘स्वर्ण युग’ है? जानेमाने सम्पादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने 90 के दशक में ही यह एलान कर दिया था कि यह हिन्दी पत्रकारिता का ‘स्वर्ण युग’ है। कई और सम्पादक और विश्लेषक भी उनसे सहमत रहे हैं। उनका तर्क रहा है कि आज की हिन्दी पत्रकारिता हिन्दी न्यूज मीडिया उद्योग के विकास और विस्तार खासकर 90 के दशक के आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के बाद पहले से ज्यादा समृद्ध हुई है।
उनका दावा है कि हिन्दी पत्रकारिता के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि हुई है। वह ज्यादा प्रोफेशनल हुई है। अखबारों के पन्ने बढ़े हैं, छपाई बेहतर हुई है, रंगीन पन्ने और सप्लीमेंट्स बढ़े हैं। उसके कवरेज (बीट) का दायरा और विषयों की विविधता बढ़ी है। पत्रकारों की बड़ी संख्या प्रशिक्षित है, उनके विषय और तकनीकी ज्ञान में वृद्धि हुई है, विशेषज्ञता के साथ उनके वेतन और सेवाशर्तों में उल्लेखनीय सुधार आया है और उनका आत्मविश्वास बढ़ा है।
हिन्दी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ के पक्षधरों के मुताबिक, न्यूज चैनलों की लोकप्रियता, विस्तार और प्रभाव ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी है। हिन्दी न्यूज चैनलों और कुछ बड़े हिन्दी अखबारों के सम्पादक/एंकर आज मीडिया जगत के बड़े स्टार हैं। उनमें से कुछ की लाखों-करोड़ों में सैलरी है। इसमें कोई शक नहीं है कि इनमें से कई दावे और तथ्य सही हैं लेकिन उन्हें एक परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की जरूरत है। इनमें से कई दावे और तथ्य 1977 से पहले की हिन्दी पत्रकारिता की तुलना में बेहतर दिखते हैं लेकिन वे तुलनात्मक हैं।
दूसरे, इनमें से अधिकतर दावे और तथ्य हिन्दी मीडिया कम्पनियों के ‘स्वर्णकाल’ की पुष्टि करते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि वे हिन्दी पत्रकारिता के बारे में भी उतने ही सच हों। क्या हिन्दी अखबारों का रंगीन होना, ग्लासी पेपर, बेहतर छपाई और उनका बढ़ता सर्कुलेशन या हिन्दी चैनलों के प्रभाव और ग्लैमर को हिन्दी पत्रकारिता के बेहतर होने का प्रमाण माना जा सकता है?
हिन्दी पत्रकारिता को पहचान देनेवाले बाबूराव विष्णुराव पराडकर के आज़ादी के पहले दिए गए ‘आछे दिन, पाछे गए’ वाले मशहूर भाषण को याद कीजिए जिसमें उन्होंने आज से कोई 85 साल पहले भविष्यवाणी कर दी थी कि भविष्य के अखबार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी। सवाल यह है कि जिसे पत्रकारिता का ‘स्वर्णयुग’ बताया जाता है, उसके कई उल्लेखनीय और सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करने के बावजूद क्या यह सही नहीं है कि उसमें “आत्मा” नहीं है?
अंग्रेजी के मशहूर लेखक आर्थर मिलर ने कभी एक अच्छे अखबार की परिभाषा करते हुए कहा था कि, ‘अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता है।’ क्या हमारे आकर्षक-रंगीन-प्रोफेशनल, मल्टी-एडीशन, कार्पोरेट हिन्दी अखबारों और बड़े न्यूज चैनलों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई देता है? क्या आज की हिन्दी पत्रकारिता में पूरा देश, उसकी चिंताएं, उसके सरोकार, उसके मुद्दे और विचार दिखाई या सुनाई देते हैं? क्या हिन्दी अखबारों में गाँवों, किसानों, खेती और उनके मुद्दों और कारखानों-मजदूरों और श्रमिक मामलों की रिपोर्टिंग दिखती है?
कितने हिन्दी के अखबार/चैनल या उनके पत्रकार पूर्वोत्तर भारत, कश्मीर, उडीसा, दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से जमीनी रिपोर्टिंग कर रहे हैं? मुख्यधारा की यह हिन्दी पत्रकारिता कितनी समावेशी और लोकतांत्रिक है? उनकी कवरेज और उनके न्यूजरूम में देश की सांस्कृतिक, एथनिक, भाषाई, जाति-वर्ग, धार्मिक विविधता और विचारों, मुद्दों, सरोकारों की बहुलता किस हद तक दिखती है? तात्पर्य यह कि उसमें भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों खासकर दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की कितनी भागीदारी है?
हिन्दी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ में हिन्दी क्षेत्र के कितने जिला मुख्यालयों पर पूर्णकालिक महिला पत्रकार काम कर रही हैं? कितने हिन्दी अखबारों और चैनलों की सम्पादक महिला या फिर दलित या अल्पसंख्यक हैं? क्या हिन्दी पत्रकारिता के ‘स्वर्णयुग’ का मतलब सिर्फ पुरुष और वह भी समाज के अगड़े वर्गों से आनेवाले पत्रकार हैं? यह “स्वर्ण-युग” है या “सवर्ण-युग”? यही नहीं, हिन्दी अखबारों और चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों के वेतन और सेवाशर्तों में सुधार का दायरा सिर्फ चुनिंदा अखबारों/चैनलों और उनके दिल्ली और कुछ हद तक राज्यों की राजधानियों के मुट्ठी भर पत्रकारों तक सीमित है।
कड़वी सच्चाई यह है कि छोटे-मंझोले से लेकर देश के सबसे ज्यादा पढ़े/देखे जानेवाले अखबारों/चैनलों के हजारों स्ट्रिंगरों के वेतन और सेवाशर्तों में कोई खास सुधार नहीं आया है। वह अभी भी अन्धकार युग में हैं जहाँ वे बिना नियुक्ति पत्र, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा के काम करने को मजबूर हैं। उन्हें सांस्थानिक तौर पर भ्रष्ट होने और दलाली करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले 35 सालों में खासकर 1991 की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के साथ भारतीय मीडिया उद्योग का जबरदस्त विस्तार हुआ है। दुनिया के बहुत कम देशों में मीडिया उद्योग का इतनी तेजी से विस्तार हुआ है। खुद सरकारी और उद्योग जगत के आकलनों के मुताबिक, इस दौरान भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग की औसत सालाना वृद्धि की दर भारतीय अर्थव्यवस्था की औसत सालाना वृद्धि दर से लगभग डेढ़ गुने से ज्यादा रही है। इस दौरान प्रिंट मीडिया उद्योग की वृद्धि दर भी औसतन 7-10 फीसदी तक रही। हिन्दी अखबार और पत्रिकाएं भी इसी प्रिंट मीडिया उद्योग का हिस्सा हैं।
हालांकि पिछले कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था की सुस्त पड़ती रफ्तार के साथ मीडिया और मनोरंजन उद्योग और खासकर प्रिंट मीडिया उद्योग की वृद्धि दर भी सुस्त हो गई है। इसके बावजूद वैश्विक कंसल्टेंसी कंपनी- अर्नेस्ट एंड यंग की ताज़ा रिपोर्ट (मई, 25) के मुताबिक, भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग वर्ष 2024 में 2.5 खरब रूपए (29.4 अरब डालर) तक पहुँच गया। हालांकि इसका भारत की जीडीपी में योगदान सिर्फ 0.73 फीसदी है लेकिन अगले तीन-चार सालों तक इसके 7 फीसदी की सालाना वृद्धि दर के साथ बढ़कर 3.4 खरब रूपये का उद्योग हो जाने का अनुमान है।
साफ है कि आज मीडिया और मनोरंजन कारोबार न सिर्फ एक विशालकाय उद्योग में तब्दील हो चुका है बल्कि एक ऐसा आकर्षक उद्योग बन चुका है जो अच्छी-खासी मात्रा में बड़ी देशी-विदेशी पूँजी भी आकर्षित कर रहा है। इसके साथ ही, पिछले एक दशक में भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग में सबसे बड़ा बदलाव उसके स्वामित्व के ढांचे में आया है। उत्तर उदारीकरण दौर से पहले इक्का-दुक्का बड़े औद्योगिक समूहों को छोड़कर अधिकांश मामलों में मीडिया खासकर प्रिंट मीडिया उद्योग मूलतः पारंपरिक, निजी पारिवारिक स्वामित्व वाले मंझोले कारोबार की तरह था जो 1991 के उदारीकरण के बाद बड़ी देशी-विदेशी पूँजी के प्रवेश के साथ आज एक संगठित और बड़े कारपोरेट उद्योग में तब्दील हो चुका है।
भारतीय मीडिया के सन्दर्भ में दूसरी सबसे महत्वपूर्ण परिघटना उसका ग्लोबल मीडिया के साथ एकरूप होना है। पिछले ढाई दशकों में पहले एन.डी.ए और बाद में यू.पी.ए सरकार के कार्यकाल में मीडिया खासकर समाचार मीडिया में विदेशी पूँजी निवेश और बड़ी विदेशी मीडिया कम्पनियों को प्रवेश की इजाजत दी गई। याद रहे कि इससे पहले 1955 के कैबिनेट नोट के जरिये देशी समाचार मीडिया (अखबारों और न्यूज चैनलों) में विदेशी पूँजी निवेश या विदेशी समाचार माध्यमों के कारोबार पर प्रतिबन्ध लगा हुआ था।
हालांकि समाचार मीडिया में यह इजाजत 26 प्रतिशत विदेशी निवेश तक सीमित है लेकिन मनोरंजन आधारित मीडिया में सरकारी अनुमति से 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश की इजाजत है। इस कारण मनोरंजन से लेकर समाचार मीडिया में दुनिया की लगभग सभी बड़ी मीडिया कम्पनियाँ स्वतन्त्र रूप से या भारतीय मीडिया कम्पनियों के साथ साझेदारी में या फिर प्रमुख भारतीय मीडिया कम्पनियों में निवेश के जरिये भारतीय कारोबार में प्रवेश कर चुकी हैं।
भारतीय मीडिया उद्योग के स्वामित्व में एक और बड़ा बदलाव यह आया है कि आज देश के दो सबसे बड़े औद्योगिक समूह- मुकेश अंबानी की रिलायंस/जियो और गौतम अडाणी का अडाणी समूह मनोरंजन और समाचार मीडिया के सबसे बड़े खिलाड़ी बन चुके हैं। दूसरी ओर, पारंपरिक समाचार मीडिया कम्पनियों ने आईपीओ के जरिए भारतीय शेयर बाजार और विदेशी मीडिया समूहों या विदेशी पूँजी के साथ गठजोड़ से पूँजी जुटाने और समाचार मीडिया से इतर दूसरे उद्योगों जैसे रीयल इस्टेट, सीमेंट, खनन, चीनी मिल, उर्जा-बिजली, उच्च शिक्षा आदि क्षेत्रों में पैर फैलाना शुरू कर दिया है।
नतीजा, भारतीय समाचार मीडिया के साथ हिन्दी समाचार मीडिया भी आज एक बड़े कारपोरेट उद्योग में बदल चुका है। अधिकांश मामलों में वह या तो बड़े कारपोरेट समूह का हिस्सा बन चुका है या उसमें बड़े कारपोरेट समूहों का निवेश है या फिर वह खुद मीडिया उद्योग के साथ-साथ अन्य उद्योग-धंधों और कारोबार में प्रवेश करने के साथ कार्पोरेट में तब्दील हो गया है। आज मुख्यधारा के समाचार मीडिया के स्वामित्व और प्रबंधन को बड़ी पूँजी और कारपोरेट संस्कृति से अलग करके नहीं देखा जा सकता है।
आज दर्जनों बड़ी और मँझोली मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाजार में लिस्टेड कम्पनियाँ हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी क्षेत्र की तीन बड़ी समाचार मीडिया कम्पनियों- जागरण समूह, दैनिक भास्कर समूह और दैनिक हिंदुस्तान को लीजिए जो शेयर बाजार में लिस्टेड हैं। 23 मई 2025 के शेयर बाजार पूँजीकरण के लिहाज से दैनिक भास्कर समूह 4200 करोड़, जागरण प्रकाशन 1650 करोड़ रूपए, हिंदुस्तान मीडिया 676 करोड़ रूपए की कम्पनियाँ हैं। इसी तरह प्रमुख हिन्दी टीवी न्यूज चैनलों का बाजार पूँजीकरण इस प्रकार है: नेटवर्क-18 (रिलायंस समूह)- 7528 करोड़ रूपए; एनडीटीवी (अडाणी समूह)- 1040 करोड़ रूपए; टीवी टुडे (आज तक और इंडिया टुडे आदि)- 1022 करोड़ रूपए; जी मीडिया (जी न्यूज)- 904 करोड़ रूपए।
यहाँ गौर करने की बात यह है कि नेटवर्क-18, रिलायंस समूह की अपेक्षाकृत बहुत छोटी कंपनी है। खुद रिलायंस का बाजार पूँजीकरण 19.30 लाख करोड़ रूपए है। दूसरी ओर, एनडीटीवी, अडाणी समूह की सबसे छोटी और मामूली कंपनी है जिसे समूह ने मुख्यतः राजनीतिक प्रभाव के लिए खरीदा है। अडाणी समूह की कई कम्पनियाँ हैं जिनमें अकेले अडाणी एंटरप्राइज का बाजार पूँजीकरण 2.92 लाख करोड़ रूपए है। हिन्दी समाचार मीडिया कम्पनियों की तुलना में रिलायंस और अडाणी समूह की आर्थिक-वित्तीय ताकत इतनी अधिक है कि वे अकेले कई समाचार मीडिया कम्पनियों को खरीद या उनका टेक-ओवर कर सकते हैं, जैसे अडाणी समूह ने एनडीटीवी और रिलायंस ने 2014 में नेटवर्क-18 का किया था।
पूँजीवाद का यह स्वाभाविक चरित्र है कि विकासक्रम में बड़ी मछलियाँ, छोटी मछलियों को खा जाती हैं और बड़ी कम्पनियाँ और बड़ी होती चली जाती हैं। अमेरिका समेत दुनिया के अधिकांश विकसित उदार पूँजीवादी देशों में पिछले 60-65 वर्षों में छोटी मीडिया कम्पनियाँ लगातार खत्म होती चली गई हैं और बड़ी मीडिया कम्पनियाँ और बड़ी होती गई हैं या बड़े कार्पोरेट समूहों ने उन्हें खरीद लिया है। भारतीय मीडिया उद्योग भी इसका अपवाद नहीं है।
इस सिलसिले में, सबसे पहले कुछ तथ्यों पर गौर कीजिये:
- प्रेस काउन्सिल की समाचारपत्र उद्योग की स्थिति’2007 रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 22 भाषाओँ में 62000 हजार से अधिक रजिस्टर्ड समाचारपत्र और पत्रिकाएं थीं जिनमें लगभग 6800 दैनिक समाचारपत्र थे। लेकिन वास्तविकता यह है कि इनमें से सिर्फ 14 बड़े समाचारपत्र/मीडिया कम्पनियों का अख़बारों के कुल सर्कुलेशन के दो-तिहाई और कुल राजस्व के तीन-चौथाई हिस्से पर कब्ज़ा था। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2007 में इन समाचारपत्र समूहों की वृद्धि दर 8 से 22 फीसदी के बीच थी। जितना बड़ा समाचारपत्र समूह, उतनी अधिक वृद्धि दर। सबसे अधिक 22 प्रतिशत की वृद्धि दर बेनेट, कोलमैन कंपनी (टाइम्स समूह) की थी। उसके बाद क्रमश: एच.टी मीडिया की वृद्धि दर 20 प्रतिशत, जागरण प्रकाशन 18 प्रतिशत और आनंद बाजार पत्रिका और कस्तूरी एंड संस (हिंदू) 20-20 प्रतिशत रही थी।
- इसी तरह, टेलीविजन उद्योग में वैसे तो 400 से अधिक न्यूज और करेंट अफेयर्स चैनल और 100 से अधिक कम्पनियाँ हैं लेकिन यहाँ भी कुल दर्शक संख्या और राजस्व के 80 प्रतिशत पर 10 से कम देशी-विदेशी टी.वी/मीडिया कम्पनियों का दबदबा है।
भारतीय समाचारपत्र और टेलीविजन उद्योग पर हावी इन सभी कम्पनियों में लगभग नौ कम्पनियों- नेटवर्क-18 (रिलायंस), एनडीटीवी (अडाणी समूह), बेनेट कोलमैन, इंडिया टुडे समूह, सन टीवी समूह, जी टीवी, मलयालम मनोरमा समूह, ए.बी.पी समूह और लोकमत समूह का दोनों- अखबार और टीवी या उससे अधिक मीडिया-डिजिटल प्लेटफार्म पर कब्ज़ा है। इनके अलावा इंडियन एक्सप्रेस और न्यूज इंडियन एक्सप्रेस समूह, एचटी मीडिया (हिंदुस्तान टाइम और हिंदुस्तान), कस्तूरी एंड संस (द हिन्दू), अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, गुजरात समाचार, सकाल, डेक्कन हेराल्ड जैसी कोई दस और समाचार मीडिया कम्पनियाँ हैं। इनके अलावा गूगल, मेटा (फ़ेसबुक), सोनी, नेटफ्लिकस, अमेजन, टाटा (टाटा स्काई), भारती टेलिकाम (एयरटेल) जैसी कुछ बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ टी.वी और डिजिटल मीडिया के वितरण से लेकर कार्यक्रम निर्माण तक को नियंत्रित करती हैं।
इस तरह कुल लगभग 25 देशी-विदेशी कम्पनियों का विशाल भारतीय मीडिया बाजार खासकर समाचार मीडिया के 90 फीसदी से अधिक कारोबार पर कब्जा है। इस दबदबे का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इन बड़ी भारतीय और विदेशी मीडिया कम्पनियों के बीच क्रास मीडिया निवेश, रणनीतिक साझेदारी और संयुक्त उपक्रम बढ़ते जा रहे हैं। मीडिया कम्पनियों में इस तरह के समझौतों और गठजोड़ के बढ़ते जाने का मतलब यह है कि आपसी प्रतियोगिता के बावजूद इन कम्पनियों के बीच साझेदारी मीडिया बाजार की बहुलता और विविधता को खत्म करके एक तरह अल्पाधिकार (ओलिगोपोली) कायम कर रही है।
इसका सबसे बाद उदाहरण है- बीते साल अमेरिकी मीडिया कंपनी डिज़्नी (स्टार) और रिलायंस के विलय के बाद जियो-स्टार जो अब भारत की सबसे बड़ी और ताकतवर मीडिया कंपनी बन गई है। चूंकि जियो स्टार अभी शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी नहीं है, इसलिए उसकी बाजार कीमत तय करना मुश्किल है लेकिन कुछ आंकड़ों से उसकी आर्थिक-वित्तीय ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। जियो स्टार ने बीते साल 10006 करोड़ रूपए का राजस्व कमाया। इसके ओटीटी प्लेटफार्म- जियो हाटस्टार के 20 करोड़ से अधिक पेड सब्सक्राइबर हैं और यह नेटफ्लिकस और अमेजन प्राइम के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बाद ओटीटी प्लेटफार्म है। इस वित्तीय वर्ष में जियो स्टार का सिर्फ कंटेन्ट बनाने का बजट 33 हजार करोड़ रूपए का है।
सच यह है कि आज जियो स्टार के सामने सभी मीडिया कम्पनियाँ बौनी हो गई हैं। यह राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय मीडिया उद्योग में बढ़ते एकाधिकार (मोनोपॉली) और क्षेत्रीय (भाषाई) मीडिया उद्योग में अल्पाधिकार (ऑलिगोपोली) का सूचक है। इसका नतीजा यह होगा कि आनेवाले वर्षों में कई छोटी-मँझोली मीडिया कम्पनियों के लिए प्रतियोगिता में टिकना मुश्किल हो जाएगा।
उदाहरण के लिए, हिन्दी क्षेत्र में ही देखिए तो कई छोटे-मंझोले अखबार पिछले तीन-साढ़े तीन दशकों में बंद हो गए या बंद होने के कगार पर हैं। उदाहरण के लिए, बिहार में आर्यावर्त और इंडियन नेशन, प्रदीप और सर्चलाईट, जनशक्ति जैसे प्रतिष्ठित और व्यापक प्रसार वाले अखबार बंद हो गए या बड़ी कम्पनियों द्वारा खरीदकर बंद कर दिए गए। इसी तरह, उत्तर प्रदेश में अमृत प्रभात, एन.आई.पी, आज, स्वतन्त्र भारत, जनमोर्चा, जनवार्ता, स्वतन्त्र चेतना जैसे कई अखबार या तो बंद हो गए हैं या फिर किसी तरह चल रहे हैं लेकिन उनकी उम्र बहुत लंबी नहीं है।
राजस्थान में यही हाल नवज्योति का है। झारखंड में रांची एक्सप्रेस का कोई नामलेवा नहीं है। मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ में नवभारत, देशबंधु, जागरण, नई दुनिया जैसे अखबार संकट में हैं या बड़ी मीडिया कम्पनियों ने उन्हें खरीद लिया है। हिन्दी क्षेत्र के अखबारों के बाजार पर मुख्यतः दो बड़ी कम्पनियों- जागरण और दैनिक भास्कर कब्जा है जबकि हिन्दी क्षेत्र के कुछ राज्यों में दैनिक हिंदुस्तान, अमर उजाला और राजस्थान पत्रिका मुकाबले में हैं। इस तरह कुल पाँच बड़ी मीडिया कम्पनियाँ हिन्दी क्षेत्र के कोई नौ राज्यों के बाजार पर काबिज हैं।
विभिन्न भाषाई क्षेत्रों या राज्यों में एकाधिकारवादी प्रवृत्तियां साफ देखी जा सकती हैं। कम से कम छह ऐसे राज्य हैं जहाँ एक बड़ी मीडिया कंपनी का बढ़ता दबदबा साफ देखा जा सकता है। इसके अलावा, लगभग इतने ही राज्यों में स्पष्ट तौर पर दो बड़ी मीडिया कम्पनियों का दबदबा कायम हो चुका है जबकि हिन्दी क्षेत्र के दो महत्वपूर्ण राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार समेत लगभग आठ राज्य ऐसे हैं जहाँ कुछ बड़े राज्यों में तीन और छोटे राज्यों में दो बड़ी मीडिया कम्पनियों का प्रिंट मीडिया बाजार पर कब्ज़ा है।
साफ है कि भारतीय मीडिया उद्योग के विस्तार और विकास के बावजूद खिलाड़ियों की संख्या न सिर्फ घटती जा रही है बल्कि मीडिया परिदृश्य लगातार संकीर्ण होता जा रहा है।
स्थिति यह हो गई है कि समाचारपत्र उद्योग में जारी तीखी प्रतियोगिता और बड़ी पूँजी के बढ़ते दबाव के कारण छोटे, मंझोले और यहाँ तक कि कुछ बड़े अखबारों के लिए भी इस होड़ में टिकना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। कारोबारी रूप से भी डिजिटल के तेजी से विस्तार, विज्ञापनों के बड़े हिस्से का डिजिटल की ओर मुड़ना और कोविड महामारी के दौरान सर्कुलेशन में आई भारी गिरावट ने ज्यादातर प्रिंट मीडिया कम्पनियों को मुश्किल में डाल दिया है।
अर्नेस्ट एंड यंग की मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट (मार्च, 2025) के अनुमानों के मुताबिक, प्रिंट मीडिया उद्योग की अगले चार वर्षों (2024-27) में सालाना औसतन वृद्धि दर एक फीसदी से भी कम, लगभग 0.9 फीसदी रहेगी। इस दौरान टीवी उद्योग की सालाना औसतन वृद्धि दर नकारात्मक (-) 0.6 फीसदी रहेगी। इन दोनों की तुलना में पूरे मीडिया और मनोरंजन उद्योग की सालाना औसतन वृद्धि दर 7 फीसदी और डिजिटल मीडिया की वृद्धि दर 11.2 फीसदी रहेगी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अखबारों और न्यूज चैनलों के लिए आनेवाले दिन आर्थिक-वित्तीय रूप से कितने मुश्किल रहनेवाले हैं।
निश्चय ही, इसका समाचार मीडिया उद्योग और उसके साथ पत्रकारिता खासकर हिन्दी पत्रकारिता पर कई स्तरों पर गम्भीर और नकारात्मक असर पड़ेगा। पहला, आनेवाले वर्षों में समाचारपत्र उद्योग में अधिग्रहण और विलयन (खरीद-बिक्री और आपसी गठबंधन) की प्रक्रिया तेज होगी। इस तरह समाचारपत्र उद्योग में कंसोलिडेशन और एकाधिकार बढ़ेगा। दूसरा, प्रतियोगिता और कारोबार में बने रहने के लिए हिन्दी समाचार मीडिया कम्पनियों की सत्ता के साथ निकटता और उसके समर्थन पर निर्भरता और बढ़ेगी। विज्ञापन राजस्व और मीडिया इवेंट्स के स्पॉन्सर के मुख्य स्रोत के बतौर केंद्र और राज्य सरकारें और दूसरी ओर, बड़ी कम्पनियाँ उन्हें नियंत्रित करेंगी।
तीसरा, इसका सीधा प्रभाव उनकी पत्रकारिता पर पड़ेगा। हालांकि उसके संकेत पिछले डेढ़-दो दशक से दिखने लगे थे। लेकिन आनेवाले सालों में वह और खुलकर सत्ता और बड़े कार्पोरेट्स के अनुकूल पीआर और प्रोपैगंडा करती दिखाई देगी। दूसरी ओर, इक्का-दुक्का कुछ हद तक स्वतन्त्र अखबारों/न्यूज चैनलों को स्वतन्त्र खासकर सत्ता और कार्पोरेट के गठजोड़ के बारे में थोड़ी क्रिटिकल रिपोर्टिंग और टिप्पणी करने पर सत्ता समर्थित बड़ी मीडिया कम्पनियों की ओर से आक्रामक टेक-ओवर का सामना करना पड़ सकता है। इसे दुनिया भर में “मीडिया कैप्चर” की परिघटना के रूप में जाना जाता है।
चौथे, बड़ी मीडिया और कार्पोरेट्स के साथ प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए बाकी समाचार मीडिया कम्पनियों पर भी शेयर बाजार से पूँजी जुटाने और कार्पोरेटीकरण का दबाव बढ़ेगा। लेकिन इसके अपने खतरे हैं। दरअसल, 1991 के बाद से मीडिया कम्पनियों के कार्पोरेटीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इसमें कई छोटी-मँझोली कम्पनियों ने शेयर बाजार से आईपीओ के जरिए पूँजी जुटाई। इस पूँजी से कम्पनियों ने अपना विस्तार किया। लेकिन उनपर अपने शेयरों की ऊंची कीमत बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक मुनाफा कमाने और अपने देशी-विदेशी निवेशकों को ज्यादा से ज्यादा लाभांश देने का दबाव भी बढ़ता गया।
इस दबाव में मीडिया कम्पनियों ने पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों के साथ समझौते, उन्हें दरकिनार करके खबरों को बेचने (पेड न्यूज) से लेकर पीआर रिपोर्टिंग शुरू कर दी। बड़ी कम्पनियों और सरकारों से विज्ञापनों और स्पॉन्सरशिप के लिए समझौते शुरू कर दिए। क्रिटिकल रिपोर्टिंग और खोजी पत्रकारिता किनारे कर दी गई। सत्ता और कार्पोरेट के अनुकूल और पक्ष में रिपोर्टिंग और नकारात्मक खबरों को दबाने या किनारे करने पर जोर दिया जाने लगा। बड़े और मँझोले कार्पोरेट्स के साथ मीडिया कम्पनियों के व्यावसायिक समझौते (मीडिया ट्रीटी) आम हो गए।
पांचवें, जैसे-जैसे छोटे और मंझोले अख़बार और चैनल कमजोर होंगें या बंद होंगे, समाचार मीडिया में विविधता और बहुलता और कम होगी। जब कुछ ही अखबार और चैनल समूह होंगे तो पाठकों/दर्शकों को उतना सीमित-संकीर्ण विचार, दृष्टिकोण और कवरेज मिलेगी। साथ ही, एकाधिकार या अल्पाधिकार की स्थिति में कुछ ही मीडिया समूहों यानि उनके अखबारों/चैनलों/न्यूज पोर्टलों के बीच प्रतियोगिता होने के कारण रिपोर्टिंग/विश्लेषण की गुणवत्ता में वृद्धि या सुधार के बजाय एक-दूसरे के सफल फार्मूलों की नक़ल बढ़ जाती है।
टीवी में यह नक़ल बिलकुल साफ दिखती है जहाँ सभी न्यूज चैनल एक ही लाइन, एंगल और विषय के साथ रिपोर्टिंग और बहसें करते हैं। अब अखबारों में भी धीरे-धीरे फर्क खत्म होता जा रहा है। हिन्दी के इन चैनलों और अखबारों में मौलिकता, नयापन, विचारों और कवरेज-कंटेंट के स्तर पर विविधता और बहुलता लगातार समाप्त होती जा रही है। वे शासक वर्गों की सबसे प्रतिबद्ध आवाज़ बन गए हैं जिसमें प्रतिरोधी विचार और आवाजें लगातार हाशिए पर धकेली जा रही हैं। वे खुले तौर पर नव उदारवादी अर्थनीति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के पैरोकार बन गए हैं।
इस कारण, वैचारिक तौर पर लगातार संकीर्ण, सीमित और दरिद्र होता हिन्दी पब्लिक स्फीयर काफी हद तक प्रदूषित हो चुका है। इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में स्वतन्त्र, खोजी और क्रिटिकल पत्रकारिता के बजाय सूचनाओं और विचारों की तोड़-मरोड़ (मैनिपुलेशन) और प्रोपेगंडा हावी है। यहाँ सूचनाओं और विचारों के स्वतन्त्र और मुक्त प्रवाह की गुंजाइश लगातार खत्म होती जा रही है बल्कि उन्हें बाधित और नियंत्रित किया जा रहा है।
इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में ‘पब्लिक’ नहीं रह गई है। इसमें करोड़ों गरीबों, कमजोर लोगों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कम या कोई जगह नहीं है। इसमें सिर्फ 10-15 करोड़ अमीर और मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं के लिए जगह है। इसमें उनकी ही बात होती है और वे ही बोलते सुनाई देते हैं। जब गरीबों और कमजोर वर्गों की बात होती है तो इन प्रभावशाली अमीर और मध्यमवर्गीय उपभोक्ताओं के नजरिये से होती है। हिन्दी पत्रकारिता की अपनी मूल पहचान भी खतरे में है। वह न सिर्फ अंग्रेजी के अंधानुकरण में लगी हुई है बल्कि उसकी दिलचस्पी केवल अपमार्केट उपभोक्ताओं में है।
उसे उस विशाल हिन्दी समाज के गरीबों की चिंताओं की कोई परवाह नहीं है जो हाशिए पर हैं, बेहतर जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहते हैं। लेकिन मुख्यधारा की हिन्दी पत्रकारिता को उसकी कोई चिंता नहीं है। हिन्दी अखबारों और चैनलों में बेहतर और सरोकारी पत्रकारिता करने की जगह संकुचित और सीमित हो गई है। यही कारण है कि आज हिन्दी पत्रकारिता का एक बड़ा संकट उसके पत्रकारों की वह प्रोफेशनल असंतुष्टि है जो उन्हें सृजनात्मक और सरोकारी पत्रकारिता करने का मौका न मिलने या सत्ता और कारपोरेट के सामने धार और तेवर के साथ खड़े न होने की वजह से पैदा हुई है।
हिन्दी पत्रकारिता के इस कथित ‘स्वर्णयुग’ में पत्रकारों की घुटन बढ़ी है, उनपर कारपोरेट दबाव बढ़े हैं और पेड न्यूज जैसे सांस्थानिक भ्रष्ट तरीकों के कारण ईमानदार रहने के विकल्प घटे हैं। यही नहीं, हाल के वर्षों में सैकड़ों की संख्या में उन पत्रकारों को बड़े कार्पोरेट मीडिया संस्थानों से बाहर निकाला गया है या उन्हें निकलने के लिए मजबूर किया गया है जो स्वतन्त्र, क्रिटिकल और खोजी पत्रकारिता करना चाहते हैं या जो सत्ता-कार्पोरेट से सवाल पूछना और उसकी जिम्मेदारी तय करना चाहते हैं। पिछले डेढ़-दो दशकों से जारी इस नव मैकार्थिवादी अभियान में ज्यादातर समाचारकक्षों का “साफ-सुथरीकरण” (सैनिटाइजेशन) हो चुका है। वहाँ अब एक “मौन का चक्र” (स्पाइरल आफ साइलेन्स) है।
यह भारतीय लोकतन्त्र के लिए अच्छी खबर नहीं है।